श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के मानवीय आदर्श (व्याख्यान)

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श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के मानवीय आदर्श (व्याख्यान)

प्यारे दर्शकों / पाठकों, वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!

परमपिता अकाल पुरख वाहिगुरु जी तथा बाबा महाकाल के चरणों में विनम्र प्रणाम अर्पित कर, मैं अपने आज के उद्बोधन का शुभारम्भ करता हूँ। भारतीय ज्ञानपीठ, उज्जैन- जो भारतीय सांस्कृतिक चेतना, वैचारिक परंपरा और साहित्यिक अस्मिता का गौरवशाली तीर्थ स्थल है ऐसी महान संस्था के तत्वावधान में पिछले तेईस वर्षों से कवि-कुलगुरु पद्मभूषण डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ तथा कर्मयोगी स्वर्गीय श्री कृष्ण मंगल सिंह कुलश्रेष्ठ जी की प्रेरणा से “अखिल भारतीय सद्भावना व्याख्यानमाला” का यह अनुकरणीय और निरंतर आयोजन, न केवल उत्तम साहित्य की मर्यादा, बल्कि समूचे भारतीय बौद्धिक समाज का मान बढ़ा रहा है। ऐसे प्रतिष्ठित एवं गौरव-विधायक आयोजन में मुझे श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के मानवीय आदर्शों पर प्रकाश डालने का अवसर मिला, निश्चित ही मैं इसे अपने जीवन का विशिष्ट सम्मान मानता हूँ। इस अमूल्य अवसर के लिए मैं अपनी ओर से तथा टीम खोज-विचार की ओर से भक्ति-भाव सहित आयोजक मंडल का हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ।

आज हम इतिहास के उस दिव्य और निर्णायक अध्याय के समक्ष बैठे हैं, जहाँ किसी एक धर्म, किसी एक कौम या किसी एक भू-भाग का सुख-दुःख नहीं लिखा गया अपितु पूरी मानवता की ज़मीर को जगाने वाली वह ज्योति दर्ज है, जिसे संसार “श्री गुरु नानक साहिब जी की नौवीं ज्योत, श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी” के नाम से जानता है।

सिख परंपरा का यह सौभाग्य रहा कि इस परंपरा में गुरुओं ने केवल उपदेश नहीं दिए अपितु उन उपदेशों पर जीकर दिखाया, स्वयं की शहादत देकर अपने उपदेशों को सिद्ध किया और उन्हीं गुरुओं की परंपरा में नवम पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का व्यक्तित्व, इंसानियत के मानवीय आदर्शों का सर्वोच्च प्रतिमान बनकर हमारे समक्ष खड़ा है।

प्यारे दर्शकों, वर्तमान वर्ष 2025 का महत्व इस कारण और भी बढ़ जाता है कारण यह वर्ष गुरु साहिब जी की 350वीं शहादत-स्मृति के रूप में मनाया जा रहा है। सिर्फ चार वर्ष पहले सन 2021 में हम सबने उनके 400वें प्रकाश-पर्व को महामंगल-उत्सव रूप में मनाया और अब वो ही युग हमें गुरु-शहीदी के प्रकाश-संदेश का पुनः स्मरण करा रहा है- ताकि दुनिया समझे कि मनुष्य-धर्म की रक्षा के लिए और मानवीय आदर्शों के लिए शहादत भी दी जा सकती है।

आज के मेरे इस व्याख्यान में हम उस सत्-पुरुष के जीवन का प्रारंभ नहीं देख रहे, हम उस प्रश्न का उत्तर खोज रहे हैं कि- किस आधार पर श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी को “इंसानियत की ज़मीर का रखवाला” कहा जाता है? क्या केवल इसलिए कि उन्होंने प्राणों को न्योछावर कर शहादत दी? नहीं प्यारे दर्शकों शहादत तो परिणाम थी, पर उस शहादत तक पहुँचाने वाली उनकी जीवन-दृष्टि, उनके भीतर के मानवीय आदर्श, उनका धर्म-निरपेक्ष चिंतन, उनकी करुणा-प्रधान जीवन-शैली, उनकी यात्राएँ, लोक-कल्याण, और त्याग का विस्तार इत्यादि| यही वह अध्याय हैं- जिन्हें समझे बिना श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की शहादत का अर्थ अधूरा रह जाएगा।

