सिख योध्दा भाई बचित्तर सिंह जी
साधारण क़द काठी के, ग़ज़ब के फुर्तीले, चुस्त-चालाक, चतुर और चोटी के सूरमा, महान शूरवीर योद्धा, दिलेर भाई बचित्तर सिंह का जन्म भाई मणी सिंह जी के गृह में 12 अप्रैल सन् 1663 ई. को ग्राम अलीपुर ज़िला मुजफ़्फरनगर में हुआ था। आप भाई माई दास जी के पोते और भाई बल्लू जी के परपोते थे। भाई मनी सिंह जी ने अपने 5 पुत्रों को श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब’ की सेवाओं में समर्पित किया था। ‘गुरु पंथ खालसा’ के इतिहास में भाई मनी सिंह जी का नाम अत्यंत सम्मान से लिया जाता है। कारण इस परिवार के 50 से ज़्यादा सिखों ने ‘गुरु पंथ खालसा’ के लिये अपनी शहीदियाँ अर्पित की थीं। भाई मनी सिंह जी के 12 भाई थे जिनमें से 11 ने ‘गुरु पंथ खालसा’ के लिये शहादत का जाम पिया था। और भाई मनी सिंह जी के 10 सुपुत्रों में से 8 सुपुत्रों ने ‘गुरु पंथ खालसा’ के लिये कुर्बानी दी थी। इन्ही में से एक भाई बचित्तर सिंह जी थे। जिन्होनें अपनी आयु का अधिकतम समय गुरु पातशाह जी के चरणों में सेवाएँ अर्पित करते हुए व्यतीत किया था। गुरु पातशाह जी के आप जी अत्यंत निकटवर्ती स्नेहियों में से एक थे और गुरु पातशाह जी भी उन्हें हमेशा अपनी बख़्शीशों से नवाज़ा करते थे। आप जी शूरवीर योद्धा के साथ-साथ बहुत ही संवेदनशील एवं कर्मशील सेवक थे। आप जी ने गुरु पातशाह जी के सान्निध्य में रहते हुये, प्रत्येक युद्ध में अग्रिम मोर्चे का नेतृत्व कर, अपने कुशल योद्धा होने का प्रमाण दिया था। आप जी को कृपाण (तलवार) चलाने में अत्यंत महारथ हासिल थी। अनेक युद्धों में आप जी ने अपनी कृपाण के जोहर से शत्रुओं को धूल चटा कर परास्त किया था। आप जी ने गुरु पातशाह जी द्वारा लड़े गए सभी युद्धों में हिस्सा लेकर, अपने शौर्य और निष्ठा का परिचय दिया था।
1 सितंबर, सन् 1700 ई. को जब 22 पहाड़ी राजाओं ने मिलकर, एक मदमस्त और बलशाली हाथी को शराब पिलाकर लौह गढ़ के क़िले का दरवाज़ा तोड़ने की योजना बनाई थी तो भाई बचित्तर सिंह जी को गुरु पातशाह जी ने इस मदमस्त हाथी से युद्ध करने के लिये विशेष रूप से चुना था। उस समय में भाई बचित्तर सिंह ने वचन किए थे है गुरु पातशाह! यदि आप जी का आशीर्वाद मेरे शीश पर है तो मैं यह शराब के नशे में मदमस्त और बलशाली हाथी क्या? अपितु स्वर्ग में निवास करने वाले हाथी अरावत का भी कपाल फाड़ सकता हूँ। गुरु पातशाह जी ने भाई बचित्तर सिंह जी को अपना नागिनी भाला (बरछा) विशेष रूप से इस मदमस्त हाथी के कपाल को भेदने के लिए बख़्शीश किया था।
दैत्याकार मदमस्त और बलशाली हाथी जिसका संपूर्ण शरीर लोहे की ढ़ालों से ढका हुआ था और उसकी सूंड पर दो धारी तलवार बाँधी गई थी। यह मदमस्त हाथी चिंघाड़ता हुआ बड़ी तेजी से लौह गढ़ क़िले की और दौड़ता चला आ रहा था तो भाई बचित्तर सिंह जी एक कमांडो की तरह क़िले से बाहर आये और घोड़े को तेजी से दौड़ाते हुए, जब घोड़ा मदमस्त हाथी के सामने आकर अपने दोनों पैरों पर खड़ा हो गया तो भाई बचित्तर सिंह जी ने अपनी पूरी शक्ति से, गुरु पातशाह जी के आशीर्वाद से नागिनी बरछे (भाले) से हाथी के कपाल पर एक अत्यंत शक्तिशाली प्रहार किया था। यह नागिनी बरछे (भाले) का प्रहार इतना शक्तिशाली था कि वह हाथी के कपाल पर बँधे लोहे के तवों को फाड़ता हुआ, सीधा हाथी के मस्तक/कपाल में घुस गया था।
इस फुर्तीले, बलशाली और लाजवाब वार का कोई तोड़ नहीं था। हाथी के मस्तक से लहू की तेज धाराएँ बहने लगी थी और वहाँ मुड़कर अपनी ही सेना पर चिंघाड़ते हुए, अपनी ही सेना को कुचलने लगा था। इस एक आक्रमण ने पूरे युद्ध का पासा पलट दिया था और 22 पहाड़ी राजाओं की फ़ौज ताश के पत्तों के महल की तरह धराशाई हो गई थी।
