ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
चलते–चलते. . . .
(टीम खोज–विचार की पहेल)
मेरे अपने: वृक्ष
हमारी गृह निर्माण संस्था (सेंट्रल पार्क सोसाइटी कम्प पुणे) के परिसर में सुशोभित वृक्ष निश्चित ही मुझे ‘मेरे अपने’ से प्रतीत होते हैं, शायद इन वृक्षों से मेरा पारिवारिक संबंध है या यूं कह लें कि रक्त का रिश्ता है। एक कतार में खड़े यह लहराते हुए वृक्ष मानों जैसे आसमान के तारों को चूमना चाहते हैं। प्रत्येक होनी–अनहोनी घटना के साक्षात्कार है यह वृक्ष! प्रत्येक वृक्ष का अपना जीवन है, अपना इतिहास है और अपनी एक कहानी हैं, अपना एक अतीत हैं। इन वृक्षों को गुरुवाणी में मानव के समान माना गया है, जिसे गुरुवाणी में इस तरह से अंकित किया गया है—
जा के रुख बिरख आराउ॥
(अंग क्रमांक 25)
अर्थात् जिस अकाल पुरख के रचित यह पेड़–पौधे है, वह ही उन्हें संभालता और संवारता है।
वृक्षों के साये में प्रकृति के इन नजारों का अवलोकन करना अपने आप में एक अलौकिक अनुभव है। नित्य नई बदलती प्राकृतिक घटनाओं को निहारने वाले यह वृक्ष, जैसे हम से बात कर कुछ कहना चाहते हैं। इनकी देह–बोली और विशाल–विविधता से हम इनके अंतर्मन को समझने का प्रयास निश्चित ही कर सकते हैं।
छोटे–बड़े पेड़, पौधे और विशालकाय विराट वृक्षों से हम निश्चित ही एक अनुबंध का नाता जोड़ सकते हैं। जैसे कि कुछ वृक्षों पर पुत्रों के समान प्यार उमड़ता है और कुछ विशालकाय वृक्षों की ओट मां की गोद का आनंद देती है। कुछ खिलखिलाते और नृत्य करते हुये वृक्ष बहू–बेटियों के समान सुख का अहसास करवाते हैं और कुछ शक्तिशाली वृक्षों का आधार बड़े भाइयों के कंधों जैसा होता है। वृक्षों पर लगे फल, फूल और पत्तियां निश्चित ही प्रभु–परमेश्वर की महिमा का स्मरण करवाते है। वृक्षों से प्राप्त अनेक वस्तुएं सचमुच परिवार की दादी की याद दिलाती है, कुछ वृक्ष निस्वार्थ दोस्तों की तरह है, जिन्हें गले लगा कर चूमने का मन करता है और जीवन में एक वृक्ष ऐसा भी होता है जहां प्रत्येक व्यक्ति अपनी महबूबा के साथ सुख–दुख की बात करता है। कुछ वृक्ष इतने उबदार होते हैं कि उन्हें कंधों पर उठाकर खिलाने का मन करता है। साथ ही कुछ वृक्षों पर तो इतना स्नेह उमड़ता है कि दिल करता है मेरा अंतिम समय इनकी आगोश में हो, जब कुछ वृक्ष साथ खड़े होकर तेज हवाओं में झूमते हैं तो ऐसा प्रतीत होता कि यह सब मेजबानी कर रहे हैं। प्रत्येक वृक्ष की अपनी–अपनी एक प्यार वाली देहबोली है, जिन्हें कलम की सहायता से क़ाग़ज पर उतारा जा सकता है। इन वृक्षों के जीवन को देखते हुए मन करता है कि मैं भी एक बार पुन: वृक्षों की योनि में जन्म लेकर इस सुख को पाओं। गुरुवाणी का फरमान है—
केते रुख बिरख हम चीने केते पसू उपाए॥
(अंग क्रमांक 156)
अर्थात् इस मनुष्य जीवन को पाने से पूर्व हमने अनेक जन्मों में वृक्षों और पशुओं की योनि में जन्म लिया है। शायद इसीलिये इंसान इन वृक्षों और पशुओं से विशेष स्नेह संबंध रखता है।
यदि हमें प्रभु–परमेश्वर के गीतों सुनना है तो इन वृक्षों के गीतों में उन्हें सुना जा सकता है। वृक्ष तो हमारी मांओं के जैसे हैं, जिन्होंने स्वयं कड़ी धूप सहकर, हमें अपनी ममतामयी छांव प्रदान की है। प्राकृतिक रूप से इन वृक्षों की ममतामयी छवीं हमें दिखाई पड़ती है, जिसे गुरुवाणी में इस तरह से अंकित किया गया है—
सारु महला 5
बिरखै हेठि सभि जंत इकठे॥
(अंग क्रमांक 1019)
अर्थात् गौ धूलि बेला के पश्चात आकाश में विचरण करते हुए पक्षी जब विश्राम करने हेतु वृक्षों पर स्थित अपने घोंसलों पर ठीक उसी प्रकार से इकट्ठा होते है जैसे कि इस जगत के नीले गगन रूपी वृक्ष के तले सभी जीव इकट्ठे हो जाते है। गुरुवाणी का यह भी फरमान है कि पक्षियों के ना तो अपने घर है और ना ही उनके पास धन है, पक्षियों को जीने के लिये जल और वृक्षों का ही सहारा है, पक्षियों का जीवन वृक्षों पर ही निर्भर करता है, जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है
