भेषी (भेखी) सिख, सिख को न मारे तो कौम कभी न हारे (भाग–2)

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

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(टीम खोज–विचार की पहेल)

भेषी (भेखी) सिख, सिख को न मारे तो कौम कभी न हारे (भाग–2)

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भेषी (भेखी) सिख, सिख को न मारे तो कौम कभी न हारे (भाग–2)

इस लेख के भाग–2 में भेषी (भेखी) सिख और ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के ग़द्दारों को ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में कैसे लानत देकर लताड़ा गया है? हम निम्नलिखित गुरुवाणी के पदों से समझने का प्रयास करेंगे।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में भेषी सिख और ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के ग़द्दारों के लिये फरमान है कि—

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

1 , निंदक

कुता राज बहालीऐ फिरि चकी चटै॥

सपै दुधु पीआलीऐ विहु मुखहु सटै॥

पथरु पाणी रखीऐ मनि हठु न घटै॥

चोआ चंदनु परिहरै खरु खेह पलटै॥

तिउ निंदक पर निदहुं हठि मूलि न हटै॥

आपण हथी आपणी जड़ आपि उपटै॥

           (वार 35, पउड़ी:1)

अर्थात् यदि आप कुत्ते को राज सिंहासन पर भी बैठा दोगे तो फिर भी वह चक्की ही चाटेगा। सांप को चाहे जितना भी दुग्धपान करवाओं फिर भी उसके मुख से विष ही निकलेगा। पत्थर को चाहे कितने समय तक पानी में रख दो फिर भी उसका कठोरपणा कम नहीं होगा। गधा सुगंधित चंदन की खुशबू को त्याग कर राख के ढेर में ही जाकर लेटता है। निंदक, निंदा करने से बाज नही आता है और अंत में इसका परिणाम उसी को भुगतना पड़ता है। ऐसे लोग अपनी जड़ो को आप ही उखाड़ते है। (अपने पैरो पर आप ही कुल्हाड़ी मारना)।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में भेषी सिख और ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के ग़द्दारों के लिये फरमान है कि—

राजे सीह मुक़दम कुते॥

जाइ जगाइनि् बैठे सुते॥

चाकर नहदा पाइनि् घाउ॥

रतु पितु कुतिहो चटि जाहु॥

जिथै जीआँ होसी सार॥

नंकी वंढी लाइतबार॥

(अंग क्रमांक 1288)

अर्थात् राजा तो शेर के समान ताकतवर होता है परंतु उसके अहलकार/चमचे (प्रजा के ग़द्दार) कुत्ते के समान खूंखार होते है, जो प्रजा को बैठते, सोते–जागते राजा के इशारे पर सताते है। यह चमचे, ग़द्दार शेर के पंजे के नाखून की तरह प्रजा को नोचते है। यह वह ग़द्दार है जो राजा के इशारे पर दुर्बल प्रजा का खून पीते है। कमोबेश वर्तमान समय में देश के हालात ठीक इसी प्रकार से है परंतु गुरुवाणी का फरमान है कि ऐसे अवसरवादी लोगों की ‘दरगाह’ में नाक काट दी जाती है और ‘गुरुवाणी तो अटल सच’ है॥

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में ‘भेषी सिख और ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के ग़द्दारों के लिये फरमान है कि—

जिसु अंदरि ताति पराई होवै तिस दा कदे न होवी भला॥

ओस दै आखिऐ कोई न लगै नित ओजाड़ी पूकारे खला॥

जिसु अंदरि चुगली चुगलो वजै कीता करतिआ ओस दा सभु गइआ॥

नित चुगली करे अणहोदी पराई मुहु कढि न सकै ओस दा काला भइआ॥

करम धरती सरीरु कलिजुग विचि जेहा को बीजे तेहा को खाए॥

गला उपरि तपावसु न होई विसु खाधी ततकाल मरि जाए॥

भाई वेखहु निआउ सचु करते का जेहा कोई करे तेहा कोई पाए॥

जन नानक कउ सभ सोझी पाई हरि दर कीआ बाता आखि सुणाए॥

(अंग क्रमांक 308)

