संत-सिपाही: खालसा
असि क्रिपान खंडो खड़ग तुपक तबर अरु तीर॥
सैफ सरोही सैहथी यहै हमारै पीर॥
(शशत्र नाम माला)
दशमेश पिता, ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’, करुणा, कलम और कृपाण के त्रिवेणी स्वरूप थे। उन्होंने उस काल के समस्त प्रचलित शस्त्रों को ‘पीर’ अर्थात ईश्वरतुल्य घोषित कर, शस्त्रों को धर्म और आत्मिक उत्थान का माध्यम बना दिया। यह कोई साधारण घोषणा न थी, अपितु उस वैचारिक क्रांति का उद्घोष था, जिसमें भक्त और योद्धा का समन्वय हुआ।
सिख धर्म में शस्त्र-संस्कार की नींव षष्ठम पातशाह ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ ने रखी थी। आपने ‘मीरी’ (राजनीतिक अधिकार) और ‘पीरी’ (आध्यात्मिक मार्गदर्शन) की दो कृपाण धारण कर, सिखों को ‘संत-सिपाही’ की पहचान दी। यह संतुलन आत्मज्ञान और युद्धनीति का प्रतीक बना।
इस परम परंपरा को पूर्णता मिली सन 1699 ई. की वैशाखी पर, जब श्री आनंदपुर साहिब में दशम पिता ने ‘खंडे-बाटे का अमृत’ प्रदान कर खालसे का प्राकट्य किया। यह न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान था, बल्कि एक सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक क्रांति भी थी। अमृत संचार द्वारा पंच प्यारों को जन्म दिया गया और स्वयं गुरु जी ने उन्हीं से अमृत ग्रहण कर ‘खालसा’ में स्वयं को समर्पित किया। इसी क्षण से खालसा को पंच ककारों से विभूषित किया गया, जिनमें ‘कृपाण’ प्रमुख रही (एक ऐसा शस्त्र जो आत्मरक्षा, न्याय की रक्षा और अत्याचार के विनाश का प्रतीक बना)।
‘कृपाण’ मात्र लोहे की एक तलवार नहीं अपितु गुरु की दृष्टि से अलंकृत आत्मबल की एक मूर्त अभिव्यक्ति है। यह शस्त्र सिख के साथ सदा रहता है, न केवल शरीर पर, अपितु चेतना में भी। यह वह अस्त्र है जो विश्वास जगाता है, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का संकल्प देता है।
इसी आदर्श को मूर्त रूप मिला ‘गतका’ विद्या में, जो सिखों की पारंपरिक युद्ध कला है। यह केवल मार्शल आर्ट नहीं, बल्कि आत्मसंयम, चपलता, साहस, समर्पण और ईश्वर-समर्पित युद्ध-धर्म का जीवंत अभ्यास है। गतका के माध्यम से सिख न केवल शस्त्र संचालन की कला में पारंगत होते हैं, अपितु वे अपने अस्तित्व और उत्तरदायित्व की गहराई को भी समझते हैं।
गतका में ‘चक्र’ शस्त्र का विशेष स्थान है, एक ऐसा परिधीय अस्त्र, जिसे ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ ने स्वयं अपने दुमाले (दस्तार) पर सजाया। यह शस्त्र न केवल आभूषण स्वरूप था, बल्कि युद्ध में शत्रु के आक्रमण से रक्षा का अद्वितीय उपाय भी था। चक्र को हाथ या तर्जनी उंगली पर घुमा कर शत्रु पर घातक प्रहार किया जाता था। इतिहास गवाह है कि इस चक्र ने कई युद्धों की दिशा बदली, और खालसा योद्धाओं ने इसके माध्यम से अनेक युद्धों में विजय पताका फहराई।
ऐसा ही एक प्रेरणादायी प्रसंग है, जहाँ चक्र के चमत्कारी प्रयोग ने युद्ध भूमि की तासीर ही बदल दी| ऐसा प्रसंग जो पीढ़ियों तक सुनाया जाना चाहिए, ताकि हमारे युवा समझ सकें कि खालसा केवल कृपाण उठाने की विधा नहीं, बल्कि न्याय, करुणा और सेवा के पथ का रक्षक भी है।
खालसा की यह गौरव गाथा, शस्त्रों की दिव्यता, और संत-सिपाही की परंपरा, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय थी। यह आलेख न केवल अतीत का चित्रण है, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए संकल्प का शंखनाद भी है| एक पुकार कि जब तक अन्याय जीवित है, तब तक कृपाण की धार में करूणा और साहस की लौ प्रज्वलीत रहनी चाहिए।
