श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी का संक्षिप्त परिचय—
दलभंजन गुरु सूरमा वड जोधा बहु पर उपकारी ॥
श्री गुरु नानक देव साहिब जी की ही ज्योति, सिख धर्म को ‘मीरी-पीरी’ की दात बक्शीश करने वाले, दाता बंदी छोड़ सिख धर्म के छठे (षष्टम गुरु) गुरु, श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी परोपकार की मूर्ति, युगांतकारी, क्रांतिकारी, महाबली योद्धा और ‘संत-सिपाही’ के रूप में महान गुरु हुए हैं। आप का प्रकाश 9 जून सन् 1595 ई. में गुरु की वडाली जिला अमृतसर, सुबा पंजाब की पवित्र धरती पर, माता गंगा जी की कोख से हुआ था। आप को विरासत में ही धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कार अपने पिता पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी से प्राप्त हुए थे। आप की देहबोली अत्यंत सुंदर थी और शारीरिक यष्टि से आप हष्ट-पुष्ट और ऊंचे-लंबे थे। पारिवारिक कलह के कारण आप को बचपन में जान से मारने का 3 बार षड़यंत्र किया गया था परंतु उस अकाल पूरख (प्रभु-परमेश्वर) की कृपा से आप सुरक्षित रहे थे पश्चात सुरक्षा के दृष्टिकोण से श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी ने बाल हरिगोविंदजी और माता गंगा जी को अमृतसर में भविष्य के निवास के लिए स्वयं के सानिध्य में ही रखा था। आप की शारीरिक और आध्यात्मिक शिक्षाएँ भाई गुरदास जी एवं बाबा बुड्ढा जी के मार्गदर्शन में संपन्न हुई थी, विशेष रूप से आप को अस्त्र-शस्त्र विद्या, घुड़सवारी, कुश्ती, तैराकी और गुरबाणी का प्रशिक्षण देकर इन विद्याओं में निपुण किया गया था। आप केवल 10 वर्ष की आयु में ही कई विद्याओं में निपुणता प्राप्त कर चुके थे। गुरु के महल (सु पत्नियां) के रुप में आप को बीबी दामोदरी जी, बीबी नानकी जी और बीबी महादेवी जी का सानिध्य प्राप्त हुआ था। आप को 5 पुत्र रत्न बाबा गुरुदित्ता जी, बाबा सुरजमल जी, बाबा अनिराय जी, बाबा अटल जी और श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की प्राप्ति हुई थी, आप की एक पुत्री बीबी वीरो जी भी थी।
उस समय में जब श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी को वक्त की हुकूमत के आदेशानुसार गिरफ्तार करके लाहौर ले जाया जा रहा था तो समय की नजाकत और बादशाह जहाँगीर के षड्यंत्र को संज्ञान में लेते हुए, आप को आभास हो चुका था कि लाहौर से आप की पुनः वापसी संभव नहीं है, समय की प्रतिकूल परिस्थितियों को देखते हुये, आप ने अपने सुपुत्र श्री गुरु हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर षष्टम गुरु के रूप में 25 मई सन् 1606 ई. को मनोनीत कर, गुरुगद्दी पर बाबा बुड्ढा जी के कर-कमलों से सुशोभित किया था। उस समय में गुरु पातशाह की आयु 11 वर्ष की थी, उस समय में प्रचलित मर्यादा के अनुसार गुरु पातशाह जी को पीरी (गुरता अर्थात आध्यात्मिक का प्रतीक) की तलवार सुशोभित की गई और उसी समय विद्वान बाबा बुड्ढा जी के द्वारा आप को मीरी अर्थात बादशाह की तलवार भी पहनाई गई, “जहाँ पीरी धर्म ज्ञान और अध्यात्म का प्रतीक थी, वहीं मीरी शक्ति, सामर्थ्य और राजसत्ता की प्रतीक थी”। उस समय की प्रतिकूल परिस्थितियों के अनुसार यह संज्ञान लिया गया कि मीरी के बिना पीरी की रक्षा संभव नहीं है, शक्ति के बिना भक्ति कायरता है एवं न्याय और सत्य की रक्षा के लिए शक्ति को भी धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया। सतगुरु