सतगुरु की सेवा सफल है

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

चलते–चलते. . . .

(टीम खोज–विचार का पहेल)

सतगुरु की सेवा सफल है

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

चलते–चलते. . . .

(टीम खोज–विचार की पहेल)

विगत वर्ष नवंबर में देहरादून से चंडीगढ़ की ओर अपनी कार से यात्रा कर रहा था। वैसे तो यह सफर केवल 4 से 5 घंटे का है। इस सफर में हमेशा एक सुखद अनुभव प्राप्त होता है की रास्ते में विश्राम करने के लिये मेरा एक ही स्थायी ठिकाना होता है ‘गुरुद्वारा पांवटा साहिब जी’!

गुरुद्वारे में पहुंचकर, मत्था टेक कर, शांति से कीर्तन सुनते हुए प्रभु के नाम का स्मरण करना एवं प्रभु के आशीर्वाद के रूप में कड़ाह प्रसाद लेना और ‘गुरु दा लंगर’ में हाजिरी लगाकर सभी दर्शनार्थियों के साथ एक पंक्ति में चौकड़ी मारकर, ज़मीन पर बैठकर, भोजन (प्रसाद) ग्रहण करना। यह अनुभव अपने आप में एक खुशनुमा माहौल में उत्साहित होकर त्योहार मनाने के जैसा होता है।

यह अनुभव गुरुद्वारे में उपस्थित सभी जाति, धर्म, महिला, पुरुष और बच्चों के लिए एक जैसा ही होता है। यात्रा के दरमियान पाउंटा साहिब गुरुद्वारे में बिताया हुआ यह वक्त जीवन में एक नई ऊर्जा प्रदान करता है।

लंगर छकने के बाद गुरुद्वारा परिसर में स्थित एक छोटे मार्केट में चहलक़दमी करते हुए मेरी नजर एक गुज्जर परिवार पर पड़ी ऐसे गुज्जर मुस्लिम परिवार पहाड़ों और दरियाओं में जानवरों के साथ लगातार यात्रा करते हैं और दूध बिक्री कर अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं। मार्केट में स्थित एक चाय के स्टॉल पर यह गुज्जर परिवार किसी गंभीर विषय पर चर्चा कर रहा था। इस परिवार में एक वृद्ध जोडा़, दो प्रौढ़ जोड़ें और चार छोटे बच्चे ऐसे कुल मिलाकर 10 सदस्यों का यह परिवार था। परिवार का वृद्ध अपने हाथ में कुछ छुट्टे पैसे और मेले–कुचले नोटों को गिन कर कुछ हिसाब लगा रहा था। मेरे हिसाब से वह लोग उस चाय की स्टाल में कुछ ख़ाने की वस्तुओं का ऑर्डर देने वाले थे। अंत में परिवार ने मिलकर निर्णय लिया और चार समोसे एवं तीन चाय ऐसा एक ‘बड़ा सा’ ऑर्डर उस स्टाल वाले को उन्होंने दिया।

मुझे उनकी गरीबी का एहसास हो गया था फिर भी मैंने दबे हुये स्वर में बड़ी विनम्रता से पूछा की आप लोग भोजन करना चाहते हैं क्या?

वातावरण अचानक शांत हो गया था परंतु उस वातावरण की शांति सब कुछ बोल रही थी। उन बच्चों की नजरों में आशा की एक किरण नजर आ रही थी। वह आशा की किरण ही मेरे प्रश्न का उत्तर थी।

परिवार के प्रमुख ने बड़ी लाचारी से कहा कि हमने भोजन किया है। मैं आगे से कुछ बोलता उसके पहले परिवार के 4 बच्चों में से एक छोटा बच्चा व्याकुलता से बोल पड़ा ‘बड़े अब्बू सुबह से हमने कुछ भी तो नहीं खाया है’। उस बच्चे की भोजन करने की व्याकुलता देख मेरे हृदय में मानों भूकंप आ गया था। मैंने उस परिवार प्रमुख वृद्ध और छोटे बच्चे का विनम्रता और प्यार से हाथ पकड़ा और उन्हें गुरुद्वारे के लंगर घर की ओर ले कर चल पड़ा एवं कहा की यह प्रभु का प्रसाद है इसे लेने से आप मना मत करिएगा। परिवार के चेहरे पर एक संतोष का भाव था परंतु एक अंजाना सा डर ज़रूर नजर आ रहा था शायद ज़िंदगी में पहली बार परिवार इस्लाम के किसी धार्मिक स्थान पर ना जाते हुए गुरुद्वारे में जा रहा था।

