ੴ सतिगुर प्रसादि॥
प्रासंगिक–साधु वासवानी जी के जन्मोत्सव पर विशेष–
(अद्वितीय सिख विरासत/गुरबाणी और सिख इतिहास,)
(टीम खोज–विचार की पहेल)
महान परोपकारी संत: साधु वासवानी जी
साधु थावरदास लीलाराम वासवानी जी एक महान कवि, लेखक, देशभक्त, समाज सुधारक, शिक्षाविद, लोकनायक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, परोपकारी और ब्रह्मज्ञानी ऐसी अनेक प्रतिभा से संपन्न साधु हुए हैं। आप का जीवन शक्ती, शील, सहजता, पराक्रम और ज्ञान का मनोहारी चित्रण था, आप जी का आविर्भाव पिता लीलाराम वासवानी के गृह में माता वरान देवी की कोख से 25 नवंबर सन 1879 ई. में हैदराबाद (सिंध, पाकिस्तान) में हुआ था| साधु वासवानी जी ने लोक-कल्याण, परोपकार और शाकाहार के प्रचार-प्रसार के लिए पूरे भारतवर्ष ही नहीं अपितु देश-विदेश में यात्राएं और सत्संग किए थे| साधु वासवानी जी के दिग्विजय व्यक्तित्व ने गुरबाणी आधारित धर्म का प्रचार कर, आम जन-समुदाय में सामाजिक, राजनीतिक एवं आध्यात्मिक चेतना जागृत की थी| साथ ही आप जी ने इस देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भी विशेष योगदान देकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंक कर आम जन समुदाय में देशभक्ति को कूट-कूट कर भर दिया था|
निश्चित ही आप जी के गुरबाणी आधारित जीवन का सारांश बहुपक्षीय, संपूर्ण, महान और मुकम्मल है| सामाजिक, धार्मिक और नैतिक तौर पर मुकम्मल व्यक्तित्व को ही पूर्ण संत माना जाता है| साधु वासवानी जी का जीवन निश्चित ही चलती फिरती प्रयोगशाला था| वर्तमान और भविष्य के समय में भी निश्चित ही उनकी जीवन यात्रा आम जन-समुदाय के लिए उत्तम प्रेरणा का कार्य करेगी| साधु वासवानी जी का जीवन गुरबाणी पर आधारित, इस देश की आध्यात्मिक विरासत ही नहीं था अपितु मानव जाति को प्राप्त परमात्मा का वरदान था|
बचपन से ही आप धार्मिक और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के बुद्धिमान बालक थे आपके जीवन पर माता वरान देवी का अत्यंत प्रभाव था| माता जी स्वयं धार्मिक वृत्ति की कुशल ग्रहणी थी| साधु वासवानी जी को अपनी माता जी से विरासत में गुरबाणी और गुरबाणी आधारित जीवन के संस्कार प्राप्त हुए थे| आप जी की माता जी ने गुरबाणी के सभी पाठ बचपन से ही कंठस्थ करवा दिए थे| माता वरान देवी ने बाल थावरदास को बालकाल्य से ही गुरबाणी आधारित जीवन की शिक्षा प्रदान की थी| गुरबाणी की शरण में आते ही आप को ऐसे आभास हुआ की जैसे हिमालय पर्वत के समीप जाने से स्वयं ठंडक प्राप्त होती है, जैसे दिये के समीप जाने से स्वयं प्रकाश की प्राप्ति होती है और जैसे खिले हुए फूलों के समीप जाने से खुशबू की प्राप्ति होती है| एक जुड़ी हुई आत्मा, एक रसिक आत्मा, एक शीतल आत्मा के समीप जाकर और उनका सानिध्य प्राप्त किया जाये तो स्वयं से शीतल होकर ह्रदय को असीम शांति प्राप्त होती है और ‘श्री गुरु नानक साहिब जी’ के सुंदर उपदेश एवं वाणीयों को श्रवण करने पर आप को असीम शांति प्राप्त हुई थी एवं आप ने अपने शेष जीवन को ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की सेवा में समर्पित कर दिया था। आप जी ने गुरबाणी से सिख ली थी कि–
सलोक म: 1||
बाबाणीआ कहाणीआ पुत सपुत करेनि||
जि सतिगुर भावै सु मंनि लैनि सेई करम करेनि|| (अंग क्रमांक 951)
अर्थात् पूर्वजों के किस्से-कहानियां पूत को सपूत करते हैं उनके भविष्य के लिए जो सद्गुरु जी को उपयुक्त लगता है उसे मानकर फिर वह ही कर्म वह स्वयं अपने जीवन में करते हैं|
गुरबाणी के उपरोक्त फ़रमान अनुसार बालक थावरदास के हृदय में विरक्ति का भाव जागृत हो गया और वह अपने अन्य मित्रों और सहपाठियों से अलग विस्मय बोध में आकर उन्होंने अपनी जीवन यात्रा को प्रारंभ किया था|
शिक्षा-दीक्षा एवं मातृ भक्ति–
