संक्षिप्त जीवन परिचय: स्व. जत्थेदार सरदार सुरेंद्र सिंह जी अरोरा (उज्जैन निवासी)
ੴ सतिगुरु प्रसादि॥
1. नाम, जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि-
श्री गुरु नानक देव साहिब जी द्वारा स्थापित सिख धर्म की पावन विरासत की सुरभित फुलवारी में, मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक नगर, बाबा महाकाल की पावन, पुनीत धरती उज्जैन में, एक साधारण किन्तु संस्कार सम्पन्न मध्यमवर्गीय सिख परिवार में स्वर्गीय जत्थेदार सुरेन्द्र सिंह अरोरा जी का जन्म 29 नवंबर सन 1950 ई. को हुआ। आपके पूज्य पिता, स्व. सरदार चरण सिंह अरोरा, लकड़ी की आढ़त के व्यवसाय से आजीविका चलाते थे, जबकि माता शिलावंती जी सौम्यता, धार्मिक प्रवृत्ति, मिलनसार स्वभाव और परिवार को प्रेम के सूत्र में पिरोकर रखने की अनुपम क्षमता की धनी थीं।
जत्थेदार सुरेन्द्र सिंह अरोरा जी बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे, महान शायर, प्रखर लेखक, अटूट देशभक्त, समाज सुधारक, लोकनायक, परोपकारी, सफल व्यवसायी, और पुरातन परंपराओं को सहज भाव से संरक्षित रखने वाले। उन्होंने गुरमत के सिद्धांतों को जीवन में पूर्णतः आत्मसात कर, सिक्ख जीवन शैली को आदर्श रूप में जिया। उनका सम्पूर्ण जीवन सेवा, शक्ति, शील, सहजता, पराक्रम और ज्ञान का अद्वितीय समन्वय था। देश की स्वतंत्रता के उपरांत उज्जैन के सिख समाज के सर्वांगीण विकास में उनके योगदान को आने वाली पीढ़ियां श्रद्धा और कृतज्ञता के साथ स्मरण करती रहेंगी।
2. शिक्षा और प्रारंभिक जीवन-
स्वर्गीय जत्थेदार सुरेन्द्र सिंह अरोरा जी का प्रारम्भिक शिक्षण फाजलपुरा प्राथमिक विद्यालय में हुआ, जहाँ बाल्यावस्था से ही आपकी मेधा शक्ति और अनुशासन प्रियता स्पष्ट झलकने लगी थी। इसके उपरान्त आपने माध्यमिक शिक्षा जीवाजीगंज विद्यालय से प्राप्त की, जहाँ आपने न केवल अध्ययन में उत्कृष्टता दिखाई, बल्कि अपने व्यक्तित्व, विनम्रता और नेतृत्व गुणों से शिक्षकों एवं सहपाठियों का स्नेह भी अर्जित किया। उच्च शिक्षा के लिए आप माधव महाविद्यालय (विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन) में प्रविष्ट हुए और क्रमशः बी.ए., डबल एम.ए. तथा एल.एल.बी. जैसी प्रतिष्ठित डिग्रियाँ प्राप्त कर उच्च शिक्षित व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
छात्र जीवन में ही आपके नेतृत्व कौशल की पहचान उस समय हुई, जब आपने माधव महाविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में विजय प्राप्त कर अध्यक्ष पद का दायित्व संभाला। उस समय आप अपने साथियों के बीच केवल एक छात्र नेता नहीं, बल्कि एक सच्चे जननायक के रूप में जाने जाते थे, जो सबके सुख-दुख में सहभागी बनता था और निष्पक्षता, साहस एवं दूर दृष्टि के साथ नेतृत्व करता था।