परिवार के सभी सदस्यों के जूते–चप्पल मैंने स्वयं गुरुद्वारे के जोड़ा घर में अपने हाथों से रखे। गुरुद्वारे में दी गई यह मेरी प्रथम कार सेवा थी। एक अजीब सी शांति मेरे अन्तर मन में थी। परिवार के लोग असमंजस में थे परंतु एक अनोखे आत्मविश्वास से मुझे देख रहे थे। मैंने मुस्कुराते हुए हुए कहा कि यह मेरी और से गुरु घर में दी गई छोटी सी सेवा है। चलो हम सभी सद्गुरु जी के चरणों में मत्था टेकते हैं और प्रसादि लेते हैं। परिवार के सभी सदस्यों ने गर्दन हिलाकर हामी भरी और मेरे साथ चल पड़े चारों छोटे बच्चों का ध्यान लंगर घर की और था। आते–जाते दर्शनार्थी हमें कटाक्ष तिरछी नजरों से घूर रहे थे। इस कारण मन में बेचैनी थी परंतु मैंने उस बेचैनी को नजर अंदाज कर उन चारों बच्चों की और ध्यान देकर उनका आत्मविश्वास जागृत किया। उन बच्चों ने अलग–अलग रंगों के पटके/दस्तार अपने सरों पर बांध लिये थे, पटके बांधने की यह कला उन्होंने स्वयं ही अर्जित कर ली थी। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के सामने मत्था टेकते हुये इन चारों बच्चों के चेहरे पर अपार भक्ति भाव प्रकट हो चुका था। जो सभी को नजर आ रहा था, गुरुद्वारे के भाई जी ने बच्चों को कडा़ प्रसादि दिया और हंसकर पूछा और चाहिए क्या? बच्चों ने भी आनंदित होकर अपने हाथ आगे बढ़ा दिये थे।

गुरु घर के लंगर की कतार में मैं उनके पीछे खड़ा था। ज़बरजस्तदस्त उत्साहित होकर बच्चों ने थाली उठाई और टाट पट्टी पर चौकड़ी मारकर बैठ गये। लंगर घर में हमारे सामने की कतार में एक शादी-शुदा नया जोड़ा बैठा था। नई–नई शादी हुई थी और यह सौभाग्य जोड़ा गुरुद्वारे में शादी के बाद पहली बार मत्था टेकने आए थे। वर–वधु लंगर छक रहे थे। वधू ने बहुत ही सुंदर लाल जोड़ा पहना हुआ था एवं उसके हाथों में पहना हुआ चूड़ीयों का जोड़ा सभी का ध्यान आकर्षित कर रहा था। उसने उन छोटे बच्चों को हाथ से इशारा कर मुस्कुराते हुए अपने पास बुला बुलाया। सबसे छोटे दो बच्चे दौड़ते हुए बड़े उत्साह से वर–वधू के बीच में बैठ गये और उसने बड़े प्यार से अपने हाथों से उन दोनों छोटे बच्चों को लंगर खिलाया उस नववधू के चेहरे पर एक अजीब खुशी और आत्म संतोष था। मैं मन ही मन सोचने लगा कि यह नववधू भविष्य में एक अच्छी और कर्तव्य दक्ष, ममत्व से परिपूर्ण माँ होगी।

हम सभी को लंगर बांट दिया गया। मैं थोड़ा सा जल्दी उठ गया कारण में इसके पहले भी लंगर ग्रहण कर चुका था।‌ मेरे साथ आये मेहमान संकोच और डर को भूलकर भरपेट लंगर का आनंद ले रहे थे। उस परिवार के चेहरे पर आत्म संतुष्टि का आनंद एक झरने की तरह प्रवाहित हो रहा था। जिसे शब्दों में संप्रेषित कर वर्णन नहीं किया जा सकता है।

इतने में गुरुद्वारे का एक तरुण सेवादार ज्ञानी जी को लेकर मुझे खोजता हुआ मेरे पास आया और मेरी तरफ उंगली उठाकर ज्ञानी जी के कान में कुछ फुसफुसाने लगा। मैं आगे आया और ज्ञानी जी को अदब से नमस्कार कर उनके सामने खड़ा हो गया। गुरुद्वारे में प्रवेश करते समय मेरे मन में जो अस्वस्थता थी वह अब एक अजीब से डर में परिवर्तित हो गई थी। मेरे मेहमान खौफ खाकर नजरें चुराने लगे थे। ज्ञानी जी ने परिवार की और इशारा कर मुझसे पूछा की आप इन्हें लेकर आये हैं?