पातशाह जी ‘संत-सिपाही’ का रूप कहलाये, आप को ‘मीरी-पीरी के मालिक के रूप में ख्याति प्राप्त हुई अर्थात ‘मीरी-पीरी’ का सिद्धांत ‘भक्ति-शक्ति, शास्त्र-शस्त्र, धर्म-राजनीति, देग-तेग, और राजयोग के मिले-जुले स्वरूप की एक समन्वयक नीति पर आधारित है। आप के द्वारा सत्य और सत्ता की एकत्र शमा को रोशन किया था क्योंकि गुरु पातशाह जी जानते थे कि सत्ता के बिना सच का वजूद नहीं है और सच के बिना सत्ता बेहूदी है, यदि सच और धर्म को सत्ता से दूर कर दे तो सत्ता जुल्म के अखाड़े में परिवर्तित हो जाती है, यदि राज सत्ता नही तो धर्म नहीं चलेगा और यदि धर्म नहीं तो मनुष्य शैतान में परिवर्तित होकर हैवान बन जायेगा। ‘मीरी-पीरी’ के इस सिद्धांत को धारण करने के पश्चात गुरु पातशाह जी ने संगत को हुक्मनामा जारी किया कि आप गुरु दरबार में धन के स्थान पर अस्त्र-शस्त्र, युद्ध सामग्री और घोड़े इत्यादि भेंट किया करें। आप के मार्गदर्शन में 52 प्रशिक्षित विशेषज्ञ योद्धाओं की नियुक्ति की गई और आप के द्वारा सिख योद्धाओं की एक सशक्त सेना का निर्माण कर, युवाओं में एक नई ऊर्जा, जोश और क्रांति की शमा का निर्माण किया गया था। जहाँ गुरु दरबार में शबद्-कीर्तन हुआ करते थे, वहीं अब गुरु दरबार में वीर रस पर आधारित वारों का गायन कर, शस्त्र संचालन, घुड़सवारी और मल युद्ध का भी अभ्यास किया जाता था। इससे उस समय में युवाओं में स्वाभिमान, आत्मविश्वास और देश-धर्म की रक्षा हेतु मर मिटने का जज्बा तैयार हुआ था।
श्री गुरु हरिगोविंदजी साहिब जी सन् 1606 ईस्वी से सन् 1644 ईस्वी तक गुरु गद्दी पर विराजमान रहे थे, आप ने अपने 38 वर्षों के कार्यकाल में ‘गुरु पंथ खालसा’ की महान सेवा करते हुए सुरक्षा और सुदृढ़ता के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम दिया था। मुगल सम्राटों के अत्याचार, अनीतियों और युद्धों के प्रतिशोध का सफलतापूर्वक मुकाबला करने हेतु आप ने सिख धर्म के प्रचार-प्रसार और विकास के लिये निरंतर सक्रियता से कार्य किया था। आप की बख्शीश से कई प्रचार केंद्रों को स्थापित किया गया था, आप द्वारा प्रदान ‘मीरी-पीरी’ के सिद्धांत अनुसार दरबार साहिब श्री अमृतसर जी के समक्ष सन् 1609 ई. में ‘श्री अकाल तख्त साहिब जी’ की स्थापना की गई थी। आस्था और श्रद्धा के महान केंद्र दरबार साहिब जी के समक्ष (सामने) आप ने भाई गुरदास जी और बाबा बुड्ढा जी के सहयोग से शक्ति और न्याय के महान केंद्र ‘श्री अकाल तख्त साहिब जी’ का निर्माण स्वयं के कर-कमलों से किया था। इसी स्थान पर आप ने विराजमान होकर सिख धर्म की धार्मिक और राजनीतिक समस्याओं का निवारण करना एवं संगत के निजी विवादों का निवारण करना, साथ ही समस्त शिकायतों का निवारण करने का महत्वपूर्ण कार्य इसी तख्त साहिब से आरंभ किया था। वर्तमान समय में भी ‘बाबा बुड्ढा जी एवं ‘शेरे-ए-पंजाब’ महाराजा रणजीत सिंह जी की श्री साहिब (कृपाण) ‘श्री अकाल तख्त साहिब जी में सुशोभित है। आप ने ‘श्री अकाल तख्त साहिब जी’ को सिखों की सेवा और त्याग का प्रतीक बताया था। आप के ही कार्यकाल में ढाढी जत्थों की परंपरा का प्रारंभ हुआ था, (गुरुबाणी और सिख इतिहास को लोकगीत और लोक संगीत के माध्यम से गाकर प्रस्तुत करने की परंपरागत विधि) इन जत्थों के द्वारा वर्तमान समय में भी वीर रस की वारों का गायन कर, श्रद्धालुओं में एक नवचेतना और जोश का निर्माण किया जाता