छात्र जीवन के दौरान ही आपके अंतर्मन में समाज सेवा का दीप प्रज्वलित हो चुका था। राजनीति में व्यक्तिगत करियर बनाने की बजाय आपने अपने सिख समाज के उत्थान, उसकी सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर की रक्षा, तथा नई पीढ़ी के मार्गदर्शन को अपना जीवन ध्येय बनाया। गुरुद्वारों की सेवा में आपने छात्रावस्था से ही सक्रिय भूमिका निभाई, और प्रदेशभर के सिख समुदाय की समस्याओं में गहरी रुचि लेते हुए अपनी बहुमुखी प्रतिभा एवं सूझबूझ से उनके समाधान हेतु निरंतर प्रयासरत रहे।
आपकी इन निष्ठापूर्ण सेवाओं और उत्कृष्ट संगठन कौशल को देखते हुए सिखों की सर्वोच्च संस्था, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर ने आपको मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की केंद्रीय समिति के सचिव पद की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी। यह न केवल आपके नेतृत्व और कार्यक्षमता का सम्मान था, बल्कि सिख समाज के प्रति आपके समर्पण का जीवंत प्रमाण भी।
3. करियर की शुरुआत-
छात्रावस्था में ही स्वर्गीय जत्थेदार सुरेन्द्र सिंह अरोरा जी ने अपने पिताजी के पुश्तैनी व्यवसाय, लकड़ी की आढ़त में सक्रिय रूप से हाथ बंटाना प्रारम्भ कर दिया था। व्यापार की बारीकियों, सौदेबाज़ी की सूक्ष्मताओं और ग्राहकों से व्यवहार की मर्यादाओं को आपने गहन ध्यान, लगन और अनुभव से आत्मसात किया। इसी व्यावसायिक समझ और दूरदर्शिता के बल पर, अपनी अटूट मेहनत और निरंतर परिश्रम के साथ, आपने अपने पिताजी की दुकान के सामने ही ‘होटल स्वागत’ की नींव रखी। यह होटल न केवल एक वाणिज्यिक उपक्रम था, बल्कि अपने समय में एक भव्य, आकर्षक और विलोभनीय इमारत के रूप में उज्जैन के व्यापारिक परिदृश्य में विशिष्ट पहचान रखता था।
अपने बड़े भाई, स्वर्गीय सरदार महेन्द्र सिंह अरोरा जी के साथ मिलकर आपने इस प्रतिष्ठान को सफलता के शिखर तक पहुँचाया। जीवन में जहाँ सफलताओं की पुष्पमालाएँ मिलीं, वहीं कभी-कभी असफलताओं के काँटे भी चुभे, किन्तु आप कभी निराश नहीं हुए। अपनी अदम्य इच्छा शक्ति, अथक परिश्रम और संघर्षशील वृत्ति के बल पर आपने हर असफलता को सफलता में रूपांतरित किया और यह सिद्ध किया कि साहस और कर्मठता के सामने बाधाएँ टिक नहीं सकतीं।
आप न केवल एक सफल व्यवसायी थे, बल्कि उससे कहीं बढ़कर एक दृढ़ संकल्पित धर्मयोद्धा थे। आपने व्यवसाय की ऊँचाइयों को कभी भी स्वार्थ के बिंदु से नहीं देखा अपितु उसे सेवा का माध्यम बनाया। आप जिस भी क्षेत्र में कार्यरत रहे, वहाँ आपकी प्रखर प्रज्ञा, शुद्ध निष्ठा और निर्मल समर्पण की सुगंध अवश्य बिखरी।
सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन-
परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए आपने अपनी तीनों बहनों के विवाह अत्यंत उत्कृष्ट और आदर्श ढंग से संपन्न कर, समाज में एक प्रेरणादायी उदाहरण प्रस्तुत किया। साथ ही, आपने अपने विशेष प्रयासों से परिवार की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया और उसे समृद्धि के नए आयामों तक पहुँचाया, जिससे अरोरा परिवार सम्मान, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा के साथ समाज में अग्रणी स्थान पर प्रतिष्ठित हुआ।
