श्रृंखला क्रमांक 1 : समाप्ती की कग़ार पर, श्री आनंदपुर साहिब के असली महल-मुनारे

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ੴ सतिगुरु प्रसादि ॥

संगत जी, वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!

गुरु-प्यारी साध-संगत जी,
“सफर-ए-पातशाही नौंवी” की इस पहली श्रृंखला में हम उस पावन धरती की ओर बढ़ते हैं, जहाँ से श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की शहीदी मार्ग यात्रा का प्रारंभ हुआ था, वह मार्ग जो केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि धर्म, त्याग और मानवीय गरिमा का अनंत संदेश लेकर इतिहास में अंकित हुआ।

श्री आनंदपुर साहिब की स्थापना की भूमिका

श्री किरतपुर साहिब से लगभग नौ किलोमीटर दूर स्थित एक क्षेत्र तीन गाँवों- माखोवाल, सहोटा और लोदीपुर से मिलकर बना था। उस समय यह स्थान सुनसान और निर्जन माना जाता था। यहाँ एक ऊँचा टीला था, जिसे “माखोवालों की थेह” कहा जाता था। भय और अंधविश्वास के कारण लोग उस ओर जाने से भी कतराते थे।

इसी समय श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी किरतपुर में निवास कर रहे थे और भविष्य को दृष्टि में रखते हुए एक ऐसे स्थल की खोज में थे जहाँ एक नए नगर की नींव रखी जा सके, एक ऐसा नगर जो आने वाली पीढ़ियों के लिए आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्र बने।

रानी चंपा का समर्पण

इसी कालखंड में कहलूर राज्य के राजा ताराचंद, जो उन बावन राजाओं में से एक थे जिन्हें कभी ग्वालियर के किले में कैद किया गया था, का पुत्र राजा दीपचंद शासन कर रहा था। दीपचंद के देहावसान के बाद, उसकी रानी माता चंपा ने श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी को संदेश भेजा कि वह गुरु-घर की सेवक परिवारों में से हैं और राजा के अंतिम संस्कार में उनकी उपस्थिति आवश्यक है।

गुरु साहिब स्वयं अपने सेवक-सिखों सहित कहलूर राज्य पहुँचे और वहाँ अपने कर-कमलों से अंतिम संस्कार की विधि संपन्न की। रानी चंपा को ज्ञात हुआ कि गुरु साहिब एक नए नगर के लिए भूमि की खोज में हैं। उन्होंने विनम्र निवेदन किया कि- “महाराज, आप जिस स्थान को योग्य समझें, उसे मेरे द्वारा सेवा-स्वरूप स्वीकार करें।”

परंतु दूरदर्शी गुरु साहिब जी ने उत्तर दिया- “रानी जी, समय की गति अज्ञेय होती है। आज आप हमारी सेविका हैं, पर आने वाली पीढ़ी का विश्वास नहीं। अतः भूमि सेवा-भाव से नहीं, उचित मूल्य देकर खरीदी जाएगी, ताकि यह स्थान सदैव ‘गुरु-घर’ के अधिकार में रहे।”

भूमि-क्रय और नींव-स्थापना

इतिहास में वर्णन मिलता है कि गुरु साहिब जी ने आपसी सद्भाव और प्रेमपूर्ण संवाद से यह भूमि ₹500 की राशि देकर खरीदी, जिसमें माखोवाल का टीला, सहोटा और लोदीपुर तीनों ग्राम सम्मिलित थे। उस समय भूमि के रजिस्ट्री-समान दस्तावेज़ “जरी पट्टे” कहलाते थे। भूमि की देखभाल और नगर-निर्माण की सेवा भाई झंडा जी को सौंपी गई।

और फिर, 19 जून 1665 ईस्वी के दिन, नींव-पत्थर रखने के लिए बाबा बुढ़ा जी के वंशज भाई गुरदित्ता जी को विशेष आमंत्रण भेजा गया। बाबा बुढ़ा जी का गुरु-घर में असाधारण सम्मान था, वह श्री गुरु नानक देव साहिब जी के समय से लेकर गुरु घर की सेवाओं से जुड़े रहे थे। उनके वंशजों से ही परंपरागत रूप से गुरु गद्दी के तिलक लगवाए जाते थे।

उस पावन दिवस पर जब नींव-पत्थर (मोहरी गड्ड) रखा गया, तब गुरु साहिब जी ने उस स्थान को अपनी माता माता नानकी जी के नाम पर “चक नानकी” नाम दिया, यही स्थान आगे चलकर श्री आनंदपुर साहिब जी के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

आज की पीड़ा : विलुप्त होते असली महल और मुनारे

परंतु दुखद तथ्य यह है कि समय की मार और आधुनिक निर्माण की होड़ में श्री आनंदपुर साहिब के वे असली महल और मुनारे– जिनकी दीवारों में इतिहास की आत्मा साँस लेती है, आज विलुप्ति के कगार पर हैं।