आप की उच्च शिक्षित थे आप जी ने एम. ए. तक की शिक्षा प्राप्त की थी| आप जी अत्यंत मेधावी और कुशाग्र बुद्धि के छात्र थे| आप जी ने अपने विद्यार्थी जीवन में ज्ञान अर्जित करने के साथ-साथ आध्यात्मिक की शिक्षाएं भी अर्जित की थी| गुरबाणी के फ़रमान अनुसार विरासत में ही आप जी को गुण मिले थे–
विदिआ विचारी ताँ परउपकरी।। (अंग क्रमांक 356)
अर्थात यदि विद्या का विचार-मनन किया जाए तो ही परोपकारी बना जा सकता है।
गुरबाणी के उपरोक्त फ़रमान अनुसार आपने, अपने जीवन को, विद्यार्थी जीवन से ही परोपकार के लिए समर्पित कर दिया था| इसका उत्तम उदाहरण उनकी जीवन यात्रा से प्राप्त होता है, जब एक बार उन्हें परीक्षा परिणाम के बाद प्रथम स्थान प्राप्त हुआ और जब उन्होंने अपने अंको को जोड़ा तो जो विद्यार्थी द्वितीय स्थान पर आया था उससे उनके अंक कम थे तो उन्होंने तुरंत इसकी जानकारी अपने शिक्षक को दी एवं शिक्षक को उसकी त्रुटि की जानकारी देकर, सच्चाई के मार्ग पर चलकर, आप जी ने अपने परोपकारी जीवन को प्रदर्शित किया था| आप जी को उसे समय की प्रतिष्ठित एलिस स्कॉलरशिप प्राप्त थी| अपनी शिक्षा के साथ-साथ अनेक धार्मिक ग्रंथो का भी आप जी ने गहराई से अध्ययन किया था| अपनी शिक्षा समाप्त होने के पश्चात आप जी ने कोलकाता के मेट्रोपोलिटन कॉलेज में इतिहास और दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक के रूप में नौकरी को स्वीकार कर लिया था| सन 1908 ईस्वी. में आप को डी. जे. साइंस कॉलेज कराची में अंग्रेजी और दर्शनशास्त्र के वरिष्ठ प्राध्यापक के रूप में नियुक्त किया गया था| सन 1910 ईस्वी. में विश्व धर्म वर्ल्ड कांग्रेस के सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए आप जी बर्लिन (जर्मनी) में गए थे| इस धर्म सम्मेलन में भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक पर आपका रोमांचकारी भाषण सुनकर उपस्थित विद्वान अचंभित हो गए थे| उस समय ऐसे ही एक धर्म सम्मेलन में 17 वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद जी ने के द्वारा दिए गए भाषण को सभी उपस्थित विद्वानों ने याद किया था|विदेश यात्राओं से आने के पश्चात लाहौर के प्रसिद्ध दयाल सिंह महाविद्यालय में अपने प्रधानाचार्य के रूप में अपनी सेवाएं समर्पित की थी| इस महाविद्यालय में नौकरी करते हुए आप जी को सर्व सुविधा संपन्न बंगला एवं नौकर-चाकरों की फौज मिली थी परंतु आप की सादगी के साथ इस बंगले में रहते थे, यहीं पर उन्होंने जात-पात और ऊंच-नीच का विरोध किया था|इसका प्रत्यक्ष उदाहरण इस घटना से ज्ञात होता है कि आप जी प्रत्येक रविवार को अपने समस्त कर्मचारी और सेवक वर्ग को स्वयं के निवास स्थान पर आमंत्रित कर, स्वयं भोजन तैयार कर उन्हें अपने साथ टेबल पर बैठाकर भोजन करवाते थे| आप जी अपने सभी कर्मचारियों को इंसानियत का पाठ पढ़ा कर, उंच-नीच से मुक्त जीवन जीने के लिए प्रेरित करते थे| साथ ही आप स्वयं भी गुरबाणी के फ़रमान अनुसार उसका अनुपालन करते थे और हमेशा भक्त कबीर जी के द्वारा रचित गुरबाणी के इस फ़रमान से गुरुओं की महिमा का गायन करते थे, जो कि इस प्रकार से है—
अवलि अलह नूरु उपाइआ क़ुदरति के सब बंदे॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे॥
(अंग क्रमांक 1349)