आपको जीवनसंगिनी के रूप में अपनी सहपाठिनी अलका अरोरा (पूर्व नाम: अलका डांगे) का स्नेहिल साथ प्राप्त हुआ। आपके पवित्र परिणय का बंधन, सिख परंपराओं के अनुसार, 1 जनवरी सन 1981 को आनंद कारज की पावन विधि से संपन्न हुआ। अलका भाभी जी का जन्म उज्जैन के प्रतिष्ठित ‘डांगे’ परिवार में हुआ था, जो छोटे सराफा क्षेत्र में विख्यात था। उनके पिता, स्व. दिनकर नारायण राव डांगे, शहर के माने हुए वरिष्ठ अधिवक्ता थे। सुसंस्कृत देशस्थ ब्राह्मण परिवार में पली-बढ़ी अलका भाभी जी के लिए एक सिख परिवार में विवाह के पश्चात समायोजन का मार्ग सहज नहीं था, किंतु अपनी प्रखर मेधा, उच्च संस्कारों, और त्याग की अद्वितीय भावना से उन्होंने परिवार के सभी वरिष्ठ जनों का हृदय जीत लिया।
विवाह के उपरांत अलका भाभी जी ने न केवल गृहस्थ जीवन को कुशलता से निभाया, बल्कि तन-मन-धन से अपने जीवनसाथी, स्वर्गीय जत्थेदार सुरेन्द्र सिंह अरोरा जी, के साथ समाज के सुख-दुख में सहभागी बनीं। उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों में सदैव अग्रणी भूमिका निभाते हुए अपनी सेवाओं से सिख समाज में शीघ्र ही एक विशिष्ट स्थान अर्जित कर लिया। उनकी गहन सूझबूझ, विनम्रता और सेवाभाव ने उन्हें न केवल सिख संगत में, बल्कि नगर के समस्त समाज में आदर और सम्मान दिलाया। यह उक्ति कि “हर सफल पुरुष के पीछे एक परिपूर्ण स्त्री का योगदान होता है” निश्चित ही अलका भाभी जी ने अपने कर्म और समर्पण से इस उक्ति को पूर्णतः सत्य सिद्ध कर दिया।
आज भी आदरणीय अलका भाभी जी उज्जैन के सिख समाज में अपनी सेवाओं से ‘सिक्खी’ की धरोहर को निरंतर पुष्पित-पल्लवित कर रही हैं। आपके इस सुखद दांपत्य जीवन में ईश्वर ने तीन कन्याओं का आशीर्वाद दिया—क्रमशः शीनू, शिल्पा और स्वाति। समय के साथ तीनों ही सुपुत्रियां अपने-अपने गृहस्थ जीवन में सुखपूर्वक स्थापित हैं और वर्तमान में क्रमशः पुणे, इटली और न्यूयॉर्क (यू.एस.) में निवास कर रही हैं। इस प्रकार, यह परिवार न केवल अपने संस्कारों और सेवाभाव के लिए विख्यात है, बल्कि देश-विदेश में फैले अपने सदस्यों के माध्यम से सिख संस्कृति और मूल्यों की सुगंध भी बिखेर रहा है।
4. प्रमुख कार्य और उपलब्धियां
स्वर्गीय जत्थेदार सुरिंदर सिंह अरोरा वीर जी, यह नाम केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक युग, एक विचार, एक जाज्वल्यमान सेवा परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। आपने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ही नहीं, वरन् समस्त भारतवर्ष के सिख समुदाय के बीच सेवा, समर्पण और सहजता की जो दिव्य ज्योति प्रज्वलित की, वह हमेशा पथ-पथ पर राह दिखाती रहेगी।