5 और 6 दिसंबर सन् 1705 ई. की रात को जब गुरु पातशाह जी ने श्री आनंदपुर साहिब का क़िला छोड़ने का फैसला किया तो भाई विचित्तर सिंह उन 40 लोगों में से एक थे, जिन्होंने गुरु पातशाह जी के साथ जीने-मरने का प्रण किया था। सुरक्षा की दृष्टि से गुरु पातशाह जी ने भाई विचित्तर सिंह जी को एक सौ सैनिकों की सेना का नायक नियुक्त कर, क़िले में स्थित लोगों के जत्थे (वहीर) के साथ क़िले से बाहर भेजा था। यह जत्था श्री आनंदपुर साहिब से कीरतपुर तक की यात्रा आसानी से कर सका था और वहाँ से जब इस जत्थे ने सरसा नदी के किनारे की ओर प्रस्थान किया तो पीछे से बड़ी संख्या में शत्रु सेना ने गोलियों और तीरों की बौछार कर हमला कर दिया था। गुरु पातशाह जी ने समय की नज़ाकत को देखते हुए अलग-अलग जत्थों को अलग-अलग स्थानों पर तैनात कर दिया था। गुरु पातशाह जी ने भाई विचित्तर सिंह जी को हिदायत दी थी कि वह सरसा नदी को पार कर रोपड़ नामक स्थान की ओर प्रस्थान करें ताकि सरहिंद से आ रही मुग़ल फ़ौजों को रोका जा सके। जब भाई विचित्तर सिंह जी का जत्था ग्राम मलकपुर रंगड़ा (जिसे वर्तमान समय में केवल मलकपुर नाम से संबोधित किया जाता है) में पहुँचे तो उस स्थान पर उनका मुकाबला स्थानीय रंगड़ और मुग़ल फ़ौजों से हुआ था। इस स्थान पर घमासान युद्ध हुआ और सौ सिखों के इस जत्थे ने शत्रु सेना के सैकड़ों सैनिकों को मारकर, शहीदी का जाम पिया था। इस युद्ध में भाई बचित्तर सिंह जी अत्यंत गंभीर रूप से घायल हो कर युद्ध के मैदान में अचेत पड़े हुये थे, शत्रु सेना ने उन्हें मृत समझकर छोड़ दिया था। पीछे से आ रहे साहिबज़ादा बाबा अजीत सिंह जी, भाई मदन सिंह जी और उनके साथियों ने जब युद्ध के मैदान में भाई बचित्तर सिंह जी को जख़्मी अवस्था में पाया तो उन्हें वहाँ से उठाकर उस स्थान से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोटला निहंग खान के निवास स्थान पर ले गए थे, श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब पहले से ही इस स्थान पर मौजूद थे और भाई बचित्तर सिंह जी का इलाज भाई निहंग खान के निवास स्थान पर प्रारंभ कर दिया गया था। भाई कोटला निहंग खान की बेटी बीबी मुमताज ने उनकी अत्यंत सेवा-सुश्रुषा की थी, परंतु भाई बचित्तर सिंह जी के जख़्म अत्यंत गहरे थे और खून भी बहुत बह चुका था इस कारण से वह बच ना सके और शहीद हो गये।
आप जी की शहीदी 8 दिसंबर, सन् 1705 ई. को हुई थी। आप जी का अंतिम संस्कार भाई गुरमा सिंह गहुणिआं-सैनी और भाई बग्गा सिंह जी बढ़ई ने रात्रि के अंतिम पहर में कर दिया था। इस तरह से अपना संपूर्ण जीवन भाई बचित्तर सिंह जी गुरु चरणों में अर्पित कर, शहीदी प्राप्त कर गये थे।
ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि भाई निहंग कोटला जी की बेटी बीबी मुमताज जिसका निकाह बस्सी पठाना के एक मुस्लिम युवक से होना तय था। इस बेटी के पिता भाई कोटला निहंग खान के निवास स्थान पर जब मुग़ल फ़ौज तलाशी ले रही थी तो भाई बचित्तर सिंह जी का जीवन बचाने के लिए उन्होंने फ़ौज के सूबेदार को झूठ बोला था और अत्यंत दृढ़ता से जवाब दिया था कि, मेरी बेटी मुमताज अपने खाविंद (पति) के साथ कमरे में आराम कर रही है। कारण बीती रात यह दोनों लंबी यात्रा करके आये हैं, इस्लाम धर्म की परंपरा के अनुसार गैर जनाने घर में पराये मर्दों का प्रवेश वर्जित है, जिसके कारण फ़ौजदार को विश्वास हो गया और उसने कहा कि आपकी बेटी अर्थात् मेरी बेटी है और मुग़ल फ़़ौज वहाँ से चली गई थी। इन मुस्लिम संस्कारों में पली-बढ़ी बीबी ने इसे इलाही हुक्म मानकर, भाई विचित्तर सिंह जी के चरणों में अपने शीश को निवा कर, उसे अपना खाविंद मान लिया था और आप जी ने बाद में भाई विचित्तर सिंह की विधवा के रूप में अपना जीवन व्यतीत किया था। भविष्य में आप जी माई मुमताज के नाम से प्रसिद्ध हुई थी। दीर्घायु माई मुमताज ने गुरु चरणों से जुड़कर सारी उम्र गुजार दी थी। आप जी अपनी तमाम उम्र यही वचन करती रही थी–
वाह-वाह गुरु गोविंद सिंह भाणे का खाविंद गुरु गोविंद सिंह!