है। आप ने सिख योद्धाओं को शिकार करने के लिए भी प्रेरित किया था। आप ने अमृतसर के समीप लोह गढ़ के किले का निर्माण करवाया और इस किले में अस्त्र-शस्त्र के भंडारण की व्यवस्था कर, सैनिकों के उत्तम प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई थी। आप ने सुरक्षा की दृष्टि से बाबा गुरुदित्ता जी के सहयोग से शिवालिक की पहाड़ियों की तलहटी में किरतपुर नामक शहर की स्थापना की और इस शहर को सिख गतिविधियों का प्रमुख केंद्र निरूपित किया था। आप ने विशेष रूप से व्यापार और व्यवसाय को प्रोत्साहित कर सिखों को आर्थिक रूप से संपन्न भी किया था, आप ने विशेष रूप से गुरु परिवार के असंतुष्ट सदस्यों से संपर्क कर उनकी नाराजगी को दूर कर उन्हें ‘गुरु पंथ खालसा’ की मुख्यधारा में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। आप ने हिंदू और मुस्लिम धर्म के सभी धार्मिक स्थलों का बराबरी से निर्माण कर सामाजिक सद्भावना की प्रेरणा अपनी सिखों को प्रदान की थी। आप ने धर्म प्रचार हेतु सन् 1612 ई. से लेकर सन् 1628 ई. तक लगातार यात्राएँ कर संगत को ‘मीरी-पीरी’ के सिद्धांत की शिक्षाएँ प्रदान की थी। आप ने उस समय में हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल इत्यादि महत्वपूर्ण स्थानों पर क्षेत्रीय प्रचारकों को नियुक्त किया एवं कई व्यापारियों को भी धर्म प्रचार के कार्य के लिए प्रेरित किया था।
बीबी कौलां नामक मुस्लिम महिला जो कि साई मियां मीर की शिष्या थी, गुरु पातशाह जी के संपर्क में आकर बीबी कौलां जी उनसे अत्यंत प्रभावित हुई तो इस बीबी कौलां के पिता जी जो कि लाहौर शहर के काजी थे उन्होंने अपनी ही पुत्री के लिये सजा-ए-मौत का फतवा जारी कर दिया था, ऐसी विकट परिस्थितियों में गुरु पातशाह जी ने बीबी कौलां को अपनी शरण में लिया और गुरु पातशाह जी ने उनकी निष्काम सेवाओं से प्रभावित होकर कौल सर नामक सरोवर एवं उनकी आध्यात्मिक साधना हेतु एक भव्य भवन का निर्माण भी करवाया था। गुरु पातशाह जी ने स्त्रियों की दुर्दशा को सुधारने हेतु विशेष प्रयत्न किये, साथ ही दहेज प्रथा के आप सख्त विरोधी थे। आप ने स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा के लिए भी विशेष प्रयत्न किये थे।
गुरु पातशाह जी जब धर्म प्रचार-प्रसार हेतु श्रीनगर (गढ़वाल) में थे तो आपकी मुलाकात महाराष्ट्र के शूरवीर योद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज के श्री गुरु समर्थ रामदास जी से हुई, तब श्री गुरु रामदास जी ने उन्हें कलगी और कृपाण धारण कर, घोड़े पर सवारी करते हुए देखा तो अचंभित होकर प्रश्न किया कि, आप तो श्री गुरु नानक देव की गद्दी पर विराजमान हैं उन्होंने तो मोह-माया का त्याग किया था परंतु आप तो शस्त्र धारी और अपनी सेना के साथ घोड़े पर भ्रमण कर रहे हैं! आप कैसे साधु हैं? उस समय में गुरु पातशाह जी ने उत्तर दिया था कि बातां फकीरी जाहिर अमीरी! यह शस्त्र गरीब और मजलूम की रक्षा के लिए और अत्याचारियों के विनाश के लिए हैं। जब गुरु पातशाह जी अपने प्रचार दौरे के तहत गुजरात पहुँचे तो आप का शाही रूप देखकर पीर शाहदौला ने प्रश्न किया! हिंदू क्या और पीरी क्या? औरत क्या और फकीरी क्या? दौलत क्या और त्याग क्या? पुत्र क्या और वैराग्य क्या? उस समय में गुरु पातशाह जी ने उन्हें उत्तर दिया, औरत ईमान है! पुत्र निशान है! दौलत गुजरान है! फकीर ना हिंदू है ना मुसलमान है!