आपका जीवन स्वयं में एक पूर्ण ग्रंथ था, जहाँ हर पृष्ठ पर ‘कीरत’ की गाथा अंकित है, हर अध्याय में ‘गुरुवाणी’ की महिमा है और हर पंक्ति में निष्काम कर्म की चमक स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। आपने सांसारिक जीवन के हर आयाम को साधारण रूप में जीते हुए भी, उसमें ईश्वरत्व की उपस्थिति को प्रत्यक्ष कर दिखाया।
आपको गुरुद्वारों के निर्माण एवं संवर्धन कार्य में विशेष रुचि थी, क्योंकि आपके जीवन-दर्शन में सेवा का भाव सर्वोपरि स्थान रखता था। आप प्रायः कहा करते थे कि “दुनिया में प्रत्येक मनुष्य भूखा उठ सकता है, पर भूखा कभी सोना नहीं चाहिए।” आपके अनुसार, गुरुद्वारा संसार में वह पावन स्थल है, जहाँ न केवल भूखों को अन्न का प्रसाद मिलता है, बल्कि जरूरतमंदों को विश्राम और निवास की भी सहज सुविधा उपलब्ध होती है। इसी प्रेरणा से आपके हृदय में यह संकल्प अंकुरित हुआ कि ऐसा स्थान निर्मित हो, जो न केवल सिख संगत बल्कि समस्त मानवता के लिए सेवा और सहारा बन सके।
आपके इसी पावन संकल्प ने मूर्त रूप लिया ऐतिहासिक गुरुद्वारा श्री गुरु नानक घाट, उज्जैन के भव्य निर्माण कार्य में, जिसमें आपका योगदान वास्तव में अतुलनीय और अनुकरणीय रहा। आपने अपनी दूरदृष्टि, अटूट आस्था, और अथक परिश्रम से इस पवित्र स्थल को एक भव्य, विलोभनीय, और आध्यात्मिक आभा से आलोकित इमारत के रूप में खड़ा किया। वर्तमान में यह गुरुद्वारा केवल ईंट-पत्थरों का संयोजन नहीं, बल्कि आपके तप, पुरुषार्थ और सेवा-भाव का सजीव एवं स्थायी प्रतीक है।
यह पावन धाम एक “सेवा की चिरस्मरणीय समाधि” के समान है, जो हर उस संगत को प्रेरित करता है, जो यहाँ शीश नवाने आती है। यहाँ की दीवारें, प्रांगण और लंगर-हॉल, आपके त्याग और करुणा की गाथा मौन स्वरुप में बयां करते हैं। यह गुरुद्वारा आने वाली पीढ़ियों के लिए सेवा, श्रद्धा और मानवता का अमर संदेश सदैव संप्रेषित करता रहेगा।
आपका जीवन ऐसा दीपक था, जिसकी लौ कभी डगमगाई नहीं। आपने अपनी सेवाओं के माध्यम से आम संगत को संबल प्रदान किया, मार्गदर्शन दिया, और अनेकानेक को सांसारिक भटकावों से निकालकर गुरमत की राह पर अग्रसर किया।
आपकी आत्मीयता, आपकी करुणा, और आपकी सहृदयता, यह केवल गुण नहीं थे, अपितु आपके भीतर यह समस्त गुण एक सजीव ऊर्जा की भाँति बहते रहते थे। आपकी वाणी में ऐसी स्निग्धता थी जो संतप्त हृदय को सांत्वना देती थी; आपका व्यवहार जीवन को दिशा देने वाली शीतल वाणी बन जाता था।
आपकी सादगी, आपकी शांति, आपकी सेवा और आपकी समर्पित दृष्टि, इन सभी में ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की उस वाणी की सुगंध थी, जिसने समूचे मानवता को नाम जपो, कीरत करो, वंड़ छको के मार्ग पर चलने का संदेश दिया। आपने न केवल इन गुरुबाणी मूल्यों का प्रचार – प्रसार किया अपितु उन्हें अपने जीवन में जिया, निभाया और समाज के सम्मुख जीवंत उदाहरण प्रस्तुत किया।