अर्थात वह ऊर्जा जो अति सूक्ष्म तेजोमय, निर्विकार, निर्गुण, सतत है और अनंत ब्रह्मांड को अपने में समेटे हुए हैं। किसी भी तंत्र में उसके लिये एक सिरे से उसमें समाहित होती है और एक या ज्यादा सिरों से निष्कासित होती है। जिस एक नूर से सृष्टि की उत्पत्ति हुई वह हीं प्रभु–परमेश्वर और अल्लाह है। हम सभी उसी के बंदे हैं| इसलिए हम अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? कुछ समय पश्चात आप जी कुच बिहार के विक्टोरिया कॉलेज में प्रधानाचार्य के रूप में नियुक्त हो गए थे| इस स्थान पर आप जी को अत्यंत ख्याति प्राप्त हुई थी और इसी स्थान पर साधु वासवानी जी का संबंध स्थानिय सिख संगत से हुआ था| यहीं पर आप जी ने गुरबाणी और 10 गुरुओं पर लगातार प्रवचन कर, सिख धर्म के अनुयायीओं एवं आम जनता को सिख धर्म, गुरबाणी एवं अन्य धर्मों से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया था| साथ ही आप जी भागवत् गीता एवं अन्य धर्म ग्रंथो पर भी उत्तम प्रवचन करते थे|आपकी ख्याति सुनकर महाराजा पटियाला ने कुच बिहार के महाराजा से निवेदन कर, साधु वासवानी जी को उनके महिंद्रा कॉलेज में प्रधानाचार्य के रिक्त पद पर नियुक्त करने की इच्छा जाहिर की थी| पटियाला के महाराज की इच्छा का सम्मान कर, साधु वासवानी जी ने महिंद्रा महाविद्यालय के प्रधानाचार्य के रूप में अपना पदभार स्वीकार किया था, इस स्थान पर आप जी को सर्व सुविधाओं से युक्त एक बड़ा बंगला निवास के लिए मिला था| महाराजा पटियाला आपके सादगी भरे जीवन से अत्यंत प्रभावित थे| महाराजा पटियाला हमेशा आप जी को मान-सम्मान, आदर-सत्कार देकर सम्मानित करते थे| उस समय सन 1918 ईस्वी में जब देश में प्लेग की महामारी फैली थी तो उन्हें जब यह सूचना मिली की उनकी अपनी मां इस बिमारी से संक्रमित हो गई है तो मां के बीमारी की सूचना मिलते ही वह तुरंत अपनी मां की सेवा-सुश्रुषा करने हैदराबाद (पाकिस्तान) पहुंच गए थे कारण आप जी का अपनी माता जी से अत्यंत स्नेह था माता वरान देवी ने ही उनको गुरबाणी आधारित जीवन की शिक्षाएं प्रदान की थी| उस समय आप जी ने प्लेग के रोग से पीड़ित अपनी मां की दिन-रात सेवा की थी एवं माँ का भय दूर करने के लिए एक बार उनका झूठा पानी पी लिया था, तब उनकी माताजी ने पानी का वह गिलास उनसे खींच लिया था| उस समय साधु वासवानी जी को स्वयं के संक्रमित होने का भय नहीं था| उस समय वह चाहते थे कि उनकी माँ की जीवन के प्रति आशा निर्माण हो सकें| साधु वासवानी जी के परिवार में उनके पिता का देहांत सन 1890 ई. में हो चुका था, उस समय माँ को केवल उनका ही सहारा था| आप जी की माता जी जब जीवन की अंतिम सांस ले रही थी तो उन्होंने अपनी माँ से मन से माफी मांगी थी कारण आप जी अपने भविष्य के जीवन में गृहस्थ जीवन से दूर रह ब्रह्मचारी रहना चाहते थे| माता वरान देवी अपने बेटे की मातृभक्ति को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई थी एवं वह जान चुकी थी कि उनका बेटा महान, परोपकारी संत है और उन्होंने युवा थावरदास को ब्रह्मचारी रहकर जीवन व्यतीत करने के लिए अपने आशीर्वाद दिए थे, उस समय उन्होनें कहा था कि, बेटा तुम नहीं जानते कि तुमने मुझे अत्यंत सुख और आराम दिया हैं, मैं तुम्हें भविष्य के जीवन के लिए हृदय से आशीर्वाद देती हूं| आप जी ने गुरबाणी के फ़रमान का अनुपालन किया था, मातृ भक्ति के लिए गुरबाणी का फ़रमान है—
पूता माता की आसीस॥
निमख न बिसरउ तुम् हरि हरि सदा भजहु जगदीस॥रहाउ॥
सतिगुरु तुम् कउ होइ दइआला संतसंगि तेरी प्रीति॥
कापड़ु पति परमेसरु राखी भोजनु कीरतनु नीति॥
अंम्रितु पीवहु सदा चिरु जीवहु हरि सिमरत अनद अनंता॥
रंग तमासा पूरन आसा कबहि न बिआपै चिंता॥
भवरु तुमा्रा इहु मनु होवउ हरि चरणा होहु कउला॥
नानक दासु उन संगि लपटाइओ जिउ बूंदहि चात्रिकु मउला॥
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी अंग क्रमांक 496)