पीर शाहदौला जी गुरु पातशाह जी के इस उत्तर से संतुष्ट हुये थे।
गुरु पातशाह जी चमत्कार प्रदर्शनों के प्रबल विरोधी थे, चमत्कारी शक्तियों का दुरुपयोग करना, आप प्रभु-परमात्मा के कार्य में हस्तक्षेप मानते थे। गुरु पातशाह जी के पुत्र बाबा अटल राय ने चमत्कार कर सर्पदंश से मृत अपने बालसखा मोहन को जीवित किया तो गुरु पातशाह जी को इससे अत्यंत दुखी हुए थे और बाबा अटल जी ने अपराध बोध से ग्रसित होकर जल समाधि लेकर अपने प्राण त्याग दिए थे। ठीक उसी प्रकार जब बाबा गुरदित्ता जी ने चमत्कार कर मृत गाय को पुनर्जीवित किया तो गुरु पातशाह जी ने दुखी होकर उसे विधि के विधान के प्रतिकूल माना, इससे दुखी होकर अपराध बोध में आकर बाबा गुरदित्ता जी ने भी अपने प्राण त्याग कर प्रायश्चित किया था।
गुरु पातशाह जी के यश, प्रतिष्ठा, परोपकार और उपदेशों के बहुपक्षीय असर के कारण उस समय का बादशाह जहाँगीर चिंतित था, पृथ्वी चँद, मेहरबान और चंदू की प्रारंभ से ही गुरु पातशाह जी के प्रति ईर्ष्या थी, इन सभी का साथ लाहौर के सूबेदार मुर्तजा खान ने दिया और समय की हुकूमत को इन सभी लोगों की शिकायतों के कारण गुरु पातशाह जी को गिरफ्तार कर लिया और ग्वालियर के किले में कैद कर नजर बंद कर दिया था। जिससे कि पूरे देश में आम लोग आक्रोशित हो गये और खास करके सूबा पंजाब से हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं ने ग्वालियर के किले को घेर लिया एवं किले के बाहर लगातार गुरबाणी का कीर्तन करने लगे। इधर गुरु पातशाह जी ने मुगल शासन का भोजन अस्वीकार कर दिया, वह केवल श्रद्धालुओं का भोजन ही ग्रहण करते थे। आम जनता के आक्रोश को देखते हुए एवं संगत के असीम प्रेम व श्रद्धा को देखते हुए बादशाह जहाँगीर अचंभित था। ऐसे समय में सूफी पीर मियां मीर ने सुझाव दिया कि आप गुरु पातशाह जी को नजरबंदी से तुरंत रिहा कर देवें और बादशाह जहाँगीर ने गुरु पातशाह जी की रिहाई के तुरंत हुक्म जारी कर दिए थे।
ग्वालियर के किले में गुरु पातशाह जी को नजरबंद हुए 2 वर्षों से अधिक का समय हो चुका था और इस किले में देश के विभिन्न भागों से 52 राजाओं को गिरफ्तार करके करके रखा गया था। गुरु पातशाह जी ने इन 52 राजाओं से अत्यंत प्रगाढ़ संबंध स्थापित हो गये थे। गुरु पातशाह जी ने पीर मियां मीर जी के द्वारा बादशाह जहाँगीर को इन 52 राजाओं को भी कैद से मुक्त करने का प्रस्ताव रखा। बादशाह जहाँगीर गुरु पातशाह जी की महानता और सूफी संतों वाली वृत्ति से अत्यंत प्रभावित हुआ और उन्होंने शर्त रखी कि जो भी राजा गुरु पातशाह जी के दामन को पकड़कर बाहर आएगा उसे तत्काल प्रभाव से मुक्त कर दिया जाएगा। इस शर्त पर दयालु गुरु पातशाह जी ने युक्ति लगाकर एक विशेष 52 कलियों वाला चौगा बनवाया और प्रत्येक राजा इन 52 कलियों वाले चौगे के दामन को थाम कर गुरु पातशाह जी के साथ किले की कैद से सुरक्षित बाहर आ गए थे। यह देश के 52 राजा, क्रांती की शमा गुरु पातशाह जी के सदैव ऋणी रहें। इन 52 बंदियों को कैद के बंधन से मुक्त करवाने के फलस्वरूप गुरु पातशाह जी ‘दाता बंदी छोड़’ के रूप में प्रतिष्ठित हुये। इस महान ऐतिहासिक घटना की स्मृति में वर्तमान समय में ग्वालियर के किले में भव्य गुरुद्वारा ‘दाता बंदी छोड़’ जी सुशोभित है। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार ऐसा भी माना जाता है कि गुरु पातशाह जी की रिहाई का सुझाव जहाँगीर को उसकी पत्नी नूरजहाँ के द्वारा भी दिया गया था। इस घटना के पश्चात गुरु घर के मुगल साम्राज्य के साथ संबंध ठीक-ठाक रहे थे।