आपकी सेवाओं की यह पवित्र धारा अनवरत प्रवाहित रही, जैसे किसी शांत नदी की सतत ध्वनि, न मौन, न मुखर, परंतु सदा जागरूक, सदा प्रवाहमान।
“उज्जैन की धरती, जहां गुरुओं की सेवा को सौभाग्य माना जाता है, वहाँ सुरेन्द्र वीर जी के रूप में एक ऐसा रत्न जन्मा जिसने सेवा को केवल कर्म नहीं, वरन् अपना संपूर्ण जीवन बना लिया। स्वर्गीय जत्थेदार सुरेन्द्र सिंह अरोरा वीर जी ने उज्जैन की सिख संगत को आत्मा से अपनाया और परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपने करुणामय नेतृत्व से आधार प्रदान किया।
आप उज्जैन की संगत के अत्यंत लाडले, अत्यंत आत्मीय और पूरे समाज की गौरवशाली पूँजी थे। आपके सरल किंतु प्रभावशाली व्यक्तित्व में सेवा की जो अद्भुत निष्ठा थी, वह विरलों में ही देखने को मिलती है। आपने अपने पारिवारिक व्यवसाय को शून्य से प्रारंभ कर, अथक परिश्रम, धैर्य और विवेक से अनंत ऊँचाइयों पर स्थापित किया परंतु उस ऊँचाई से आपने कभी अहंकार की ओर नहीं देखा; आप सदा धरती से जुड़े रहे, संगत में रमे रहे, सेवा में जुटे रहे।
आपका संपूर्ण जीवन एक ऐसी जलती लौ था, जो स्वयं तपती रही परंतु औरों को रोशनी देती रही। आपने कर्तव्यनिष्ठा को धर्म और धर्मनिष्ठा को कर्तव्य माना और जीवन के प्रत्येक मोड़ पर गुरमत मर्यादा को सिरमौर बनाकर जिया। आपके लिए सेवा न कोई औपचारिकता थी, न कोई प्रदर्शन; वह तो आंतरिक श्रद्धा की सहज धारा थी, जो आपके प्रत्येक कर्म से प्रकट होती थी।
आपने हमेशा दूसरों के दुखों को अपने सुखों से ऊपर रखा। दूसरों के आँसुओं को पोंछने में आपको आत्म संतोष की अनुभूति होती थी, और अपने दुखों को आप सदा मौन, संयम और प्रभु भक्ति से सहते रहे। यही गुण आपको एक सच्चे गुरमुख की परिभाषा में प्रतिष्ठित करते हैं।
भाई गुरदास जी की वाणी साक्षी है-
गुरमुख पर उपकारी विरला आइआ।
गुरमुख सुख पाइ आप गवाइआ।
गुरमुख साखी शबद सिख सुनाइआ।
गुरमुख शबद विचार सच कमाइआ।
सच रिदै मुहि सच सच सुहाइआ।
गुरमुख जनम सवार जगत तराइआ ॥
(वारा भाई गुरदास जी क्रमांक 19)
यह पंक्तियाँ जैसे आपके जीवन की ही झलक हैं, आपने अपने जीवन को केवल सँवारा ही नहीं, अपितु दूसरों के जीवन में भी उजास का दीपक प्रज्वलित किया। आप न केवल धर्म के वाहक थे, बल्कि संवेदनशीलता और करुणा के गूढ़ दूत भी थे।
5. विचारधारा और व्यक्तित्व-
जत्थेदार सरदार सुरेन्द्र सिंह जी अरोरा का जन्म एक अनुशासित एवं आस्थावान गुरसिख परिवार में हुआ था। बचपन से ही आपके माता-पिता ने आपको ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पावन उपदेशों और गुरमत की मर्यादाओं पर चलने की शिक्षा दी। यही आध्यात्मिक संस्कार आपके जीवन की दिशा बने, आपने पूरी निष्ठा के साथ गुरमत के बताए हुए मार्ग पर चलकर अपनी सांसारिक यात्रा को सार्थक एवं पूर्ण किया। अपने महान कार्यों और निःस्वार्थ सेवाओं के माध्यम से आपने न केवल अपने समय में अमिट छाप छोड़ी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक उच्च आदर्श स्थापित कर दिया।