अर्थात यदि आप के शीश पर माता–पिता का आशीर्वाद होगा तो आप कभी भी एक पल के लिए भी प्रभु–परमेश्वर को नहीं भूलोगे और हमेशा ही सृष्टि के स्वामी का सिमरन और ध्यान करते रहोगे। माता–पिता के आशीर्वाद से ही सच्चे गुरु मेहरबान होते हैं और साध–संगत की सेवा का अवसर प्राप्त होता है। माता–पिता के आशीर्वाद से ही प्रभु तुम्हारी इज्जत–आबरू को नग्न होने से एक कपड़े की पोशाक की तरह से बचाता है। साथ ही उस अकाल पूरख का यशगान करना तुम्हारी प्रतिदिन की खुराक बन जाती है। माता–पिता के आशीर्वाद से ही आप उस अकाल पूरख के नाम का सुधारस पान करते हैं। माता–पिता के आशीर्वाद से ही आपको दीर्घायु प्राप्त होती है और उनके आशीर्वाद से ही ईश्वर भी आपको अनंत खुशियां प्रदान करता है। इन्हीं के आशीर्वाद से तुम्हारे जीवन में खुशियों के रंग भर जाते हैं एवं तुम्हारी प्रत्येक उम्मीदें और आशाएं पूर्ण होती है। इन्हीं के आशीर्वाद से तुम चिंता मुक्त होकर जीवन जी सकते हो, माता–पिता के आशीर्वाद से ही आप विनम्र होकर, भरोसे से जीवन जी सकते हैं एवं ईश्वर के चरण आपके लिए कमल के फूलों की तरह हो जाएंगे। गुरवाणी के इस पद्य से नानक दास जी उपदेशित करते हुए वचन करते हैं कि अपने मन को उस अकाल पुरख की प्रीत से ऐसा जोड़ो जैसे जब पपीहा को वर्षा ऋतु में बारिश के पानी की बूंद प्राप्त होती है तो वो खुशी से हर्षोल्लास में सराबोर होकर आनंद प्राप्त करता है।
माता–पिता का आशीर्वाद अपने बच्चों पर इस तरह से होता है जैसे कि–
“भोर के पारिजात फूलों की खुशबू और रातरानी के फूलों की खुशबू का अनोखा मिलाप अभिभूत करता हो”।
अंत में माता–पिता के आशीर्वाद से ही जीवन में समस्त खुशियों का आगाज़ होता है। जिसे गुरबाणी में इस तरह से अंकित किया गया है–
लख खुसीआ पातिसाहीआ जे सतिगुरु नदिर करेइ॥
निमख एक हरि नामु देइ मेरा मनु तनु सीतलु होइ॥
जिस कउ पूरबि लिखिआ तिनि सतिगुरु चरन गहे॥
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी अंग क्रमांक 44)
अर्थात् जब माता–पिता के आशीर्वाद से गुरु की कृपा होती है तो वो लाखों खुशियां झोली में भर देता है और जब हम उस अकाल पुरख परमात्मा को याद करते हैं तो मन और तन शीतल हो जाता है। माता–पिता के आशीर्वाद से जो गुरु चरणों में जुड़े रहते हैं वो सभी दुख–क्लेशों से मुक्त रहते हैं।
शाकाहार आंदोलन के जननायक—
साधु वासवानी जी बचपन से ही शुद्ध शाकाहारी थे और आप जी देश-विदेश में देशाटन कर आम जन समुदाय में शाकाहार का प्रचार करने के लिए हमेशा अग्रणी रहते थे| आप जी ने अपने जीवन काल में लाखों लोगों को शाकाहार की ओर प्रेरित किया था| आप जी ने बचपन से ही गुरबाणी के निम्नलिखित फ़रमान को आत्मसात किया हुआ था—
कबीर जीअ जु मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु॥
दफतरु दई जब काढि है होइगा कउनु हवालु॥
कबीर जोरू कीआ सो जुलमु है लेइ जबाबु खुदाइ॥
दफतरि लेखा नीकसै मार मुहै मुहि खाइ॥ (अंग क्रमांक 1375)
अर्थात कबीर जी वचन करते हैं कि जो लोग बलपूर्वक जीव-हत्या करते हैं और उसको हलाल करते हैं, ऐसे लोगों का तब क्या हाल होगा, जब खुदा की अदालत में कर्मों का हिसाब मांगा जाएगा| कबीर जी कहते हैं कि किसी पर जोर-जबरदस्ती करना जुल्म है, इसका जवाब खुदा अवश्य मांगेगा। जब खुदा के दरबार में कर्मों का हिसाब होगा तो बुरे कर्मों की सजा अवश्य मिलेगी|
बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै॥
जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै॥
मुलाँ कहहु निआउ खुदाई॥ तेरे मन का भरमु न जाई॥
पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ॥ (अंग क्रमांक 1350)
अर्थात वेदों एवं कुरान को झूठा मत कहो! दरअसल झूठा वो ही है जो इन ग्रंथों का चिंतन नहीं करता। तुम्हारा कहना है कि सब में एक खुदा ही मौजूद है तो फिर मुर्गी को क्यों मार रहे हो? हे मुल्ला! मुझे बताओ, क्या यह खुदा का इंसाफ है, तुम्हारे मन का भ्रम अभी दूर नहीं हुआ॥रहाउ॥ जीव (मुर्गी) को पकड़ कर लाया, शरीर को नाश कर दिया, जीव की मिट्टी को खत्म कर दिया। जीव की ज्योति ईश्वर में ही मिल जाती है, फिर हलाल क्या किया? इस तरह से साधु वासवानी जी अपने प्रवचनों में निम्नलिखित गुरबाणी का उच्चारण हमेशा किया करते थे—
बेदु पड़ै मुखि मीठी बाणी॥