यह श्रृंखला उन स्मृतियों को जीवित करने का प्रयास है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें कि जहाँ से शहीदी मार्ग प्रारंभ हुआ था, वह केवल एक नगर नहीं, बल्कि धर्म-नीति, आत्मबल और मानवता का जीवंत प्रतीक था।

गुरु साहिब द्वारा रचित नगर का नक्शा

इतिहास साक्षी है कि धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने स्वयं इस नगर का नक्शा तैयार किया था। “चक नानकी” नामक इस नव-बसाए नगर में सुंदर इमारतों का निर्माण आरंभ हुआ। यहाँ सात विशाल प्रवेश-द्वार (दरवाजे) बनाए गए थे, जो सुरक्षा और सौंदर्य दोनों दृष्टियों से अनुपम थे। दुर्भाग्यवश आज, उन सात में से केवल एक दरवाजा ही शेष बचा है- वह भी चोई बाजार के मध्य जर्जर अवस्था में खड़ा है, मानो अपने स्वर्णकाल की स्मृतियों को आँसुओं से भिगो रहा हो।

प्राचीन द्वार की शौर्यगाथा

गुरु साहिब द्वारा बसाया गया चोई बाजार कभी व्यापार और साधना का संगम था। इस दरवाजे पर चढ़ते ही ऊपर से थ्री-पीट पैरा पॉइंट स्पष्ट दिखाई देता है- इसके दोनों ओर छोटे-छोटे सुरक्षा-कक्ष निर्मित थे, जहाँ से सिख सैनिक नगर की रक्षा करते और हमलावरों को रोकते। यही वह स्थान था, जहाँ से रक्षा हेतु गोलियाँ दागी जातीं, और नगर की सीमाएँ सुरक्षित रहतीं। परंतु विडंबना है कि आज, जब हम सन् 2025 ईस्वी में श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के 350वें शहीदी वर्ष का स्मरण कर रहे हैं, उसी नगर का यह अमूल्य द्वार खंडहर का रूप धारण कर चुका है। यदि समय रहते सरकारों और संगत ने इस धरोहर की सेवा-संभाल न की, तो यह भी ढह जाएगा और इतिहास का यह जीवंत साक्षी केवल तस्वीरों में शेष रह जाएगा।

बाबा सूरजमल जी की हवेली- एक जीवित स्मृति

गुरु साहिब जी ने अपने बड़े भ्राता बाबा सूरजमल जी के लिए इस नगर में एक भव्य हवेली का निर्माण करवाया था। वीडियो क्लिप में दिखती वही बाबा सूरजमल जी की हवेली, आज भी अपेक्षाकृत उत्तम स्थिति में है। इसकी ऊँची छत से सम्पूर्ण श्री आनंदपुर साहिब नगर के विहंगम दर्शन संभव हैं। इसके मुख्य द्वार पर की गई मीनाकारी आज भी अपनी कलात्मक शोभा में अडिग है- मानो वह पत्थरों के भीतर भी अपनी विरासत की शुचिता को सँजोए हुए है।

खंडहर बनती सोढ़ियों की हवेली

 इस हवेली के पीछे स्थित एक अन्य हवेली अब टूटे हुए पत्थरों में अपने गौरव की गाथा कह रही है। यह है कुराड़ी वाले सोढ़ियों की हवेली, वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण, परंतु अब जर्जर और उपेक्षित

एक स्थानीय निवासी ने बताया कि इस हवेली के स्वामी दो सगे भाई थे। उनमें से एक की हवेली तो काल के गाल में समा चुकी है; दूसरी, जो आज भी किसी तरह खड़ी है, उसी की दीवारें हमें उस युग की स्थापत्य-कला का मौन प्रमाण देती हैं। इतिहास के अनुसार, श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने ही इस सोढ़ी परिवार को कुराड़ी नगर से लाकर यहाँ बसाया था। यही कारण है कि इस क्षेत्र को आज भी “मोहल्ला कुराड़ी वाला” कहा जाता है। इनके वंश में केवल दो कन्याएँ थीं; पुरुष वंश आगे नहीं बढ़ा, और परिणामस्वरूप यह हवेली भी बिना देखभाल के खंडहर में परिवर्तित हो गई।

विरासत का मौन प्रश्न

आज जब हम गुरु साहिब की शहादत के 350 वर्ष पूर्ण होने पर उनके आदर्शों का स्मरण करते हैं,
तो यह प्रश्न गूँजता है- क्या हमने उनकी विरासत को सँभालने का अपना धर्म निभाया? वे महल, वे मुनारे, वे हवेलियाँ- जहाँ से एक नए युग की शुरुआत हुई थी- क्या अब केवल अतीत की परछाइयों में खो जाएँगे? यह श्रृंखला उस मौन इतिहास को आवाज़ देने का प्रयास कर रही है- ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें कि श्री आनंदपुर साहिब केवल एक नगर नहीं, बल्कि गुरु की दृष्टि, तप, बलिदान और संस्कृति का शाश्वत प्रतीक है।