आप बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे, जहाँ एक ओर आपका गंभीर नेतृत्व रूप प्रकट होता, वहीं दूसरी ओर आपकी सहज, विनोदी और साहित्यिक रुचि भी सबके मन को मोह लेती। आप अक्सर वार्तालाप के दौरान तात्कालिक शायरी का सहारा लेते, छोटे-छोटे प्रेरक किस्से-कहानियों से बातचीत को सार्थक दिशा देते और उसे किसी ठोस निष्कर्ष तक पहुँचाने का प्रयास करते। यह आपका एक विशिष्ट और अत्यंत प्रिय स्वभाव था, जिसने आपको हर वर्ग के लोगों में लोकप्रिय बना दिया।
आपकी न्यायप्रियता अद्वितीय थी। समाज के जटिल से जटिल विवादों को न्यायालय की दहलीज़ पर पहुँचने से पहले ही आपसी समझौते और मिलजुल कर समाधान की दिशा में ले जाना आपकी विशेषता थी। आप इस कार्य में न केवल सभी पक्षों को संतुष्ट कर देते, बल्कि आपसी प्रेम और सौहार्द को भी अक्षुण्ण रखते। इस अद्वितीय गुण ने आपको पूरे भारतवर्ष में एक विशिष्ट और सम्मानित स्थान प्रदान किया।
परंपराओं के प्रति आपका सम्मान अत्यंत गहरा था। आपने सदैव हमारे समाज की पुरातन रीति-रिवाजों को मान्यता दी और उन्हें अपने जीवन में आत्मसात करने का भरसक प्रयास किया। विशेषकर, परिवार के सुख-दुःख के अवसरों पर आप इन परंपराओं का पालन करने में विशेष ध्यान देते और दूसरों को भी इनका महत्व समझाते। इस प्रकार, आप केवल परंपराओं के संरक्षक ही नहीं, बल्कि उन्हें यथार्थ जीवन में जीवित रखने वाले एक प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में भी सदैव स्मरणीय रहेंगे।
आपने अपने संपूर्ण जीवन में सेवा को सर्वोच्च स्थान दिया। आपके लिए सेवा केवल एक कर्तव्य नहीं, बल्कि जीवन का पावन धर्म और आत्मिक साधना थी। उज्जैन, जो कि प्राचीन, पारंपरिक और सनातन धर्म की आस्था का प्रमुख केंद्र है, आपकी सेवाभावना का साक्षी रहा। बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग इसी नगरी में प्रतिष्ठित है, और इस पावन भूमि की आबोहवा में सदैव एक अदृश्य आध्यात्मिक लहर बहती रहती है।
प्रत्येक वर्ष नवरात्रि महोत्सव के अवसर पर, आप अपने स्थानीय सिख सेवादारों के साथ मिलकर उज्जैन के प्रसिद्ध चामुंडा माता मंदिर में दर्शनार्थियों के जूते-चप्पल संभालने की सेवा करते। सिख जीवन शैली में इसे सर्वोच्च सेवा माना जाता है, और इस कार्य में आपका समर्पण सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक अनुकरणीय मिसाल बन चुका है। आपने अपने जीवनकाल में अनेक जरूरतमंद कन्याओं के विवाह, विशेषकर आनंद कारज में उल्लेखनीय सहयोग देकर उनके जीवन में नया उजास भर दिया।