मैंने गर्दन हिलाकर बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया कि हां मैं इन्हें लेकर आया हूं। ज्ञानी जी ने मुझसे पूछा कि क्या तुम रोज नितनेम करते हो?

अचानक पूछे गए इस प्रश्न से में गड़बड़ा गया और मैं लापरवाही से उत्तर देने वाला था हां! परंतु मेरे बचपन के संस्कारों ने मेरे मन को नियंत्रित किया और मैंने विनम्रता से ज्ञानी जी को उत्तर दिया की मैं रोज नितनेम नहीं करता हूं। ज्ञानी जी ने विनम्रता से कहा कि आपके द्वारा गुरु घर में की गई यह सेवा भी किसी नितनेम से कम नहीं है। ज्ञानी जी आगे क्या कहने वाले हैं? मैं मन ही मन तैयारी कर रहा था की ज्ञानी जी के अगले वचन सुनकर मैं असमंजस में पड़ गया, ज्ञानी जी ने कहा कि आज आपने जो सेवा की है, इससे आपको गुरु घर की समस्त खुशियाँ प्राप्त हो चुकी है। इस परिवार को गुरु के चरणों में लाकर और उनकी सेवा कर उन्हें लंगर ग्रहण करवा कर, जो महान सेवा आपने की है, उसके लिये हम सदा आपके ऋणी हैं और इसके लिए आपको दिल से साधुवाद!

मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि यह मेरा उपहास है या उपदेश!

तत्पश्चात् ज्ञानी जी हाथ जोड़कर उस गुज्जर परिवार के सम्मुख गये और कहने लगे कि आगे से आप जब भी इस रास्ते से जाएं तो गुरुद्वारे में हाजिरी लगाकर गुरु के चरणों में मत्था टेक कर प्रसाद ग्रहण कर और लंगर छक कर जाएं क्योंकि यह वाहिगुरु जी की सभी को देन है और वाहिगुरु जी के आशीर्वाद से हमने अपनी झोलियां भरनी है। इस स्थान पर हाथ जोड़कर मत्था ही तो टेकना है और ज्ञानी जी ने हमें हाथ जोड़ नमस्कार किया एवं मुस्कुराते हुए वहां से चले गये।

हम सभी गुरुद्वारे के बाहर आ गये थे और पूरे परिवार ने आदर पूर्वक मुझे नमस्कार किया। परिवार की वृद्धा अपने शौहर के कान में कुछ फुसफुसाने लगी मैंने उत्सुकतावश पूछा क्या बात है मियां जी? कुछ रह गया क्या? मियां जी कहने लगे साहेब उनकी इच्छा है की यदि आपको कोई समस्या ना हो तो यह आपके सिर पर हाथ रखकर अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करना चाहती है। मैंने हंसते हुए आगे होकर उस वृद्ध महिला के सामने अपना सर नत मस्तक कर दिया, उस वृद्ध महिला ने अपने एक हाथ से आंखो का पानी पोंछा और दूसरा हाथ मेरे सर पर रख कर कुछ बड़बड़ाने लगी। मैं कुछ समय भावुक मुद्रा में ही खड़ा रहा और मैंने अपनी डबडबाई आँखों को रुमाल से पोंछा और मेरे देखते–देखते ही वह परिवार अदृश्य हो चुका था।

यह शायद मेरे मन का भ्रम है या कुछ और परंतु जब भी मैं नतमस्तक होता हूं तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उस मुस्लिम वृद्धा का झुरियों वाला हाथ मेरे माथे को वात्सल्यपूर्ण नयनों से सहला कर मुझे शुभकामनाएं प्रेषित कर रहा है।

‘शायद यही कारण है कि मैं इस देश की संस्कृति और गंगा–जमुना तहजीब को नमन कर स्वयं को धर्मनिरपेक्ष समझता हूं’।

साभार— यह लेख मेजर जनरल एस.पी.एस. नारंग (सेवानिवृत्त) के अनुभव लेखन से प्रेरित है।

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गुरु घर की बरकत

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