अर्थात् जिन ‘पंथ दोषी और भेषी सिखों’ के मन में घृणित विचार होंगे, ऐसे लोग दूसरों का छोड़ों, स्वयं का भी भला नहीं कर सकते है। ऐसे झूठे चुगलखोरों को उनके द्वारा किये गये अच्छे कर्मों का भी फल नहीं मिलता है। ऐसे चुगलखोर, ग़द्दार लोग दूसरे के लिये मन में घृणित विचार रखकर स्वयं का ही नुकसान करते है। ऐसे ग़द्दारों का मुंह उसके स्वयं के कर्मों से काला ही होता है। कलयुग के इस समय में जो जैसा करेगा, वह वैसा ही भरेगा। ऐसे बातूनी ‘भेषी सिख और ग़द्दार’ लोग जो अपनी चतुराई से दूसरों को मूर्ख बनाते है, वह लोग अपने कर्मों के विष रूपी प्रभाव से तत्काल मृत्यु को प्राप्त करते है। प्रभु–परमात्मा के न्यायालय में सच्चा न्याय प्राप्त होता है, जो जैसा करेगा–वह वैसा भरेगा। है नानक! जो ईश्वर भक्ति में लीन लोग है, उन्हें ईश्वर स्वयं सद्बुद्धि प्रदान कर ‘दरगाह’ की जानकारी प्रेषित कर पापों से बचाता है। जो ग़द्दार और मंदबुद्धि लोग सत्ता के नशे में आकर विवेकहीन, विचार शून्य होकर अत्याचार कर रहे है, वह नही जानते है कि ‘दरगाह’ में जो सत्य का न्याय होगा, इसका परिणाम इन ग़द्दारों को भुगतना पड़ेगा।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में भेषी सिख और ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के ग़द्दारों के लिये फरमान है कि—

वढीअहि हथ दलाल के मुसफी एह करेइ॥

नानक अगै सो मिलै जि खटे घाले देइ॥

             (अंग क्रमांक 472)

अर्थात् जो ‘भेषी सिख और ग़द्दार’ लोग दलाली कर इधर–उधर की बातें करते है, ऐसे लोगों के हाथ दरगाह में काट दिये जाते है।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में भेषी सिख और ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के ग़द्दारों के लिये फरमान है कि—

कबीर साकत ते सूकर भला राखै आछा गाउ॥

उहु साकतु बपुरा मरि गइआ कोइ न लैहै नाउ॥

                  (अंग क्रमांक 1372)

अर्थात् कबीर जी उपदेशित करते है कि नास्तिक व्यक्ति अपने घृणित विचारों से दुनिया में गंदगी फैलाते है, इनसे तो सुअर अच्छा है, कमोबेश सुअर शहर की सफाई तो करता है परंतु जो निंदा–चुगली करने वाले भेषी सिख और ग़द्दार लोग है, ऐसे लोग संसार में केवल गंदगी फैलाकर रखते है। जब इन ग़द्दारों की मृत्यु होती है तो कोई उनका नाम भी नही लेता है।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में भेषी सिख और ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के ग़द्दारों के लिये फरमान है कि—

जेवेहे करम कमावदा तेवेहे फलते।

चबे तता लोह सारु विचि संघै पलते।

घति गलावाँ चालिआ तिनि दूति अमल ते।

काई आस न पुंनीआ नित पर मलु हिरते।

किआ न जाणै अकिरतघण विचि जोनी फिरते।

सभे धिराँ निखुटीअसु हिरि लईअसु धर ते॥

विझण कलह न देवदा ताँ लइआ करते॥

जो जो करते अहंमेउ झड़ि धरती पड़ते॥

(अंग क्रमांक 317)