आपका व्यक्तित्व केवल सेवा तक सीमित नहीं था, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षण में उल्लास और प्रसन्नता का भाव प्रकट करता था। आप हंसमुख स्वभाव के ऐसे पुष्प थे, जिसकी सुगंध ने अपने आस-पास के वातावरण को सदैव महकाया। मालवी शैली के ढोल की थाप पर आपका नृत्य विशेष प्रसिद्ध था। आनंद के हर अवसर पर आप सिर पर चुन्नी रखकर नृत्य करते, और आपकी यह शैली वातावरण में रोमांच भर देती थी। विशेषकर, जब आप पुराने गीत “ऐ मेरी जोहरे जबीं…” पर थिरकते, तो समूचा माहौल आपकी ओर आकर्षित हो जाता और सभी के चेहरों पर मुस्कान बिखेर देता।
आपकी हस्तलिपि अद्भुत सौंदर्य से युक्त थी, मानो प्रत्येक अक्षर किसी मुद्रण कला से उतरा हो। विशेषकर, राजभाषा हिंदी में आपके हस्ताक्षर देखने योग्य होते, जो न केवल स्पष्ट बल्कि कलात्मक भी होते थे। आपको शेरो-शायरी का गहरा शौक था, और आप स्वयं भी उम्दा शायरी करते थे। पारिवारिक महफिलों में आप अकसर अपनी पसंदीदा शेर सुनाकर सबका दिल जीत लेते। आपकी आवाज़ में उन शेरों की मिठास और आपके भावों की गहराई मिलकर ऐसा असर छोड़ती थी, जिसे सुनने वाले लंबे समय तक याद रखते।
निम्नलिखित कुछ शेर अक्सर पारिवारिक महफिलों में सुनाया करते थे-
- दुश्मनों ने जो कुछ किया, ठीक था, दोस्तों ने भी मिल-मिलकर धोखे दिए।
चलो अच्छा हुआ, एक सबक तो मिला, यह बुरे दिन तो यूं ही गुजर जाएंगे।
यह न पूछो कि किस-किस ने धोखे दिए, वरना अपनों के चेहरे उतर जाएंगे।
ग़म सलामत, कोई ग़मख़ार मिले ना मिले, हम तो जी लेंगे, तेरा प्यार मिले ना मिले।
आप शौक़ से दें ले, जो सज़ाएं चाहे, कल कोई हम-सा गुनहगार मिले ना मिले।
यह बुरे दिन तो यूँ ही गुजर जाएंगे,
यह न पूछो कि किस-किस ने धोखे दिए,
वरना अपनों के चेहरों से नक़ाब उतर जाएंगे।
ग़म सलामत, कोई ग़मख़ार मिले ना मिले,
यूँ ही जी लेंगे, तेरा प्यार मिले ना मिले।
आप शौक़ से दें सज़ा जो चाहे,
कल कोई हम-सा गुनहगार मिले ना मिले।
मुक़द्दर की बात है कि हम कोशिश भी न करें —
यह ग़लत बात है!
ज़िंदगी ज़ख्मों से भरी है, मरहम लगाना तो सीख लो,
मरना तो सबको एक दिन है, जीने की कला तो सीख लो।
तेरी आँखों के आँसू, तेरी आँख से निकाल सकते थे,
तुम तो ठहरे ही रहे झील के पानी की तरह,
दरिया बनते तो बहुत दूर तक निकल सकते थे।
घर कुछ न बन सका तो डूबा दूँगा सफ़ीना,
साहिल की क़सम, मिन्नत-ए-तूफ़ान न करूँगा।
एक दिन महक़दे में है कोई एक इलियास,
एक चुल्लू मय को देकर छीन लेती सरोजों का शबाब।
करोड़ जब तब व्रत से भी नहीं पिघला तेरा दिल,
सच है ख़ुदा — तू तो तेरा ही रहा, मेरा कभी न हुआ।
मृत्यु की तिथि, कारण और समाज की प्रतिक्रिया-
इस नश्वर संसार की सबसे अटल और सत्य धारा है, जन्म और मृत्यु! जिस प्रकार प्रभु प्रत्येक आत्मा को एक देह के रूप में इस धरा धाम पर प्रकट करते हैं, उसी प्रकार एक नियत क्षण पर वह आत्मा उसी स्रोत की ओर लौट जाती है, जहां से उसका आरंभ हुआ था।