जीआँ कुहत न संगै पराणी॥ (अंग क्रमांक 201)
अर्थात मनुष्य अपने मुख से मधुर स्वरों में वेदों का पाठ करता है और यह नश्वर मनुष्य जीव-जंतुओं को मारने में संकोच नहीं करता है| आप जी हमेशा अपने प्रवचनों में कहते थे मांसाहार करना मतलब क्रूरता में आनंद मानना है और क्रूरता हमारे हृदय को कठोर बना देती है| हमारे सोचने-समझने की शक्ति को अंधा कर देती है| आप जी हमेशा कहते थे कि पक्षियों और जानवरों से प्रेम न करना, प्रभु-परमेश्वर से प्रेम न करने के समान है| साधु वासवानी जी की मीठी स्मृति में साधु वासवानी मिशन की ओर से पूरे विश्व में 25 नवंबर के दिवस को ‘शाकाहार दिवस’ के रूप में मनाया जाता है| इस दिवस को मिशन के लाखों अनुयायी मिलकर मनाते हैं ओर शाकाहार का प्रचार-प्रसार करते हैं| निश्चित ही इस देश में साधु वासवानी जी शाकाहार के जननायक थे|
प्रार्थना की शक्ति–
साधु वासवानी जी की माता वरान देवी गुरबाणी की खुमारी में रहकर निरंतर सतनाम-वाहिगुरु के नाम का जाप करती थी| आप जी ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की भक्ति में हमेशा लीन रहती थी| आप जी ने अपने बच्चों को गुरबाणी की शिक्षाओं से अवगत कराया था, इसी कारण से बालक थावरदास बाल्यकाल से ही गुरबाणी और ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की भक्ति में लीन हो गए थे और हमेशा सतनाम-वाहिगुरु के नाम का जाप करते थे| आप जी की सिख गुरुओं और उनकी शिक्षाओं पर गहरी आस्था थी| आप जी ने गुरबाणी और ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के जीवन चरित्र पर कई आध्यात्मिक लेख एवं पुस्तकें लिखी थी| उनके प्रमुख प्रवचनों का विषय हमेशा गुरुओं के जीवन चरित्र से संबंधित होता था| आप जी की कुटिया में ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ का चित्र लगा हुआ था और आप जी हमेशा उस चित्र को श्रद्धा से बार-बार निहारत थे एवं ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के प्रकाश पर्व पर ‘मोदी खाना’ खोलकर आवश्यक वस्तुओं की बिक्री योग्य दर पर स्वयं के कर-कमलों से करते थे, आप जी हमेशा ही अपनी आस्थाओं को ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के प्रति प्रकट करते थे| आप जी की अरदास/प्रार्थना पर अत्यंत श्रद्धा और आस्था थी, लोगों का दुख-दर्द दूर करने हेतु आप जी हमेशा अरदास/प्रार्थना करते थे और जब आपकी अरदास मुकम्मल हो जाती तो आप जी ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की तस्वीर की तरफ देखकर मुस्कुरा देते थे कारण आप जी का अरदास/प्रार्थना के ऊपर अटूट विश्वास था| आप जी हमेशा अपने प्रवचनों में वचन करते थे कि हमें गुरबाणी का सहारा लेकर ‘अरदास’ पर पूर्णतया भरोसा करना चाहिए। गुरबाणी में अंकित है–
तीने ताप निवारणहारा दुख हंता सुख रासि।
ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जा की प्रभ आगै अरदास॥ (अंग क्रमांक 714)
तीने ताप अर्थात् यानी की यदि हम विश्वास पूर्वक ‘अरदास’ करें तो तन के, मन के और बाहर के दुख तुरंत दूर हो जाते हैं।
स्त्री सम्मान —
यदि किसी देश धर्म या कौम के इतिहास को परिपेक्ष करना हो तो उसका आधार उस स्थान पर विकसित समाज पर निर्भर करता है और उस समाज का आधार होता है उस स्थान पर निवास करने वाले परिवार, एवं परिवार का आधार परिवार के व्यक्तियों पर निर्भर करता है। किसी व्यक्ति के सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर होती है बचपन में प्राप्त हुई मां की गोद! मां से प्राप्त संस्कारों से ही व्यक्ति एक उत्तम नागरिक में परिवर्तित होता है। बचपन में मां से प्राप्त संस्कार, भविष्य के संपूर्ण जीवन की रूपरेखा होते हैं।