आज की यह व्याख्यान-माला इन्हीं मानवीय आदर्शों की अनुक्रमित यात्रा है- जहाँ हम गुरु साहिब के जीवन-प्रसंगों को कथा के रूप में नहीं, मानवीय आदर्शों के शाश्वत दस्तावेज़ के रूप में जानेगें।

निश्चित ही गुरु साहिब का प्रकाश एक दिव्य उत्तरदायित्व का प्रथम संकेत था, सिख परंपरा में चौथे गुरु श्री गुरु रामदास जी ने अपनी वाणी में गुरु-जन्म / प्रकाश की महिमा को इस प्रकार उच्चारित किया है—

सा धरती भई हरिआवली जिथै मेरा सतिगुरू बैठा आइ।

से जंत भए हरीआवले जिनी मेरा सतिगुरु देखिआ जाइ।

धनु धंनु पिता धंनु धनु कुुलु धनु धनु सु जननी जिन गुरु जणिआ माइ।। 

(अंग 310)

इस दिव्य भाव के अनुरूप वह दिन, वह माता-पिता और वह कुल धन्य है जिसने गुरु को जन्म दिया। 5 बैसाख 1678 विक्रमी (1 अप्रैल 1621, रविवार, अमृतवेले / ब्रह्म मुहूर्त) का सौभाग्य शाली क्षण था जब नौवीं पातशाही श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का प्रकाश हुआ।

उसी समय श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी दरबार साहिब अमृतसर में संगत के साथ ‘आसा की वार’ का कीर्तन श्रवण कर रहे थे। एक सेवादार ने दरबार में उपस्थित होकर यह शुभ-समाचार दिया, जिसे सुनकर संगत आनंद से झूम उठी। कीर्तन-समाप्ति पर संगत ने गुरु जी को बधाइयाँ अर्पित कीं।

गुरु जी जब ‘गुरु के महल’ पधारे, तब बाबा बुढ़्‍ढा जी, भाई गुरदास जी और भाई बिधि चंद जी भी साथ थे। गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने नवजात शिशु को अपने हाथों में लेकर प्रेमपूर्वक देखा और उसके आगे विनम्रतापूर्वक शीश नवाया। ‘पंथ प्रकाश’ के अनुसार जब कारण पूछा गया, तो गुरु जी ने भविष्यवाणी की कि-

दिन रथ संकट हरै॥ एह निरभै जर तुरक उखेरी॥

अर्थात यह बालक दीन-दुखियों का रक्षक, संकट-नाशक और अत्याचारियों का मूलोच्छेदक होगा। इसी कारण गुरु जी ने उसका नाम स्वयं “तेग बहादुर” रख दिया।

इस प्रकार 1 अप्रैल 1621 के अमृतवेले हुए इस प्रकाश-दिवस पर समस्त संगत आनंद-विभोर होकर एक-दूसरे को बधाइयाँ दे रही थी कारण इंसानियत की ढाल, सत्य-धर्म की ढाल श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का अवतरण हो चुका था।

पिता श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने स्वयं उनका नाम ‘तेग बहादुर’ रखा। कुछ ऐतिहासिक स्रोतों में बाल्यकाल में आपको ‘त्यागमल’ भी कहा गया है, परंतु प्रचलन में नाम प्रारम्भ से ही ‘तेग बहादुर’ रहा। दसों गुरुओं में एकमात्र गुरु जिनका नाम फ़ारसी भाषा में रखा गया वह श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का हैं। 

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में “तेग” शब्द का संकेत इस प्रकार मिलता है-

जा तुधु भावे तेग वगावहि सिर मुंडी कटि जावहि (अंग 145)

तेग का अर्थ है खड्ग, कृपाण। “देग-तेग जग में दो चले”- दीन की रक्षा और अत्याचार का प्रतिकार, दोनों गुण आरम्भ से ही आपके व्यक्तित्व में प्रकट होने लगे थे।

आपका बचपन स्नेह और ममत्व में बीता। बड़ी बहन बीबी वीरो आपका अत्यंत लाड़ करती थीं। कहा जाता है कि आपने बाल्यावस्था में कभी रोकर दूध की मांग नहीं की, यह स्वभावगत संयम और विरक्ति का प्रथम संकेत था।

एक अवसर पर जब श्री गुरु हरगोबिंद जी तख़्त पर विराजमान थे, आप खेलते-खेलते उनकी गोद में जा बैठे और उनके पीरी वाले गातरे को कसकर पकड़ लिया। गुरु जी ने गातरा छुड़ाने का प्रयास किया, पर आपने और दृढ़ता से पकड़ लिया। तब गुरु जी भाव-विभोर होकर बोले- “पुत्र, समय आने पर तुम्हें ‘तेग’ चलानी भी पड़ेगी और खानी भी”– यह कथन जैसे भविष्य का उद्घोष था।

गुरु साहिब जी के त्याग का प्रथम प्राकट्य केवल चार वर्ष की आयु में ही अवलोकित होता है, सन् 1625 में जब बड़े भ्राता भाई गुरदित्त्ता जी के विवाह (आनंद कारज) का समय आया, उस अवसर पर चार वर्ष के छोटे से तेग बहादुर को सुंदर वस्त्र एवं आभूषण पहनाए गए। बारात निकलते समय आपने एक निर्धन, वस्त्रहीन बालक को ठंड में ठिठुरते देखा। कारण पूछने पर बालक ने कहा- “हमारे पास तो दो वक़्त की रोटी भी नहीं, वस्त्र कहाँ से पहनें?” यह सुनकर तेग बहादुर साहिब जी ने तत्काल अपने वस्त्र और आभूषण उतारकर उस बालक को पहना दिए। जिस समय परिवार विवाहोत्सव के उल्लास में डूबा था उस समय बाल तेग बहादुर जी का आनंद इस त्याग में था कि किसी का तन ढँक गया। इतिहास गवाह है- जिस बालक ने चार वर्ष की आयु में किसी निर्धन का तन ढका उस ने आगे चलकर पूरे धर्म को निर्वस्त्र होने से बचाने हेतु अपना शीश वार दिया।

बाल्यकाल में ही भावी गुरु श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी को गुरमत-शिक्षा और जीवन-संस्कारों हेतु रमदास स्थित उस विद्यालय में भेजा गया जहाँ बाबा बुढ़्ढा जी, जो दरबार साहिब के प्रथम हेड-ग्रंथी रहे, निवास एवं सेवा करते थे। चार से दस वर्ष की अवस्था में आपने वहीं गुरुमुखी, गुरबाणी, और प्रारम्भिक सिख इतिहास का गहन अध्ययन किया। बाबा बुढ़्ढा जी के सात्विक जीवन, नियत नित्यनेम, खेती-किरत तथा दसवंध (किरत कमाई के दसवें हिस्से को लोक कल्याण हेतु खर्च करना) की परंपरा ने आपके हृदय में सेवाभाव और आत्म-निष्ठा के मूल्य अंकित किए।

इसके पश्चात् आपकी शिक्षा की जिम्मेदारी सिख मत के महान विद्वान भाई गुरदास जी को सौंपी गई जिन्होंने आदि ग्रंथ की वाणियों को लिखकर अध्यात्म, भाषा, तर्क, इतिहास एवं व्यावहारिक बुद्धि के उच्च संस्कार दिए। इसके साथ-साथ भाई बाबक जी से आपको गुरमत-संगीत की विद्या मिली, जिसमें रबाब, सारंगी, सिरंदा आदि तंती वाद्यों का गहन प्रशिक्षण और 30 रागों का अभ्यास शामिल था। आगे चलकर आपने स्वयं ‘राग जैजावंती’ का सृजन कर गुरमत-संगीत में 31वें राग के रूप में जोड़ा।

इसी काल में भाई जेठा जी और भाई गुरदास जी के निरीक्षण में आपको लोहगढ़ क़िले में सैन्य-शिक्षा, तलवारबाजी, तीरंदाजी, घुड़सवारी और युद्ध-नीति में पारंगत किया गया। आध्यात्मिक शिक्षा के साथ यह संस्थापन इस बात का प्रतीक था कि “दीन की रक्षा और अत्याचार के प्रतिकार” दोनों को ही जीवन के पथ में समाहित रखना हैं।

व्यवहारिक जीवन सेवा में आप जी ने चिकित्सा-विज्ञान की शिक्षा भी अर्जित की और लाहौर व तरनतारन केंद्रों में रोगियों की सेवा की। यह आपका मानवीय आदर्श था कि साधना, शिक्षा, सेवा और सुरक्षा चारों एक साथ जीवन की उत्तरदायित्व-धारा हैं।

बचपन का सबसे बड़ा संस्कार वैराग और संयम होता है, भावी गुरु श्री तेग बहादुर साहिब जी के बाल्यकाल में ही जीवन ने उन्हें वैराग्य और संयम का गहरा पाठ सिखाया। दो वर्ष बड़े भ्राता बाबा अटल जी का अकस्मात स्वर्गवास और उसी वर्ष माता गंगा जी का परलोकगमन, इन दोनों घटनाओं ने आपके कोमल हृदय पर अतिशय प्रभाव डाला। दादी माता गंगा जी की गोद में हुए पालन-पोषण और फिर उनका जाना, स्नेह से वैराग तक की यह यात्रा आपकी आंतरिक धातु को अद्भुत रूप से तपाती चली गई। इसी काल में बाबा श्रीचंद जी (पुत्र श्री गुरु नानक देव जी), जो उदासी सम्प्रदाय के संस्थापक थे, ज्योति-ज्योत समा गए। वे भावी गुरु श्री तेग बहादुर साहिब जी से विशेष प्रेम रखते थे। उनके प्रस्थान ने भी आपके अंतर्मन में विरक्ति और संसार-बोध को और गहरा कर दिया।

जब आपकी आयु लगभग 10 वर्ष थी तब महान ब्रह्मज्ञानी बाबा बुढ़्ढा जी का भी परलोक जाना हुआ। वही बाबा बुढ़्ढा जी जिन्होंने सिख धर्म के पहले छः गुरुओं का प्रत्यक्ष दीदार किया, पाँच गुरुओं को अपने कर-कमलों से गद्दी पर विराजमान किया, छठें गुरु श्री हरगोबिंद साहिब जी को मिरी-पिरी की कृपाणें अर्पित कीं, और स्वयं आपकी शिक्षा-दीक्षा के प्रथम मार्गदर्शक रहे, उनके देह-त्याग ने आपके हृदय में विरक्ति का अंतिम संस्कार पूर्ण कर दिया।

इन समस्त घटनाओं को आपने “अकाल-पुरख की रज़ा” मानकर हृदय में उतारा। यही कारण है कि आपकी वाणी में वैराग, विश्व का अस्थिर-बोध और मृत्यु-स्वीकार का तेजस्वी संदेश बार-बार प्रकट होता है, जैसे-

चिंता ता कि किजीऐ जो अनहोनी होइ।
इहु मारगु संसार को नानक थिरु नहीं कोइ।। (अंग 1429)

बाल्यावस्था से ही अस्थिर जगत को देख, जो जीवन भीतर से “डर-रहित, मोह-रहित, स्वीकार-पूर्ण” बने- वो ही आगे चलकर “त्यागमूर्ति- श्री गुरु तेग बहादुर साहिब” बनते हैं। यही वैराग्य आगे चलकर निर्भय होकर अत्याचार के सामने खड़े होने का आधार बना।

लोक-कल्याणकारी यात्राएँ और मानवीय आदर्श-

श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के मानवीय आदर्शों को यदि व्यवहार में देखना हो, तो उनके उन विशाल भ्रमणों को देखना होगा जिनका उद्देश्य किसी एक मज़हब का प्रसार नहीं अपितु मानव-कल्याण, सामाजिक उत्थान और आत्म-गरिमा का पुनर्जागरण था। गुरु साहिब जी ने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, असम, उड़ीसा तक लगभग 25000 माइल्स की यात्राएँ कीं, जहाँ भी आपके चरण पड़े लोगों ने धर्म को नहीं, इंसानियत को जागते देखा

इस संबंध में समयाभाव के कारण हम केवल एक उदाहरण का अवलोकन करेंगे, जब श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी जब अपनी धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा हेतु हकीमपुर से आगे बढ़कर लगभग दस किलोमीटर दूर उस स्थल पर पहुँचे जहाँ प्राकृतिक रूप से शुद्ध जल का स्रोत, पलाश का वृक्ष और एक ऊँचा थड़ा / टीला विद्यमान था तो इस स्थान पर आपने अपना नवीन निवास स्थापित किया। इस स्थान पर दीवान सजने लगे और दूर-दूर से संगत दर्शन-दीदार को आने लगीं।

जब संगत ने निवेदन किया कि क्षेत्र में पीने के पानी की घोर कमी है तो गुरु जी ने बिना विलम्ब मानवीय आदर्शों को सम्मुख रखते हुए लोक-कल्याण का कार्य आरम्भ किया। माता नानकी जी के वचनों और आम जन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर आपने अपनी दसवंध रूपी रक़म से स्वयं 84 कुओं का निर्माण करवाया। उस युग में एक ही कुएँ को बनना बड़ा परोपकार था, वहीं 84 कुओं का निर्माण मानवीय आदर्शों के हित में गुरु जी की करुणा और संकल्प-शक्ति का अद्वितीय प्रमाण था। इसी स्थान पर एक कुआँ माता गुजर कौर जी के नाम से भी बनवाया गया, जो आज भी संरक्षित है।

जब स्थानीय संगत को ज्ञात हुआ कि गुरु जी यहाँ नया नगर बसाना चाहते हैं, तो एक श्रद्धालु सिख ने स्वयं की 775 एकड़ भूमि इस कार्य हेतु समर्पित कर दी। गुरु जी ने इस नगर का नाम अपने मुखारविंद से रखा- “चक गुरु का”। आज इसी स्थान पर स्थित गुरुद्वारा “गुरु पलाह साहिब” गुरु-विरासत का साक्षी है। जहाँ गुरु जी के घोड़ों की खूटियाँ बंधती थीं उनके अवशेष आज भी काँच की अलमारी में सुरक्षित रखे गए हैं।

यह स्थान केवल निवास नहीं था- यह श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की लोक-सेवा, जल-संरक्षण, न्यायप्रिय और भविष्य-दृष्टि का जीवित घोषणापत्र है। इसी स्थान से आगे गुरु जी धर्म-प्रचार यात्राओं पर आगे बढ़े ताकि मानवीय आदर्शों की रक्षा करते हुए धर्म, सेवा और मानवता के यह बीज विश्व के और भूभागों में भी रोपे जा सकें।

सन् 1644 में गुरु श्री हरगोबिंद साहिब जी की आज्ञा से धन्य-धन्य गुरु श्री तेग बहादुर साहिब जी माता नानकी जी और माता गुजरी जी सहित बाबा-बकाला में विराजमान हो गए। लगभग 21 वर्ष पश्चात (1665) आप पुनः कीरतपुर साहिब लौटे। इस बीच गुरु घर में लोककल्याण की परंपरा निरंतर आगे बढ़ती रही, गुरु हर राय साहिब जी ने बागों, जीव-जंतुओं के लिए उद्यान और निःशुल्क औषधालय स्थापित कर जन-सेवा की परंपरा को निरन्तरता दी।

19 जून सन 1665 को आप सहपरिवार ग्राम सहोटा के ऊँचे टीले पर पहुँचे जहाँ दीवान सजे, कीर्तन हुआ और कड़ाह प्रसाद वितरित हुआ। इसी क्षेत्र में मोहरी (नींव) रखकर नया नगर बसाने का कार्य आरम्भ किया गया। यह नींव भाई गुर्दत्ता जी ने रखी ओर इस नगर को गुरु जी ने स्वयं नाम दिया- “चक नानकी” (माता नानकी जी की स्मृति में)।

गुरु श्री तेग बहादुर साहिब जी स्वयं नगर-रचना के उत्तम ज्ञाता थे। आपने दरबार साहिब अमृतसर सहित पूर्ववत गुरुओं द्वारा बसाए नगरों का अवलोकन कर सही ढंग से संपूर्ण नक्शा तैयार किया, जिसमें कोई जातिगत विभाजन नहीं था, इस नगर में बाजार, धर्मशाला, निवास, व्यापार और सामूहिक जीवन-प्रणाली को समानता और सेवा-आधारित ढाँचे में नियोजित किया गया।

मसंदों के माध्यम से यह आह्वान किया गया कि जो चाहे आकर इस नगर में बस सकता है। परिणामस्वरूप दूर-दूर से लोग गृहस्थ सामग्री सहित आकर यहाँ बसने लगे। 24 घंटे लंगर का प्रबंध, कारीगरों का आगमन, व्यवसाय का प्रारम्भ और कुछ ही समय में निर्जन पहाड़ी क्षेत्र एक जीवंत मानव बस्ती में बदल गया।

इन प्रसंगों से सिद्ध होता है कि गुरु तेग बहादुर साहिब जी केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शक ही नहीं अपितु एक उत्तम नगर-रचनाकार, लोक चिकित्सा सेवी, प्रकृति और प्राणी-प्रेमी, तथा जाति-मुक्त सामाजिक व्यवस्था के प्रणेता थे। आपने केवल उपदेश नहीं, बल्कि व्यवहार में समाज-निर्माण कर मानवता के लिए आदर्श प्रतिमान रचा। गुरु साहिब जी ने रोगियों का उपचार किया, रूढ़ियों और अंधविश्वास का विरोध किया, अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध चेतना जगाई, लोक कल्याण के लिए की गई यह यात्राएँ केवल प्रवचन नहीं अपितु जीवन-समस्या का मानवीय समाधान थीं।

भ्रमणशील जीवन का गहरा संदेश-

श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने यह सिद्ध किया कि-संसार को बदलने के लिए तलवार से अधिक आवश्यक है, चलकर पीड़ित के द्वार पर पहुँचना। यही “मानवीय आदर्श” का वास्तविक रूप है, कि धर्म, जब तक मनुष्य के घाव तक न पहुँचे, तब तक वह पूर्ण नहीं होता। प्यारे दर्शकों, इन यात्राओं ने आगे चलकर वह पृष्ठभूमि तैयार की जिसके कारण शहादत कोई आकस्मिक घटना नहीं अपितु उनकी सोची-समझी, मानवीय-कर्तव्य की सिद्ध परिणति बनी।

औरंगज़ेब का अत्याचार तथा कश्मीरी ब्राह्मणों की विनती

उस काल में सत्तारूढ़ जालिम बादशाह औरंगजेब की कठोर हठधर्मिता इस स्तर की थी कि वह अपने मत के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म का अस्तित्व सहन न करता। उसने समस्त प्रजा को इस्लाम स्वीकार करने का कठोर आदेश सुना दिया था अर्थात “इस्लाम अपनाओ, अथवा मृत्यु वरण करो।” उसकी दमनकारी नीति का पालन करने हेतु तलवार की धार पर लोगों का धर्म परिवर्तन किया जा रहा था, जिससे विविध धर्मावलंबियों का जीवन अत्यंत दुष्कर हो उठा। समूचे देश में उसके अत्याचार से त्राहि-त्राहि मच गई। ऐसी विकट परिस्थिति में कश्मीर के ब्राह्मण पंडित कृपाराम जी के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल के रूप में बाबा-बकाला नामक स्थान पर आकर गुरु जी से विनम्र याचना करने लगे कि जालिम औरंगजेब से उनकी रक्षा की जाए।

गुरु साहिब ने आश्वासन दिया कि “यदि कोई महापुरुष शहादत दे, तो हिंदू धर्म सुरक्षित रह सकता है।” तभी निकट खड़े बाल गोविंद राय (आयु: 9 वर्ष 6 मास) ने द्रवित स्वर में सूचित किया “पिताजी, आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है?” एक बेटे ने अपने पिता को शहादत की ओर प्रेरित किया- वह भी अपने धर्म के लिए नहीं अपितु दूसरे के धर्म को बचाने के लिए।

इस पर गुरु जी ने कश्मीरी पंडितों के हाथों औरंगजेब को यह संदेश भिजवाया कि “यदि ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ इस्लाम स्वीकार कर लें, तो हम सब भी धर्म परिवर्तन कर लेंगे।”

औरंगज़ेब ने तत्काल गुरु जी की गिरफ्तारी का हुक्म जारी किया; किन्तु गुरु साहिब स्वयं कुछ चुनिंदा सेवक-साथियों सहित निडर होकर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए।

गिरफ्तारी, यातनाएँ और दिल्ली-प्रस्थान

औरंगज़ेब ने गुरु जी की गिरफ्तारी का आदेश दिया; मुग़ल सैनिकों ने गुरु जी तथा साथियों- भाई सती दास जी, भाई मती दास जी, भाई दयाला जी को बंदी बना कर अमानुषिक यातनाएं दीं।

शहीद साथियों की अमर शहादत

9 नवंबर 1675 ई. को दिल्ली के चाँदनी चौक में, धर्मांतरण के दमन चक्र का सामना करते हुए, परम भक्त भाई सती दास जी ने इस्लाम स्वीकार करने से स्पष्ट इनकार किया। क्रूर मुगल सिपाहियों ने उन्हें रूई में लपेटकर जीवित अग्नि में झोंक दिया, परन्तु उन्होंने करुणामयी मुस्कराहट के साथ शहादत का जाम ग्रहण किया। अगले ही दिवस, 10 नवंबर 1675 ई., भाई मती दास जी को भी उसी धर्म-परित्याग की माँग ठुकराने के कारण स्तम्भ से बाँधकर आरे से देह के मध्य से चीरा गया; वह अंतिम क्षण तक निर्भीक भाव से जपुजी साहिब का पाठ करते रहे और हँसते-हँसते शहादत को स्वीकार किया। इसी दिन मुगल सैनिकों ने भाई दयाला जी को विशाल देग में जल उबालकर यातना पुर्वक शहीद कर दिया।

भाई सती दास जी और भाई मती दास जी सगे भ्राता थे, तथा उनके साथ भाई दयाला जी, ये तीनों ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के परम श्रद्दालु, निकटवर्ती सेवक और संगति-सहचर थे। उनका साहस पूर्ववर्ती पारिवारिक विरासत का प्रतीक था, इन दोनों भाइयों के परदादा, वीर सेनापति भाई परागा जी, छठे पातशाह ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ की फौज में अग्रणी रहे और मुग़ल अत्याचार के विरुद्ध मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हुए थे। इस प्रकार, 9-10 नवंबर सन 1675 ई. की यह अमर बलिदान-गाथाएँ सिख इतिहास में आत्मोत्सर्ग, अटल आस्था एवं मानवीय गरिमा की चिरस्मरणीय मिसाल बन गईं, उन्होंने “धर्म की खातिर सिर दिया, सर न दिया” इस प्रकार से उन्होनें धर्म की परम्परा को शाश्वत सत्य में रूपांतरित किया।

दिल्ली दरबार की तीन शर्तें (11 नवंबर 1675 ई.)

चाँदनी चौक, दिल्ली में औरंगजेब के प्रतिनिधियों ने नौवें गुरु ‘श्री तेग बहादुर साहिब जी’ के सम्मुख तीन विकल्प रखे-

    1.  

        1. इस्लाम धर्म स्वीकार करें,
        1. अन्यथा मृत्यु के लिए तैयार रहें।

समस्त देश की निगाहें गुरु जी के निर्णय पर टिकी थीं। उन्होंने इंसानियत की ज़मीर और मानवीय आदर्शों को बचाने हेतु तीसरा मार्ग स्वैच्छिक शहादत को स्वीकार किया। सर्व-कला-सम्पन्न गुरु जी चाहें तो चमत्कार दिखा सकते थे; परंतु उन्होंने अपनी शहादत से अत्याचार-विरोध और धार्मिक स्वतंत्रता का शाश्वत संदेश रचा।

विश्व इतिहास में अनुपम उदाहरण

दूसरे के धर्म की रक्षा के लिए स्वयं प्राण अर्पित करने का ऐसा अद्भुत उदाहरण विश्व-इतिहास में अद्वितीय है। गुरु जी ने अपनी शहादत की “चादर” से मानवीय अंतरात्मा को ढक लिया। जिसे एक कवि ने इस तरह से शब्दांकित किया है-

तेग बहादुर के चलत भयो जगत में शोक॥

है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक॥

धरती पर शोक, देव-लोक में जय-जयकार, निश्चित ही यह घटना शहादत और मानवीय आदर्शों की महिमा का प्रतीक बन गई। श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने मानवता के आदर्शों के संवैधानिक अधिकार की पहली याचिका, जो शब्दों से नहीं स्वयं की शहादत देकर दायर की थी। निश्चित ही धर्म-स्वतंत्रता, बहुलता और मानवाधिकारों को श्री गुरु तेग बहादुर साहिब ने युद्ध जीत कर नहीं अपितु स्वयं की शहादत देकर सुरक्षित किया। निश्चित ही गुरु साहिब की शहादत के बाद हिंदू बचा, सिख बचा, धर्म बचा, देश बचा पर इससे भी बड़ा- मनुष्य-गरिमा और मानवीय आदर्शों का अधिकार जीवित बचा। गुरु साहिब ने दिखाया कि सिर्फ तलवार से संसार नहीं बदलता और सिर्फ त्याग से भी संसार नहीं बदलता पर जब शक्ति और करुणा मिलकर मानवीय आदर्शों के हित के लिए खड़ी होती हैं तभी इतिहास “आदर्श” इतिहास कहलाता है। इतिहास में युद्ध जीतने वाले अनेक मिलेंगे, पर मानवता की रक्षा के लिए स्वयं की शहादत देने वाला केवल एक धन्य-धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी।

पावन धड़ का संस्कार: गुरुद्वारा रकाबगंज

गुरु जी के परम भक्त भाई लक्खी शाह बंजारे ने गुरु‐दर्शन के उपरान्त धड़ को सम्मान पूर्वक शहादत वाले स्थान से उठाकर, अपने घर को अग्नि‐समर्पित कर अन्तिम संस्कार किया। आज वह स्थल दिल्ली में विलोभनीय इमारत के रूप में गुरुद्वारा रकाबगंज गुरु साहिब जी की पावन स्मृति में सुशोभित है।

श्री आनंदपुर साहिब तक शीश की यात्रा

भाई जैता जी ने मुगल पहरे को छलते हुए गुरु जी का शीश श्री आनंदपुर साहिब पहुँचाया। वहाँ दशम पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ ने भाई जैता जी को संबोधित कर, आनन्दोल्लास से घोषणा की-

“रंगरेटा, गुरु का बेटा!”
यह सम्मान शहीद-परम्परा का गौरव-सूत्र बन गया।

गुरु-संदेश की आज्ञा: अमन व शांति

गुरु जी ने स्पष्ट कर दिया कि सत्ता का अहंकार और ज़ोर-ज़ुल्म चिरस्थायी नहीं। केवल दया, धर्म और न्याय के मार्ग पर चलकर ही विश्व-शांति संभव है।

शहीदी-वर्ष को समर्पित काव्य-संवेदना

तिमिर घना होगा तमा लंबी होगी,
पर तमस से विहान रुका है क्या?
ज्ञान के विहान का विधान रुका है क्या?
इंसानियत की ज़मीर का पहरेदार रुका है क्या?
बाहुबल के दम पर धर्म का अवसान हुआ है क्या?
मिट गए मिटाने वाले गुरुओं के ज्ञान के सम्मुख,
शमशीर के वार से धर्म का विहान रुका है क्या?

इन पंक्तियों में छिपा प्रतिबिंब उद्घोष करता है कि शस्त्र-बल क्षणभंगुर है, परंतु गुरु जी की शहादत शाश्वत है।

निष्कर्ष 

श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने भविश्य की आने वाली पीढ़ी के समक्ष-

    इस प्रकार वे वास्तव में “श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी मानवीय आदर्शों और इंसानियत की ज़मीर के रखवाले” के स्वरूप में सम्मानित हुए। उनकी 350 वीं शहादत-वर्ष की स्मृति समस्त मानवता को-
    धर्म-स्वातंत्र्य, सहिष्णुता एवं सेवाभाव का प्रकाश-स्रोत प्रदान करती रहेगी।

    मानवीय आदर्शों के प्रणेता-इंसानियत की ज़मीर के रखवाले ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को कोटिशः नमन

     

     

     

     


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    2 thoughts on “श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के मानवीय आदर्श (व्याख्यान)”

    1. श्री गुरु तेग बहादुर साहब के बारे में आपके महत्वपूर्ण विचार निश्चित ही एक नई दृष्टि का सूत्रपात करते हैं।

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