परंदए न गिराह जर॥
दरखत आब आस कर॥
(अंग क्रमांक 144)
ईश्वर की बनाई हुई इस प्रकृति ने हमें वृक्षों के रूप में ‘मेरे अपने’ बनकर मानवी जीवन को बहुत बड़ा आधार दिया है। निश्चित ही हमें इन ‘मेरे अपनों’ की देखभाल और सेवा करनी चाहिये। वृक्षों का निश्चित हमारे सामाजिक रिश्तो में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। मानवी जीवन मूल्यों का वृक्षों के साथ अत्यंत गहरा रिश्ता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारी ज़िंदगी का अविभाज्य भाग है यह ‘मेरे अपने’! जो केवल देते ही देते हैं। वह वृक्ष ही हैं जो हमें अन्न, आयुर्वेदिक औषधियां, फल, फूल ईंधन जैसे संसाधनों को उपलब्ध कराते हैं। इन्हीं वृक्षों पर पक्षी अपने सुंदर घोंसले बनाकर निवास करते है। इन वृक्षों की छांव में राहगीर दम लेकर विश्राम करते हैं। हमारी सभी ज़रूरतों को पूरा करने के पश्चात यहीं वृक्ष पर्यावरण को संतुलन बनाने में अपनी विशेष भूमिका निभाते हैं| यह वह ‘मेरे अपने’ हैं, जिन्होंने जीवन में केवल दिया ही दिया है। इन वृक्षों को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में गुरु के समतुल्य दर्जा दिया है, जिसे गुरुवाणी में इस तरह से अंकित किया है–
नानक गुरु संतोखु रुखु धरमु फुलु फल गिआनु॥
(अंग क्रमांक 147)
अर्थात् है नानक! गुरु संतोष रूपी वृक्ष है, इस वृक्ष को धर्म रूपी फुल लगता है और ज्ञान रूपी फल लगते है।
इस संबंध में गुरुवाणी का यह भी फरमान है
सफलिओ बिरखु हरीआवला छाव घणेरी होइ॥
(अंग क्रमांक 59)
अर्थात् सच्चा गुरु हरे–भरे फल प्रदान करने वाला छायादार पेड़ के समान होता है। इन वृक्षों से हमें मौलिक शिक्षा प्राप्त होती है, जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है–
सफलिओु बिरखु हरि कै दुआरि॥
(अंग क्रमांक 1173)
अर्थात् हमारा तन रूपी वृक्ष तो ही सफल है जब वह प्रभु–परमात्मा के द्वार पर वृक्ष की तरह स्थिर होता है। वृक्षों के द्वारा हमें एकता में अनेकता का अतिशय अनोखा ज्ञान प्राप्त होता है, गुरुवाणी की कुंजी अर्थात् भाई गुरदास जी की वारां में इसे इस तरह अंकित किया गया है–
9 : अनेकता विच एकता
बिरखु होवै बीउ बीजीऐ करदा पासारा॥
जड़ अंदरि पेड बाहरा बहु डाल बिसथारा॥
पत फुल फलीदा रस रंग सवारा॥
फल विचि बीउ संजीउ होइ फल फलों हजारा॥
वासु निवासु उलासु करि होइ वड परवारा॥
आपे आपि वरतदा गुरमुखि निसतारा॥
(वारां भाई गुरदास जी)
अर्थात् एक विशालकाय वृक्ष की जड़ें ज़मीन के भीतर होती है और वृक्ष ज़मीन के ऊपर अपनी अनेक शाखाओं के साथ विस्तृत होता है। वृक्षों पर ही अनेक प्रकार के फल–फूल लगते हैं और यह वृक्ष रस के रंग से सराबोर होता है। इन फल और फूलों में अनेक प्रकार की खुशबू उत्पन्न होती है, इस प्रकार से एक विशाल वृक्ष, अनेकता में एकता रूपी बड़ा परिवार हो जाता है। इन वृक्षों के फलों में बीज पकते हैं और इनके एक बीज से हजारों फलों का जन्म होता है, यह पूरी प्रक्रिया ईश्वर का अद्भुत चमत्कार है। स्पष्ट है कि एक प्रभु–परमेश्वर ही गुरमुखों का जीवन निस्तार सकता है।
अफसोस! मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए हमें ऑक्सीजन प्रदान करने वाले इन ‘मेरे अपने’ वृक्षों का समूल नष्ट कर देता है। प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने हेतु हमें वृक्षों के साथ ‘मेरे अपने’ होकर पारिवारिक रूप से घनिष्ठ रिश्ते बना लेना चाहिये। इस धरती मां को प्रसन्न और प्रफुल्लित करने हेतु हमें ‘मेरे अपनों’ की तादाद दिन दूनी–रात चौगुनी बढ़ानी होगी।
नोट 1. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।
2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।
साभार— लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज–विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।
000