यदि सिख धर्म के इतिहास का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि सिख धर्म के प्रथम गुरु ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने स्त्रियों को सम्मानित करते हुए बराबरी का दर्जा प्रदान किया है और तो और उस अकाल पुरख (परमपिता–परमेश्वर) के पश्चात स्त्री को ही सर्व श्रेष्ठ माना है। ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने अपनी वाणी में अंकित किया है–
महला 1॥
भंडि जंमीऐ भंडि निंमिऐ भंडि मंगणु वीआहु॥
भंडहु होवै दोसती भंडहु चलै राहु॥
भंडु मुआ भंडु भालीऐ भंडि होवै बंधानु॥
सो किउ मंदा आखिऐ जितु जंमहि राजान॥
भंडहु ही भंडु ऊपजै भंडै बाझु न कोइ॥
नानक भंडै बाहरा एको सचा सोइ॥
जितु मुखि सदा सालाहीऐ भागा रती चारि॥
नानक ते मुख ऊजले तितु सचै दरबारि॥
(अंग क्रमांक 473)
अर्थात उपरोक्त रचित ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के सबद (पद्य) का ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने आसा राग में उच्चारण कर वचन किए हैं कि, स्त्री अत्यंत महान है। सांसारिक रिश्तेदारी भी स्त्री से ही प्रवाह मान होती है। इसलिए स्त्री को कमजोर क्यों माना जाए? जिस स्त्री ने बड़े-बड़े राजा और महापुरुषों को जन्म दिया, वह स्त्री मंदा (कमजोर, छोटी या बुरी) कैसे हो सकती है? स्त्री से ही स्त्री जन्म प्राप्त करती है। स्त्री के बिना जीवन अधूरा है केवल अकाल पुरख परमात्मा ही अजूनी है। अर्थात् जो स्त्री की कोख से जन्म प्राप्त नहीं करता है। गुरबाणी के इन्हीं आदर्शों को समक्ष रख कर साधु वासवानी जी ने 4 जून सन 1933 ई को संत मीरा स्कूल कन्या शाला की नींव रखी थी| मात्र दो पैसे के सिक्के से प्रारंभ हुए इस विद्यालय में हजारों विद्यार्थियों ने शिक्षा ग्रहण की है, वर्तमान समय में भी इस विद्यालय की 18 शाखाएं हैं और इन विद्यालयों में हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन सफल कर रहे हैं| इन विद्यालयों में विद्यार्थियों को सादगी से रहना और खाने की शिक्षा सिखाई जाती है| साथ ही गुरबाणी और अन्य धार्मिक विषयों की शिक्षाएं और साधु वासवानी जी के आदर्शों पर चलने की भी शिक्षाएं इन विद्यार्थियों को प्रदान की जाती है।आप जी ने सन 1929 ईस्वी में ही स्त्रियों को सेवा, सिमरन और त्याग की भावनाओं से ओतप्रोत करने हेतु ‘सखी सत्संग’ की सेवा प्रारंभ की थी| इस सेवा में उस समय प्रातः काल 6:00 बजे सखियां इस सत्संग में शामिल होने के लिए प्रभात फेरी के रूप में सत्संग स्थल पर पहुंचती थी| निश्चित रूप से इस सत्संग का उद्देश्य सांसारिक कर्मों से ऊपर उठकर जीवन के परम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रभु-परमेश्वर की साधना करना था| समय के अनुसार ‘सखी सत्संग’ की बहनों ने ‘संतमाला’ नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारंभ किया था| इस पत्रिका में संतों के जीवन, गुरबाणी गुरुओं के चरित्र और उनकी शिक्षाओं पर साधु वासवानी द्वारा रचित लेख प्रकाशित किए जाते थे| इसी ‘सखी सत्संग’ की बहनों ने ही ‘सेंट मीरा हाई स्कूल’ की कमान भी संभाल ली थी| इस तरह से स्त्रियों के मान-सम्मान के लिए साधु वासवानी जी ने अपना जीवन समर्पित किया था|इसी प्रकार आप जी ने ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के मोदी खाने की संकल्पना को आदर्श मानकर ‘सखी भंडार’ नामक एक दुकान प्रारंभ की थी| जो ‘सखी सत्संग’ की स्त्रियों के द्वारा स्त्रियों के लिए ही चलाई जाती थी| उस समय इस उपक्रम को सभी लोगों ने दिल से स्वीकार किया था|
साधु वासवानी जी के तीन उपदेश—
साधु वासवानी जी अपने अनुयायियों को तीन अत्यंत महत्वपूर्ण उपदेश प्रदान करते थे, जो कि इस प्रकार से हैं-
- प्रभु-परमेश्वर सदैव हमारे साथ हैं। आप जहां भी हो, जो भी काम कर रहे हो, वह परमपिता परमात्मा हमेशा हाजिर-नाजिर हमारे साथ है। आप जी वचन करते थे कि, हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए, हमें क्रोध नहीं करना चाहिए और ना ही किसी इंसान के साथ धोखाधड़ी करना चाहिए। ध्यान रखो! ईश्वर हमेशा हमारे साथ रहते हैं।