सन 1757 ई. का वह विकराल क्षण इतिहास की स्मृतियों में आज भी गूंजता है, जब विदेशी आक्रांता अहमदशाह अब्दाली ने ‘श्री हरमंदिर साहिब अमृतसर’ की पावन भूमि को अपवित्र करने का दुस्साहस किया। गुरु की पवित्र नगरी पर यह दुस्साहसिक आक्रमण सिखों के आत्मसम्मान को ललकार था। इसी समय शहीद बाबा दीप सिंह जी ने अब्दाली की सेना से लोहा लेने हेतु अपने प्राणों का संकल्प लेकर अमृतसर की ओर कूच किया।
यात्रा के मध्य गोहरवड़ नामक स्थान पर हुआ घमासान युद्ध, सिख वीरता और शस्त्र कौशल का अद्वितीय उदाहरण बन गया। इसी युद्ध में ‘चक्र’ नामक पारंपरिक शस्त्र ने अपनी अद्वितीय उपयोगिता सिद्ध की, जब शौर्य और चातुर्य का संगम एक ऐसे वीर योद्धा के हाथों हुआ, जो गुरु के खालसे की गरिमा का प्रतीक बन गया।
अब्दाली की सेना का एक दुर्दांत सिपहसालार जबरदस्त खान, हाथी पर सवार होकर सिखों पर लगातार प्रहार कर रहा था। उसकी हिंसा ने कई निहत्थे सिखों को वीरगति प्रदान की। उस समय अधिकतम सिख पैदल थे और कुछ ही घुड़सवार योद्धा युद्ध भूमि में डटे थे। ऐसे संकट के क्षणों में सिखों के वीर योद्धा बाबा बलवंत सिंह जी ने मैदान में प्रवेश किया| उनकी उपस्थिति जैसे आंधी में दीपक की लौ को फिर से प्रज्वलित कर गई।
बाबा जी घोड़े पर सवार थे, और जबरदस्त खान से सीधे लोहा ले रहे थे। उनके कई वारों को सहते हुए, बाबा जी ने एक रणनीतिक विराम लिया और कुछ दूरी बनाकर अपने घोड़े को मोड़ा। जैसे ही उन्होंने पुनः सामने से प्रहार का अवसर पाया, उन्होंने अपने दुमाले (दस्तार) से चक्र शस्त्र को निकालकर चपलता से जबरदस्त खान की ओर उछाला।
यह चक्र ऐसा घूमता चला गया मानो आत्मा की तीव्र वेगवती आह थी, उनकाञह वार इतना सटीक और घातक था कि हाथी पर सवार जबरदस्त खान का सिर धड़ से अलग हो गया। उसकी आँखें खुली रह गईं, परंतु चेतना क्षण भर में लुप्त हो चुकी थी। रक्त की धाराओं ने मैदान को लाल कर दिया और सिखों की जयकार से आकाश गूंज उठा।
युद्ध अभी शेष था। उस समय जबरदस्त खान का भाई रुस्तम खान, क्रोधित होकर बाबा बलवंत सिंह जी को ललकारने लगा, “यदि तुम सच्चे गुरु के सिख हो, तो सामने आओ, आमने-सामने की लड़ाई करो।”
बाबा जी ने उस ललकार को सम्मान सहित स्वीकार किया और घोड़े पर सवार होकर रुस्तम के समक्ष पहुंचे। उन्होंने कहा-
“पहला प्रहार तुम करो, ताकि बाद में यह मलाल न रह जाए कि अवसर नहीं मिला।”
रुस्तम ने तीखा वार किया, परंतु बाबा जी ने चपलता से उसे निष्फल कर दिया। जब प्रतिकार का समय आया, तो बाबा बलवंत सिंह जी ने अपनी तेग (कृपाण) से ऐसा प्रचंड प्रहार किया कि रुस्तम खान का सिर हवा में लहराता हुआ नीचे गिर पड़ा। यह प्रहार गुरु के कृपापात्र वीर का था, अडिग, निर्णायक और अजय!
इस युद्ध ने न केवल शत्रु को ध्वस्त किया, बल्कि ‘गुरु पंथ खालसा’ की मर्यादा और वीरता का ऐसा परचम लहराया जो युगों तक आने वाली पीढ़ी को प्रेरणा देता रहेगा।
उस समय बाबा बलवंत सिंह जी की शहादत इतिहास का अमिट अध्याय बन गया। आपकी स्मृति में ग्राम चब्बा वरपाल (जिला अमृतसर) स्थित गुरुद्वारा बैर साहिब आज भी सिखों की श्रद्धा का केंद्र है। आपकी माता जी का नाम आशा कौर तथा पिता जी सरदार तेजा सिंह था। आप मूलतः ग्राम निहाल सिंह वाला, पंजाब के निवासी थे।
आप जैसे वीरों ने न केवल मिट्टी से प्रेम किया, बल्कि उसे रक्त से सींच कर देश की मिट्टी के गौरव को अक्षुण्ण रखा। मातृभूमि के लिए सर्वस्व अर्पित करने वाले महान सपूत बाबा बलवंत सिंह जी को शत-शत नमन!
निश्चित ही आपका जीवन ‘गुरु पंथ खालसा’ की कृपाण की कृपा है, जो न्याय के लिए उठती है, और अन्याय के अंत की उद्घोषणा करती है।
