समय का विलाप: समय से परे, फिर भी समय के अधीन

Spread the love

समय का विलाप: समय से परे, फिर भी समय के अधीन

मानवता ने विज्ञान-विकास के पथ पर चलते हुए दूरी, परिश्रम और जटिलताओं को सरल करने के लिए जो प्रगति की है, वह अद्भुत है। किन्तु विडम्बना देखिए—समय बचाने की अट्टालिकाएँ जितनी ऊँची उठती जाती हैं, मनुष्य उतनी ही व्यग्रता से दोहराता है, “समय नहीं है!” यह लेख उस विरोधाभास का साहित्यिक दिग्दर्शन है, जहाँ सुविधाएं अनगिनत हैं, पर समय का अभाव असीम।

1. दूरी का संकोच, पर मन का विस्तार नहीं

चौबीस-चौबीस घण्टों का रेल-सफ़र अब तीव्रगामी यानों से दो से तीन घण्टों में सिमट गया। वायुमार्ग ने तो और भी पंख लगा दिए, परंतु यात्रियों पर शिकवा वही, समय नहीं है। जिस तरह राजपथ छोटा हुआ, उसी तरह ‘राह’ का रस भी सिकुड़ गया; अब खिड़की से बदलते दृश्य देखना विलास माना जाता है।

2. घर-परिवार का क्षरण, तन्हाई का विस्फोट

बारह सदस्यों से सजी संयुक्त गृहस्थी दो प्राणियों तक आकर ठहर गई। परस्पर संवाद घटते गए, किन्तु ‘फ़ुरसत’ का प्रश्न ज्यों-का-त्यों। टेलीविजन के अनेकानेक चैनलों ने बैठक घरों को बांध दिया; अब भोजन के समय भी एक साथ बैठना विलास प्रतीत होता है।

3. संदेश और स्वत्व

कभी डाकिए की सीटी दिलों में आशा जगाती थी; चार दिन में शुभ समाचार मिलता था। आज मोबाइल नेट वर्क के द्वारा भेजे गये संकेतों का बादल दो से तीन सेकण्ड में बरसता है; फिर भी हम कहते हैं—“प्रत्यूत्तर देने को समय नहीं।” सूचना बाढ़ का प्रवाह बढ़ा, पर संवेदनाओं का पानी सूखता चला गया।

4. सेवा-सुविधा की मरीचिका

“तीस मिनट में नहीं तो मुफ़्त”—यह वाक्य खाने से लेकर चलचित्र तक हमारी जिह्वा पर चिपका है। सुविधाएँ ‘फ़ास्ट-लेन’ में दौड़ रही हैं, परंतु मन अविराम ट्रैफ़िक जाम का शिकार है। प्रश्न उठता है कि हम सुविधा को साधन मानें या स्वयं को सुविधा का साधन बना बैठे हैं?

5. दृश्य-दूरी से दृश्य-निकट

जिस चेहरे के दर्शन को एक साल प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, वह अब वीडियो कॉल की नीली रोशनी में पल-भर में सामने है। फिर भी मिलन की मिठास कम हुई है, डिजिटल आलिंगन सजीव स्पर्श का विकल्प नहीं बन सका। समय की कमी हम नहीं, हमारी अनुभूति झेल रही है।

6. लिफ्ट की ऊर्ध्व यात्रा, आत्मा की अधोगति

महलों सी इमारतों में लिफ़्ट तनिक दबाव से ऊँचाई नाप लेती हैं। पर भीतर का मन जाने क्यों उतना ही बोझिल उतरता-चढ़ता है। सरलता ने श्रम घटाया, मगर श्रम से उपजने वाला संतोष भी विलीन हो गया। यह संतोष ही तो जीवन की धड़कन था!

7. बैंकिंग की बायोनिक छलाँग

बैंकों में कभी लम्बी कतारें सामाजिक परिचय का केंद्र थीं; लोग पर्चे भरते-भरते समाचार बाँट लेते थे, एक – दुसरे का दुख – सुख पूछ लेते थे। आज अंगुलियों की टच ने पलक झपकते धन हस्तांतरित कर दिया, किन्तु मन के खाते में संवाद का शून्य जमा होता रहा। विस्मय यह कि समय फिर भी अपर्याप्त दिखलाई देता है।

8. चिकित्सा की चमत्कारी त्वरितता

हफ़्तों चलने वाले परीक्षण अब कुछ घण्टों में रिपोर्ट थमा देते हैं; फिर भी हम ‘चेकअप’ के दिन तंग रहते हैं। परहेज़ से बड़ा रोग उपचार में अवहेलना है और उसका नाम है ‘समयाभाव’। शरीर की मशीनरी पर हम दया नहीं, लापरवाही की मरहम लगाते जाते हैं।

9. गतिमान गप्पें: दो हाथ, एक फ़ोन

स्कूटर का हैण्डल एक हाथ, मोबाइल दूसरे में; कार की स्टेरिंग घूमती है तो साथ-साथ स्क्रीन भी स्क्रॉल होती है। रुक कर बात करने में जो शिष्टाचार था, वह अब ‘अन-प्रोडक्टिव’ कहलाता है। विचित्र है कि दुर्घटना के क्षण में ही हमें सबसे अधिक समय मिलता है, पश्चाताप के लिए!

10. भीड़ में विद्रोह, अकेले में विराम

चार मित्रों की गोष्ठी में व्यक्ति मोबाइल के शरणागत हो जाता है, बात-बात पर नोटिफ़िकेशन की घंटी; वही मन जब एकांत में गिरता है तो निश्चिन्त प्रतीत होता है। निश्चित ही यह ‘चलबिचल’ बताती है कि समय का अभाव बाहरी नहीं, आन्तरिक असमंजस है।

11. मनोरंजन का वैभव, आत्म-सम्भाषण का अभाव

आई-पी-एल के चौकों-छक्कों का सीधा प्रसारण, ओटीटी पर नवीनतम फ़िल्में, कैफ़े-कल्चर के अनवरत जलसे, सबके लिए समय मिलता है। पर वैचारिक आर्तनाद, आत्मपरिचय, मौन-मंथन इन सबके लिए वही पुराना बहाना: “समय नहीं है!” व्यक्ति इन लक्षणों को विलास कहता है, पर इन्हीं में जीवन की धुरी है।

निष्कर्ष: समय का असली लुटेरा कौन?

घड़ी की सूईयाँ आज भी चौबीस ही चक्कर लगाती हैं। प्रश्न यह है कि हमने समय को नहीं, समय ने हमें बांध रखा है या हमने स्वयं को व्यर्थ की परेशानियों से जकड़ा है?

समय एक मूक सन्देशवाहक है:

“मैं तुम्हारे पास उतना ही हूँ जितना कल था, किंतु तुमने अपनी उपस्थितियों को बिखरा दिया।

साधनों को साध्य समझ बैठे, सुविधाओं को स्वाधीनता मान बैठे और साधारण सी साँसों को असाधारण भाग दौड़ से रौंद दिया।”

इसलिए, हे आधुनिक मानव!

सुविधा का स्वागत करो, पर संवेदना का समर्पण न खोओ।

प्रगति की पगडंडी पर दौड़ते हुए भी, क्षण-भर ठहरो, साँसों की नब्ज़ सुनो, और आत्मा से पूछो, क्या सचमुच तुम्हारे पास समय नहीं है,

या तुम समय को जीवित रहने का अवसर ही नहीं दे रहे?

याद रखों समय ही जीवन है, समय मिलता नहीं अपितु निकलना पड़ता है।

 

 


Spread the love
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments