सन् 1890 ई. के दशक में टाटा उद्योग समूह ने तेल के व्यवसाय में पुरी तरह से स्थिर होने के पश्चात भारत में साबुन उत्पादन की और गंभीरता से लक्ष्य केंद्रित किया था। उस समय तक भारत में पारंपरिक तरीके से घरों में निर्मित साबुन, बेसन और दूध के मिश्रण से स्नान किया जाता था।
उस समय खुले आंगन में, कुओं पर बने चबूतरों पर स्नान करने वाले कभी – कभी नारियल की छाल का भी स्नान के समय पीठ पर रगड़ने का उपयोग करते थे। उस समय लोगों को नहीं पता था कि साबुन जैसी कोई चीज होती है। हकीकत में देश में पहला साबुन सन् 1879 ई. के आसपास उत्तर भारत के मेरठ नामक स्थान पर निर्मित किया गया था। व्यावसायिक कुशलता न होने के कारण वो साबुन प्रसिद्ध नहीं हो सका था।
उस समय पारंपरिक विधियों से ही स्नान किया जाता था। सन् 1895 ई. में, कोलकाता के बंदरगाह पर इस देश में पहली बार इंग्लैंड से साबुन का आगमन हुआ था। जिसे सनलाइट सोप कहा जाता था। इसका निर्माण लिवर ब्रदर्स द्वारा मेड इन इंग्लैंड के रूप में किया गया था। यह साबुन सूर्य के प्रकाश की तरह बहुत ही कम समय में देश में लोकप्रिय हो चुका था और इसके निर्माता लीवर ब्रदर्स थे। जो आज का हिंदुस्तान लीवर है। यह वह ही कंपनी है; उन्होंने साबुन से भारत वासियों को परिचित कराया था।
इसी कंपनी ने बाद में डालडा के रूप में वनस्पति घी से देश वासियों का परिचय करवाया था और भारत में तेजी से इस उत्पाद को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया था।
उस समय टाटा समूह ने भारत में निर्मित साबुन के उत्पादन में प्रवेश करने का निर्णय ले लिया था। उस समय लीवर कंपनी ने टाटा समूह का डटकर विरोध किया था। उस समय साबुन उद्योग को स्वावलंबी कर स्वदेशी साबुन का निर्माण करना वो भी लीवर ब्रदर्स जैसी स्थायित्व प्राप्त कर चुकी कंपनी के सम्मुख! अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती थी।
उस समय टाटा ग्रुप अपने अपनी नस्लीय उद्यमिता के साथ कई नई चुनौतियों को स्वीकार चुका था।बिजली निर्माण के क्षेत्र में और स्टील निर्माण के लिये भी तैयारियां हो चुकी थी। पहला पांच सितारा होटल ताज के रूप में सुशोभित हो चुका था। उस समय मुंबई में स्वदेशी का जोर–शोर से प्रचार–प्रसार हो रहा था।
स्पर्धक कंपनी भली भांति जानती थी कि यदि टाटा समूह इस क्षेत्र में आये तो हम कहीं के नही रहेंगे। कारण टाटा समूह गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करेगा। स्पर्धक जानते थे कि यदि टाटा समूह को चुनौती देना है तो वो केवल उत्पाद के मूल्य के स्तर पर ही दी जा सकती है।
टाटा समूह भी इस उत्पाद के योग्य मूल्य के विषय को अपना प्रमुख हथियार बनाना चाहता था। टाटा समूह ने लीवर से स्पर्धा करते हुए 10 रुपये के मूल्य पर 100 साबुन को उस समय बाजार में उतारा था।
उत्पादित साबुन का नाम तय किया था 501.. बार ! इस नाम के पीछे भी एक इतिहास है। टाटा समूह लीवर को टक्कर दे रहा था। लीवर कंपनी मूल रूप से नीदरलैंड की है। बाद में वो ब्रिटिश कंपनी हो गई। टाटा समूह की अपने साबुन उत्पादन में केवल लीवर कंपनी से स्पर्धा थी। उस समय लीवर से स्पर्धा करने के लिए फ्रांस में एक और साबुन बना था और उस साबुन का नाम 500. . .बार था। यह जानने के बाद टाटा समूह के प्रमुख जाल नौरोजी ने कहा कि हम अपने साबुन का नाम 501 . . . बार रखेंगे क्योंकि जाल नौरोजी के रक्त में स्वदेशी का मंत्र कूट–कूट के भरा था उनके दादा जी दादा भाई नौरोजी बड़े देशभक्त थे।
टाटा समूह का साबुन भारतीय बाजार में आने के पश्चात बहुत तेजी से बहुत लोकप्रिय हो रहा था। इसलिए, लीवर ने सन लाइट (सूर्य के प्रकाश) साबुन की कीमत को 6 रूपये में 100 साबुन कर दिया था परंतु स्पर्धा के चक्कर में लीवर कंपनी के साबुन उत्पादन में उपयोग में लाये गये तेल की लागत भी नहीं निकाल पा रही थी। यह टाटा समूह के साबुन उत्पादन को समाप्त करने की यह एक कुटिल चाल थी। टाटा समूह इस स्पर्धा से बिल्कुल भी डगमगाए नहीं थे और अपने उत्पाद के मूल्य को स्थिर रखा था। तीन महीने के पश्चात लीवर ने भी सनलाइट साबुन के मूल्य को पहले की तरह ही कर दिया था। इस प्रतियोगिता में टाटा समूह ने बाजी मार ली थी। इसी कंपनी ने बाद में स्नान के लिए हमाम साबुन का निर्माण किया और विशेष रूप से दीपावली के अभ्यंग स्नान हेतु ‘मोती साबुन’ का निर्माण किया।
महाराष्ट्र में दीपावली के दिवस ब्रह्म मुहूर्त में अभ्यंग स्नान के समय ‘मोती साबुन’ के उपयोग की विशेष परंपरा है।
दीपावली के दिवस विशेष पर इस प्रसंग को लिखकर देश में साबुन उत्पादन के इतिहास के संबंध में जानकारी देना अपने आप में ‘आत्मनिर्भर’ भारत की अलौकिक दास्तान है।
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