- दुनिया में जो भी कुछ होता है, उसमें हमारा हित है। प्रत्येक होने वाली घटना में हमारी भलाई है। यदि हम अपने जीवन को इस नजरिये से देखेंगे तो आने वाली सभी मुश्किलों का सामना करने हेतु हमारे स्वयं के भीतर शक्ति का संचार होगा अन्यथा डर से, भय से हमारे भीतर की शक्ति क्षिण हो जाएगी।
- दीन-दुखियों और पशु-पक्षियों की समर्पित भाव से सेव करें। ऐसे तीन महत्वपूर्ण उपदेश आप जी अपने अनुयायियों को प्रदान करते थे। इन तीन उपदेशों की जानकारी संस्था प्रभारी आदरणीय कृष्णा दीदी ने स्वयं लेखक को अपने व्याख्यान में प्रदान की है। जब इस आलेख के लेखक ने आदरणीय दीदी से पूछा कि सिखों की संस्था ‘पंथ रत्न जत्थेदार गुरचरण सिंह तोहरा इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज इन सिखईस्म बहादुरगढ़ पटियाला’ 147021 के द्वारा प्रयास कर सभी नानक-नाम लेवा संगत को एक मंच पर लाकर एक सूत्र में बांधने का विशेष प्रयास किया जा रहा है तो उन्होंने वचन करते हुए इस सराहनिय प्रयास के लिए संस्था को साधुवाद देते हुए कहा कि, जुड़ना ही चाहिए, वर्तमान समय का माहौल ऐसा हो गया है कि हम सब अलग-अलग हो रहे हैं। निश्चित ही आधुनिक तकनीकी ज्ञान से दूरियां बढ़ रही है और ऐसे प्रयास ही हमें एक ठोस मंच प्रदान करेंगे।
रचनाएं— आप जी के द्वारा गुरबाणी और सिख गुरुओं पर अनेक रचनाओं को रचित किया गया है| आप जी ने जपु जी साहिब, सुखमनी साहिब, जापु साहिब पर विशेष रचनाएं हिंदी/अंग्रेजी और सिंधी भाषा में रचित की है| मिशन के द्वारा चलाये जा रहे गीता पब्लिशिंग हाउस की और से अनेक ग्रंथों का प्रकाशन कर गुरबाणी और सिख गुरुओं के जीवन चरित्र को प्रचारित किया जाता है| आप जी के द्वारा रचित पुस्तक GURU NANAK PROPHET OF PEACE अत्यंत प्रसिद्ध है|
निष्काम सेवा कार्य–
सद्विचारों और उच्च आचरण के पुरुष निष्काम सेवा में समर्पित हो सकते हैं। मानव जीवन के कल्याण हेतु की गई निष्काम सेवा ही प्रभु–परमेश्वर को पर्वान होती है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का फ़रमान है कि—
विचि दुनीआ सेव कमाईऐ॥
ता दरगह बैसणु पाईऐ॥
(अंग क्रमांक 26)
अर्थात इस दुनिया में विचरण करते हुए यदि इंसान निष्काम सेवा की कमाई करता है तो ही उसे प्रभु के दरबार (सचखंड) में आसीन होने का अधिकार प्राप्त होता है।
निष्काम सेवा एक ऐसा कर्म है जिससे शरीर और मन दोनों ही पवित्र होते हैं, निष्काम सेवा को आत्मिक उन्नति की प्रथम सीढ़ी (नसैनी) के रूप में निरूपित किया जा सकता है, निष्काम सेवा से ही आनंद रूपी रस में सराबोर होकर जीवन को सफल किया जा सकता है। लालच और स्वयं के फायदे के लिए की गई सेवा नौकरी या चाकरी होती है। ऐसी सेवाओं से केवल व्यक्तिगत स्वार्थ साध्य होते हैं। प्रत्येक मनुष्य में उस अकाल पुरख की ज्योत का अस्तित्व स्वीकार करके की गई निष्काम सेवा ही आदर्श निष्काम सेवा है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का फ़रमान है कि—
कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु॥
रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु॥
(अंग क्रमांक 1373)