शहंशाह शाहजहाँ की मृत्यु के पश्चात गुरु घर विरोधियों के षड्यंत्र पुन: जोर पकड़ने लगे और बाज पकड़ना एवं घोड़े पकड़ने जैसी साधारण बातों को तूल दे कर, इस विवाद की परिणीति युद्धों में परिवर्तित हो गई। सत्ता के नशे में मदमस्त मुगल सेना ने गुरु पातशाह जी पर 4 बार आक्रमण किये, पहला युद्ध सन् 1628 ई. में अमृतसर साहिब जी में हुआ, दूसरा युद्ध सन् 1630 ई. में हरि गोविंदपुर शहर में हुआ और तीसरा युद्ध सन् 1631 ई. में मेहराज नामक स्थान पर हुआ था साथ ही चौथा एवं अंतिम युद्ध सन् 1635 ई. में करतारपुर साहिब जी में हुआ था। इन युद्धों में गुरु पातशाह जी ने लगातार जीत हासिल की थी कारण यह युद्ध नहीं अपितु धर्मयुद्ध थे, इन चारों युद्धों में गुरु पातशाह जी के सिखों ने अद्भुत युद्ध कौशल का परिचय देते हुए अपने स्वाभिमान, आत्मविश्वास, आत्म गौरव और देश भक्ति की भावनाओं का परिचय दिया था। आप के समकालीन शासक शहेनशहा जहाँगीर (सन् 1605 ई. से सन् 1626 ई.) तक एवं शहेनशाहा शाहजांह (सन् 1627 ई. से सन् 1658 ईस्वी,) तक थे।
श्री गुरु जी की स्तुति में गुरबाणी की किल्ली/चाबी कहलाने वाले भाई गुरदास जी नें अपनी बाणी में अंकित किया–
पंजि पिआले पंज पीर छठमु पीरु बैठा गुरु भारी।
अरजन काइआ पलटिकै मूरति हरिििगोविंद सवारी॥
चली पीड़ी सोढीआ रूपु दिखावणि वारो वारी।
दलभंजन गुरु सूरमा वड जोधा बहु परउपकारी।
पुछनि सिख अरदास करि छिअ महलाँ ताकि दरसु निहारी।
अगम अगोचर सतिगुरू बोले मुख ते सुणहु संसारी।
कलिजुग पीड़ही सोढीऔँ निहचल नीव उसार खलहारी॥
जुगि जुगि सतिगुर धरे अवतारी ॥
श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने ‘गुरता गद्दी’ की महत्वपूर्ण जवाबदारी श्री गुरु हर राय जी को सौंपने के पश्चात आप ने अपने ‘सचखंड गमन’ (अकाल चलाना) की पूर्व तैयारी आरंभ कर दी थी। भरे दीवान में आप ने गुरुवाणी के द्वारा उपस्थित संगत को उपदेशित किया था। आप ने इन बाणियों से संगत को धीरज देखकर समझाया था। उस समय आप ने सिख धर्म के पांचवे श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी की वाणी को अपने मुखारविंद से उच्चारित कर जो वचन कहे थे उसे गुरुबाणी में इस तरह अंकित किया गया है–
मारु महला 5 घरु 4 असटपदीआं
एक ओंकार सतिगुरु प्रसादि
चादना चादनु आँगनि प्रभ जीउ अंतिर चादना॥
आराधना अराधनु नीका हरि नामु अराधना ॥
तिआगना तिआगनु नीका कामु क्रोध लोभु तिआगना॥
मागना मागनु नीका हरि जसु गुर ते मागना॥
जागना जागनु नीका हरि किरतन महि जागना॥
लागना लागनु नीका गुर चरणी मनु लागना॥
इह बिधि तिसहि परापते जा कै मसतिक भागना॥
कहु नानक तिसु सभु किछु नीका जो प्रभ की सरनागना॥
(अंग क्रमांक 1018)