अर्थात् प्रत्येक ग़द्दार को उसके कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है, ग़द्दारी कर पाप कमाना गर्म पिघले हुये लोहे को स्वयं के गले से निघलने के समान है| ऐसे दुखों को ग़द्दारी करने वालों को ही भोगना पड़ता है, ऐसे लोगों का सर्वनाश होना निश्चित है| जब ऐसे ग़द्दारों का अंतिम समय आता है तो यमदूत ऐसे ग़द्दारों के गले में रस्सा डा़लकर, घसीटकर, निरादरकर ‘दरगाह’ (प्रभु–परमेश्वर का न्यायालय) में ले जाते है। गुरुवाणी अनुसार ऐसे ग़द्दार दुसरों के पाप की मैल भी स्वयं ढो़ते है और ईश्वर इनकी कोई मनोकामना भी पुरी नही करता है। ऐसे ग़द्दार लोग 84 लाख योनियों में भटक जाते है एवं ऐसे लोग अत्यंत बेशर्म और नीच होते है जो ईश्वर का शुकराना भी अदा नही करते है। जब ऐसे ग़द्दारों के पास निंदा–चुगली करने हेतु कुछ शेष नही रहता तो ईश्वर ऐसे लोगों को दुनिया से उठा लेता है। ऐसे ग़द्दार जब अपने पापों को चरम सीमा पर ले जाते है तो ईश्वर स्वयं इन्हें तडपा–तड़पा कर, इस लोक से निरादर कर उठा लेता है। ऐसे ग़द्दार जब सत्ता के नशे में आसमान की ऊंचाइयों को स्पर्श कर लेते है तो ईश्वर कोई ना कोई बहाना बनाकर सीधा आसमान से पाताललोक में पटककर इनका सत्यानाश कर देता है।

लेख के अंत में भाई गुरदास जी (जिन्हें गुरुवाणी की कुंजी कहकर संबोधित किया जाता है) की वाणी का ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के ग़द्दारों के लिये फरमान है कि—

8: अकिरतघण

ना तिसु भारे परबताँ असमान खहंदे॥

ना तिसु भारे कोट गड़ह घरबार दिसंदे॥

ना तिसु भारे साइराँ नद वाह वहंदे॥

ना तिसु भारे तरुवराँ फल सुफल फलंदे॥

ना तिसु भारे जीअजंत अणगणत फिरंदे॥

भारे भुईं अकिरतघण मंदी हू मंदे॥

(वार 35: भाई गुरदास जी)

अर्थात् भाई गुरदास जी ने अपनी वाणी में बड़े ही कठोर और स्पष्ट शब्दों में इन ‘पंथ दोषीयों और ग़द्दारों’ को लानत देते हुए उपदेशित किया है कि, धरती माता, बडे–बडे पर्वत जिनकी ऊंचाई आसमान को छूती है का भार तो आसानी से सहन कर लेती है साथ ही धरती माता को बहते हुए समुद्र और नदियों का भार महसूस नहीं होता है एवं ना ही धरती माता को बड़े–बड़े फलों से लदे वृक्षों का भी भार महसूस होता और ना ही धरती पर विचरण करने वाले बड़े–बड़े जीव–जंतुओं का भार महसूस होता है, अर्थात् इतना अत्यधिक भार सहन करने वाली धरती माता इन नीच, एहसान फरामोश, ग़द्दारों के भार से डावांडोल हो जाती है। ऐसे लोग इतने बड़े पापी होते है जो अपने क़रीबी साथियों से विश्वासघात कर निरंतर पाप कमाते रहे है।

इस लेख के माध्यम से ‘पंथ के ग़द्दारों और भेषी सिखों’ को समझ लेना चाहिये कि वह अपने थोड़े से फायदे के लिये कितना बड़ा पाप कमा रहे है? जिसकी सजा उन्हें ‘दरगाह’ में निश्चित मिलनी ही है और सजा क्या मिलनी है? इस लेख में अंकित उपरोक्त गुरुवाणी से स्पष्ट है और ‘गुरुवाणी अटल सच है’ ऐसे लोगों ने तुरंत ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की हजूरी में उपस्थित होकर, माफी मांग कर, अपनी ग़लतियों को बक्शा कर, पुन: ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ की मुख्यधारा में शामिल होकर अपने मनुष्य जीवन को सफल करना चाहिये।

गुरुवाणी में अंकित है कि—

भुलण अंदरि सभु को अभुलु गुरु करतारु ॥

(अंग क्रमांक 61)

अर्थात् सभी ग़लती करने वाले है, केवल गुरु और सृष्टि की सर्जना करने वाला ही अचूक है।

वाहिगुरु जी का ख़ालसा, वाहिगुरु जी की फतेह॥

(समाप्त)

नोट— 1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

साभार इस चलते–चलते लेखों की श्रृंखला के प्रेरणा स्त्रोत और मार्ग दर्शक इतिहासकार सरदार भगवान सिंह जी खोजी है। लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज–विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी और आजादी की अभिव्यक्ति

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