दीर्घकाल तक हृदय रोग की कठिन और पीड़ादायक अवस्था से जूझते हुए, दिनांक 20 मई सन 2025. को जत्थेदार सरदार सुरेन्द्र सिंह जी अरोरा ने अपनी जीवन-यात्रा के अंतिम क्षण पूर्ण किए और शांत भाव से इस नश्वर संसार से विदा लेकर ब्रह्मलीन हो गए। यह विदाई केवल एक व्यक्ति का प्रस्थान नहीं थी, बल्कि एक ऐसे युग का अवसान था, जिसने अपने प्रत्येक क्षण को गुरुवाणी के सच्चे अनुकरण में जिया और उसे अपने आचरण से प्रतिष्ठित किया।
आपकी यह आस्था और सेवा-निष्ठा जीवन के अंतिम क्षण तक अडिग रही। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी आपने अपना धैर्य, प्रसन्नता और संतुलन नहीं खोया। आपके ब्रह्मलीन होने का क्षण भी उतना ही शांत, संतुलित और गरिमामय था, जितना आपका संपूर्ण जीवन।
आज, जब आप भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, आपकी स्मृतियाँ, आपके आदर्श और आपकी सेवाओं की अमिट छाप हमारे हृदयों में सदैव जीवित रहेंगी। आपने जिस प्रकार अपने जीवन को गुरुवाणी की मर्यादा और सेवा के मार्ग पर चलकर अमूल्य बनाया, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का शाश्वत दीप बनकर सदा प्रज्वलित रहेगा।
स्वर्गीय जत्थेदार सुरिंदर सिंह अरोरा वीर जी, यह नाम केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक युग, एक विचार, एक जाज्वल्यमान सेवा परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। आपने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ही नहीं, वरन समस्त भारतवर्ष के सिख समुदाय के बीच सेवा, समर्पण और सहजता की जो दिव्य ज्योति प्रज्वलित की, वह हमेशा पथ-पथ पर राह दिखाती रहेगी।
आपका इस प्रकार से चला जाना निःसंदेह उज्जैन के सिख समाज के लिए एक गंभीर क्षति, एक “क्षितिज का अस्तांचल” है। यह एक ऐसा क्षण था जब संगत मौन थी, किंतु उनकी आँखें बोल रही थी, आभार, प्रेम और असीम शोक से भरी हुई। इस मौन में भी आपकी स्मृतियाँ गूंज रही हैं, आपकी सेवाएं शब्द बनकर हवा में तैर रही हैं, और आपकी कर्मठता आने वाली पीढ़ियों के लिए पथ प्रदर्शक बन चुकी है।
जब हम आपकी स्मृतियों के मंदिर के समक्ष खड़े हैं, तो मन कहता है:
सत्कार योग्य वीर थे, सेवा के सागर,
कर्मभूमि पर चलने वाले सच्चे पथ गामी।
जत्थेदार हमारे सुरिंदर वीर जी का जीवन,
“संगत के लिए समर्पण का अडिग गान अग्रगामी।
गुरु नानक घाट की भव्यता में आपकी दृष्टि समाई,
हर ईंट में आपके कर-कमलों की श्रमगाथा समाई।
जहाँ भटके मनों को मिली गुरमत की राह,
वहीं समर्पण की इस सेवा ने हर दुख को दी पनाह।
आपने दिए समाज को प्रखर विवेक के दीप,
उत्साह और सम्मान के जलाए अनेक स्नेह दीप।
गुरुवाणी के मूल्य बनें जिनके जीवन की मशाल,
आपने बँधी हर हृदय में भक्ति की विशाल माल।
वाहिगुरु की मेहर रही थी, सदा आपके सिर पर,
चढ़दी कला से सजा था, आपका हर सवेरा।
आपकी सेवाओं से रोशन है समाज का माथा,
हम नतमस्तक हैं, आपकी सेवा है युगों तक की अमर कथा।
वाहिगुरु जी का खालसा।
वाहिगुरु जी की फतेह॥
scan photo