धन्य थी माई मुमताज जिसने अपने पिता के वचनों पर तमाम उम्र एक विधवा के रूप में गुरु पातशाह जी का यशगान किया था। वर्तमान समय में माई मुमताज की कब्र और मज़ार ग्राम बड़ी (जो कि कोटला निहंग खान से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है) की एक पहाड़ी पर स्थित है। इस ग्राम बड़ी की एक अन्य पहाड़ी पर माई मुमताज की मधुर स्मृतियों में गुरुद्वारा साहिब की विलोभनीय इमारत सुशोभित है। ऐतिहासिक स्रोतों से यह भी ज्ञात होता है कि, भाई कोटला निहंग खान की इसी बेटी मुमताज के भाई का नाम आलम खान था और आलम खान के ससुर रामकल्ला जी थे, रामकल्ला जी की सेवा में नूरामाही नामक सेवादार उनकी तामिर करता था इस नूरामाही की बहन का नाम रज़िया था, इसी बहन रज़िया ने अपनी आँखों से छोटे साहिबज़ादों की शहादत को देखकर उसका वृतांत सभी को दिया था। भाई बचित्तर सिंह जी के दो पुत्र भाई संग्राम सिंह और भाई राम सिंह जी थे जिन्होंने ‘गुरु पंथ खालसा’ के लिये अपना जीवन अर्पित कर, शहीदी का जाम पिया था। भाई संग्राम सिंह 13 मई सन् 1710 ई. को चप्पड़ चिड़ी के युद्ध (सरहिंद के युद्ध) में शहीद हुये थे और भाई राम सिंह जी बंदा सिंह बहादुर के साथ 9 जून सन् 1716 ई. को दिल्ली में शहीद हुए थे।
शूरवीर भाई बचित्तर सिंह जी का नाम ‘गुरु पंथ खालसा’ के इतिहास में अपना यादगार स्थान रखता है। कई वारों में और दूसरी ऐतिहासिक रचनाओं में समय-समय पर अंज़ाम दिये गये, भाई बचित्तर सिंह जी के बहादुरी, निडरता और दिलेरी के कारनामों को बड़ी संजीदगी से पेश किया गया है–
बोलिआ चित्र – बचित्र सिंह, रण होली खेलां जाई कै॥
पहिला खंडा झाड़ना, रुसतम दे सिर कतराह कै॥
(वार पातशाही दसवीं की, पंजाबी वारां, संपादक पिआरा सिंह पदम्, पृष्ठ क्रमांक 258, 1980 की आवृत्ति)।
बरछा मारिआ मारिआ बचित्तर सिंह कुंभ विच उठाए ॥
रणों के हाथी भज कै फिर राजी पाए ॥
बरछा सिंह बचित्तर दा मुल महिंगे होइआ ॥
(पंजाबी वारां पिआरा सिंह पदम्, सफा क्रमांक 274)।
बचित्तर सिंह तेरी बरछी रोशन, तेरी सांग झरमल करै ॥
तेरे नाम थी रिपु थर-थर कापै, तेरी परबत हलक परै ॥
(देसा सिंह भट्ट का दोहा, भाई भागू सिंह के आनंद कारज (परिणय बंधन) अमृतसर में सन् 1706 ई. में पढ़ा गया था)।
(नोट– इस पूरे इतिहास की जानकारी भट्ट बही मुलतानी सिंधी और भट्ट बही तलउढ़ा में भी अंकित है)।