अर्थात भौतिक रूप से दीयों को जलाकर वातावरण में जो बाहरी रूप से प्रकाश होता है उससे उत्तम तो अपने अंतर्मन के ह्रदय में प्रभु-परमेश्वर के नाम का प्रकाश करना सबसे उत्तम है। अन्य नामों को जपने से उत्तम प्रभु-परमात्मा का नाम जपना सबसे सुंदर है। श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने गुरुवाणी के उपरोक्त गद्य के द्वारा उपस्थित सभी संगत को उपदेश किया था और साथ ही ‘बाबा बुड्डा जी के सुपुत्र ‘भाई भाना जी को आपने अपने वचनों के द्वारा सूचित किया कि आप ‘रमदास’ नामक स्थान पर पुनः प्रस्थान करें और उस स्थान पर बाबा बुड्डा जी के द्वारा संचालित गुरबाणी शिक्षा-दीक्षा के केंद्र को संभालते हुए सभी विद्यार्थी और संगत को गुरबाणी कंठस्थ करने का महत्वपूर्ण कार्य की देखरेख करे।
श्री गुरु हरगोबिंद जी के अत्यंत निकटवर्ती ‘ढाडी वारां’ (गुरु वाणी और सिख इतिहास को लोक गीत और लोक संगीत के माध्यम से गाकर प्रस्तुत करने की परंपरागत विधि) को गाने वाले भाई नत्था और भाई अब्दुल्ला जी को आपने अपने वचनों से उद्बोधन करते हुए कहा कि आप दोनों भी अपने निवास स्थान पर पुनः प्रस्थान करो और ‘ढाडी वारां’ कला के द्वारा संपूर्ण इलाके की संगत को गुरु वाणी और सिख इतिहास से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य निरंतर करते रहने का आग्रह किया था। साथ ही आप ने श्री गुरु हर राय साहिब जी को अपने अंतिम समय में उपदेशित करते हुए कहा कि श्री गुरु नानक देव साहिब जी की रीत और परंपराओं का प्रचार-प्रसार करते रहना एवं ‘शीतलता और शांति’ को जीवन के मूल मंत्र के रूप में आत्मसात करना और अहंकार से दूरी बनाकर रखनी है। 2200 घुड़सवारों की सेना को सदैव साथ में रखना है और जरूरत के अनुसार इस सेना का उपयोग भी करना है।
श्री गुरु हरगोबिंद जी ने अपनी सौभाग्यवती (सुपत्नी) को अंतिम समय में जो वचन उद्गारित किए थे उसे इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है–
अब मानो मम बाइ जाइ बकाले तुम रहु।
तिंह तां बस तुम जाइ सति गुरिआइ तोहि होइ॥
अर्थात आप ने अपने मायके ‘बाबा बकाला’ नामक स्थान पर प्रस्थान कर जाओ और सचमुच ही एक दिन आप के सुपुत्र श्री तेग बहादुर जी को ‘गुरता गद्दी’ की बख्शीश अवश्य प्राप्त होगी। इस अंतिम समय में गुरु जी ने स्वयं के पास से तीन वस्तुएं बक्शीश की थी जिसमें प्रथम ‘कटार दूसरे क्रम में एक ‘रुमाल’ और तीसरे क्रम में ‘पोथी साहिब’ जी को भेंट स्वरूप दिया था।
भविष्य में यह रुमाल ‘धर्म की चादर’ के रूप में परिवर्तित हो गया और यह भेंट स्वरूप प्राप्त हुई कटार ‘धर्म को बचाने’ के लिए ‘तेग’ के रूप में परिवर्तित हो गई थी।
श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी 6 चैत्र संवत् 1701 अर्थात 3 मार्च सन् 1644 को अपनी सफल और सार्थक जीवन यात्रा को संपूर्ण कर, किरतपुर साहिब जी में ज्योति-ज्योत (अकाल चलाना) समा गए थे।
जिस स्थान पर आप का अंतिम संस्कार हुआ उसी स्थान पर गुरुद्वारा पातालपुरी सुशोभित है। आप का अंतिम संस्कार श्री गुरु हर राय जी, बाबा बुड्ढा जी के सुपुत्र भाई भाना जी और सिखों में से प्रमुख रूप से भाई जोध राय जी और गुरु पुत्र बाबा सूरजमल जी एवं भावी श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी इत्यादि, इन सभी महानुभावों ने मिलकर किया था।
श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी 6 चैत्र संवत् 1701 अर्थात 3 मार्च सन् 1644 को अपनी सफल और सार्थक जीवन यात्रा को संपूर्ण कर, किरतपुर साहिब जी में ज्योति-ज्योत (अकाल चलाना) समा गए थे।
ऐसे महान गुरु श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी के चरणों में सादर नमन!