अर्थात कबीर जी उपदेशित करते हैं की, सेवा के लिए दो ही भले हैं, एक संत और एक राम! राम का नाम मुक्ति प्रदान करने वाला है और संत इस मुक्तिदाता के नाम का जाप करवाता है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की इन्हीं बाणियों का ओट-आसरा लेकर साधु वासवानी जी ने अपने जीवन काल से ही इंसानियत और आम जन समुदाय के लोक-कल्याण हेतु अनेक निष्काम सेवा कार्य प्रारंभ कर दिए थे| सन 1929 ई. में स्थापित साधु वासवानी संस्था मानवता के दृष्टिकोण से चलने वाली गैर लाभकारी संस्था है जो स्वयं साधु वासवानी जी के कर-कमलों से स्थापित की गई थी| इस संस्था के माध्यम से सन 1933 ई. में स्थापित शिक्षा संस्थान ने मीरा आंदोलन के माध्यम से विद्यार्थियों में चरित्र-निर्माण और मूल्य-आधारित शिक्षा स्थापित करने में अग्रणी रहा है। वर्तमान समय में देश-विदेश में संस्था के 18 शिक्षण संस्थान विद्यमान हैं| गरीबों और जरूरतमंदों के स्वास्थ की देखभाल हेतु मामूली लागत पर गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सुविधा प्रदान करने के लिए साधु वासवानी मिशन 4 धर्मार्थ अस्पताल सुचारु रूप से संचालित करता है|
1.इनलैक्स और बुधरानी धर्मार्थ अस्पताल,
2.फैबियानी और बुधरानी हार्ट इंस्टीट्यूट
3.मोरभाई नारायणदास कैंसर इंस्टीट्यूट, 4. के.के. नेत्र संस्थान साथ ही 2 रोग निदान केंद्र भी शांति क्लीनिक के नाम से संचालित करता है जो रियायती दरों पर रोगीयों का उपचार करते हैं।
वर्तमान समय में यह सभी निष्काम सेवा कार्य एक वट्ट वृक्ष की भांति समाज में अपनी सेवाएं पूर्ण रूप से समर्पित कर रहे हैं| साधु वासवानी मिशन की ओर से अनेक निष्काम सेवा कार्य प्राथमिक शाला माध्यमिक विद्यालय एवं महाविद्यालय के रूप में देश के विभिन्न शहरों में किये जा रहे हैं, इन शैक्षणिक संस्थाओं का हजारों विद्यार्थी लाभ उठाकर अपना जीवन सफल कर रहे हैं| इन शैक्षणिक संस्थाओं के माध्यम से विद्यार्थियों को सादगी से रहना और खाने की शिक्षा एवं साहसी बनाने का प्रयास किया जाता है| साथ ही गुरबाणी की शिक्षा भी इन विद्यार्थियों को दी जाती है| इसी प्रकार से अस्पताल के माध्यम से अनेक प्रकार की लोकोपयोगी चिकित्सा सुविधा आम जन समुदाय को प्रदान की जा रही है| वर्तमान समय में इन सभी निष्काम सेवाओं का समाज में अतुलनिय योगदान है| जिसके लिए साधु वासवानी मिशन और उनके सेवादार धन्यता के पात्र हैं|
अंतिम यात्रा– अपने संपूर्ण जीवन को लोकसेवा और लोक-कल्याण हेतु समर्पित कर आप की 16 जनवरी सन 1966 ई. को अकाल पुरख के भाणे में ब्रह्मलीन हो गए थे| ऐसे परोपकारी महान संत महापुरुष के लिए गुरबाणी में अंकित है—
गुरमुख पर उपकारी विरला आइआ।
गुरमुख सुख पाइ आप गवाइआ।
गुरमुख साखी शबद सिख सुनाइआ।
गुरमुख शबद विचार सच कमाइआ।
सच रिदै मुहि सच सच सुहाइआ।
गुरमुख जनम सवार जगत तराइआ ॥
(वारा भाई गुरदास जी क्रमांक 19)
निश्चित ही साधु वासवानी जी की गुरबाणी आधारित शिक्षाओं ने समाज के सभी क्षेत्रों में व्याप्त अंधकार को मिटाने के लिये ज्ञान की ज्योति को प्रज्वलित किया है। आप जी के प्रेरणादायक जीवन ने समाज, धर्म, आध्यात्म एवं राजनीति की विसंगतियों को हटाने सार्थक प्रयास किया है जो वर्तमान समय में भी प्रेरणादायी है। आप ने अपनी सेवा, सिमरन और समर्पण के भाव से दर्शाया था कि एक आम इंसान भी गुरबाणी के बताए हुए मार्ग पर चलकर परोपकारी और महान हो सकता है। ऐसे महान परोपकारी संत को सादर नमन!
(विशेष—उपरोक्त लेख को पंथ रत्न जत्थेदार गुरचरण सिंह तोहरा इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज इन सिखईस्म बहादुरगढ़ पटियाला 147021 के विशेष अनुरोध पर रचित किया गया है)।
साभार— 1. उपर्युक्त रचित लेख की जानकारी के स्त्रोत– पुस्तक: साधु वासवानी उनका जीवन और शिक्षाएं लेखक: जे. पी. वासवानी, साधु वासवानी मिशन कार्यालय, गीता पब्लिशिंग हाउस पुणे 411 011 (महाराष्ट्र) एवं गुगल सर्च इंजन|
- लेख में प्रकाशित गुरबाणी के सबद की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज–विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।
नोट— 1.’श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कह कर संबोधित किया जाता है।
वाहिगुरु जी का ख़ालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!