श्री आनंदपुर साहिब का प्रत्येक कण, प्रत्येक दीवार अपने भीतर इतिहास की गूँज समेटे हुए है। यहाँ आज भी एक ऐसा पुरातन दरवाजा मौजूद है, जो मौन होकर भी शौर्य, शहादत और आस्था की असंख्य कहानियाँ कहता है।

जहाँ गुरु साहिब की ज्योति अब भी प्रज्वलित है- इस स्थान पर, जहाँ श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का निवास हुआ करता था, आज भी एक प्राचीन दरवाजे पर अखंड ज्योत प्रज्वलित है। इतिहासकार डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ बताते हैं कि- “संगत जी, इसी मार्ग से श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का शीश श्री आनंदपुर साहिब वापस आया था।” आज केवल यही एक दरवाजा बचा है, जो उस कालखंड का जीवित साक्षी है। दुर्भाग्यवश अधिकांश संगत जब श्री आनंदपुर साहिब आती है, तो किला आनंदगढ़ साहिब और केशगढ़ साहिब के दर्शन कर लौट जाती है, बिना यह जाने कि इस पवित्र नगर में आज भी वह मूल दरवाजा मौजूद है, जिस मार्ग से धन्य गुरु तेग बहादुर साहिब जी का शीश वापसी में इस धरती पर पहुँचा था।

बुज़ुर्ग माता जी की स्मृतियाँ-

टीम खोज-विचार के इस शहीदी पथ पर, हमारी मुलाकात नगर की एक 90 वर्षीय बुज़ुर्ग माता जी से हुई, जिन्होंने अपने बचपन का श्री आनंदपुर साहिब स्वयं देखा था। वे बताने लगीं “बेटा, उस समय की हवेलियाँ छोटी ईंटों से बनी होती थीं। अटारी वाले सोढ़ियों की हवेली, पुरातन भौंरा साहिब, सब छोटी ईंटों से निर्मित थे। हमारा शहर सोढ़ी और बेदी वंश के कारण प्रसिद्ध था। गुरु साहिब के निवास-स्थलों पर बने गुरुद्वारे भी उन्हीं छोटी ईंटों से बने थे। उनके शब्दों से यह स्पष्ट हुआ कि चक नानकी, जो बाद में श्री आनंदपुर साहिब कहलाया, वास्तव में कलात्मक और स्थापत्य दृष्टि से अत्यंत समृद्ध नगर था। वर्तमान में जिस ढ्योड़ी के दर्शन होते हैं, वह नवीन निर्माण है; परंतु उसके नीचे बसी मिट्टी में अब भी गुरु तेग बहादुर साहिब जी के चरणों की परछाईं विद्यमान है।

गुरु के निवास की स्मृतियाँ और चक्र नानकी का निर्माण

इतिहास के पन्नों पर अंकित है कि प्रसिद्ध साइकिल यात्री और लेखक धन्ना सिंह पटियाली द्वारा खींचे गए प्राचीन चित्र आज भी प्रमाण के रूप में उपलब्ध हैं। उनसे ज्ञात होता है कि यह स्थान अत्यंत छोटा पर पवित्र महल था, जहाँ गुरु साहिब जी अपने परिवार सहित निवास करते थे, और माता नानकी जी भी यहीं विराजमान रहती थीं। यही वह भूमि थी जहाँ श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने तीन माह तक निवास कर “चक्र नानकी नगर” के निर्माण कार्य में अपना कर-कमलों से योगदान दिया। इसी स्थान से चलकर गुरु साहिब जी ने पंजाब के मालवा प्रांत की यात्रा प्रारंभ की, जिस यात्रा में उन्होंने धर्म, एकता और मानवता का अमिट संदेश दिया।

धर्म संकट की आहट

सन् 1666 ईस्वी में जब धन्य-धन्य श्री गुरु गोविंद सिंह जी का प्रकाश पटना साहिब में हुआ, तब गुरु तेग बहादुर साहिब जी वहीं से पुनः इस स्थान पर पधारे। आगे सन् 1674 ईस्वी में औरंगज़ेब ने अपने अत्याचारों की पराकाष्ठा में देश के हिंदुओं पर जज़िया कर थोप दिया और धर्म-परिवर्तन की पहली योजना कश्मीर से आरंभ करने का निर्णय लिया। परंतु प्रश्न यह उठता है- क्यों चुना गया कश्मीर?
क्या कारण था कि औरंगज़ेब ने अपने क्रूर अभियान की शुरुआत वहीं से की?

आगामी श्रृंखला का संकेत

संगत जी, जुड़े रहना सफर-ए-पातशाही के शहीदी मार्ग की अगली श्रृंखला से- जहाँ आप देखेंगे कि कैसे कश्मीरी पंडितों का समूह अपने धर्म की रक्षा हेतु श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की शरण में पहुँचा? और कैसे इतिहास ने उस क्षण को “शहादत का स्वर्ण अध्याय” बना दिया।

आपका अपना सेवक, इतिहासकार, डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’
वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!




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