भूले-बिसरे गुरु धाम: ग्राम अतलेऊ (उत्तराखंड)
ੴ सतिगुर प्रसादि॥
भूले-बिसरे गुरु धामों की खोज में जब टीम खोज-विचार उत्तराखंड के रमणीय पहाड़ी अंचल में स्थित ग्राम अतलेऊ पहुँची, तो वहाँ के वातावरण ने अद्भुत आध्यात्मिक शांति का अनुभव कराया। स्थानीय सिख-सेवादारों के सहयोग से जब हमारे दल ने इस ग्राम का अध्ययन किया, तो यह ज्ञात हुआ कि यहाँ श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज को ग्रामवासी कुल-देवता के रूप में पूजते हैं।
ग्राम के मध्य में आज भी पुरातन लकड़ी से निर्मित निशान साहिब (स्थानीय भाषा में झंडा) प्रतिष्ठित है। इस पवित्र निशान साहिब पर सफेद वस्त्र का चोला आवरण रूप में विराजमान है, जो श्रद्धा का प्रतीक है। आश्चर्यजनक तथ्य यह भी सामने आया कि आज तक कोई भी गुरु-सिख इस पावन स्थल पर औपचारिक रूप से नहीं पहुँचा था।
ग्रामवासियों के अनुसार, प्राचीन काल में इस गाँव में अपंगता और कुष्ठ रोग जैसी व्याधियाँ व्यापक थीं, परंतु जब से गुरु साहिब के पवित्र चरण यहाँ पड़े, तब से यह ग्राम इन समस्त रोगों से मुक्त हो गया। श्रद्धालु ग्रामीण इस चमत्कार को गुरु कृपा का फल मानते हैं।
अतलेऊ के घर आज भी अपनी प्राचीन वास्तुकला की झलक प्रस्तुत करते हैं। यहाँ के लकड़ी के मजबूत घरों के द्वार असाधारण रूप से छोटे और सुरक्षित बनाए गए हैं। दरवाजों के स्थान पर खिड़कियों जैसे हिस्सों का उपयोग इसलिए किया गया था कि आक्रमण की स्थिति में शत्रु प्रवेश न कर सके। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार, जब भी कोई दुश्मन इन खिड़कियों से भीतर झाँकता, तो उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाता था। इस अनोखी रक्षात्मक तकनीक के कारण ही यहाँ के घर स्थापत्य कला के जीवित उदाहरण हैं।
पुरानी कालसी से लगभग तीस से चालीस मिनट की पहाड़ी यात्रा के उपरांत यह ग्राम पहुँचा जा सकता है। उत्तराखंड की मनोहर वादियों में बसा यह गाँव आज भी अपनी संस्कृति और गुरु स्मृति को सजीव रखे हुए है। गाँव की गलियों में चलते हुए पत्थरों और लकड़ी की कलात्मक नक्काशी मानो बीते युग की कथा कहती है। प्रत्येक घर के समीप पशुओं के लिए बने बरामदे और कच्ची रसोई उसकी पारंपरिक जीवनशैली का परिचायक हैं।
ग्रामवासी गर्व पूर्वक बताते हैं कि वह प्राचीन काल से ही श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज को अपना कुल-देवता मानते हैं। प्रत्येक वर्ष जेठ महीने के पहले रविवार को पूरे गाँव के लोग एकत्र होकर गुरु दिवस मनाते हैं। इस अवसर पर सामूहिक पूजा होती है और पारंपरिक कड़ाह प्रसाद वितरित किया जाता है, जो गुड़, आटा, शुद्ध घी और जल के मिश्रण से श्रद्धा पूर्वक तैयार किया जाता है।
अतलेऊ ग्राम केवल एक भौगोलिक स्थल नहीं, बल्कि यह गुरु स्मृति, आस्था और भारतीय लोक-धरोहर का जीवंत प्रतीक है, जहाँ श्रद्धा के संग इतिहास अब भी साँस लेता है।
गुरु स्मृति से आलोकित एक जीवंत लोकगाथा
ग्राम अतलेऊ की पहचान केवल उसकी भौगोलिक सुंदरता तक सीमित नहीं, बल्कि उसकी आत्मा में बसी गुरु कृपा की कथा में निहित है। ग्रामवासी बताते हैं कि प्राचीन समय में यहाँ बच्चों का जन्म प्रायः गूंगे, बहरे या विकलांग रूप में होता था, और कुष्ठ रोग का प्रकोप भी व्यापक था। किंतु जब श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज ने अपने पावन चरण-चिन्हों से इस ग्राम को पवित्र किया, तब से मानो यहाँ की धरा ने नया जीवन पा लिया। रोग और पीड़ा का नामोनिशान मिट गया, और समूचा ग्राम भक्ति, शांति और समृद्धि से आलोकित हो उठा।
एक स्थानीय वृद्ध ने भावुक होकर बताया- “हम ग्रामवासी अत्यंत सरल और भोले लोग हैं, हमारी आस्था गुरु महाराज पर अटल है।” वहीं एक युवती ने कहा कि हर वर्ष मई महीने में जागरण आयोजित किया जाता है, जिसमें गुरु साहिब की स्मृति में भजन, आरती और कथा का आयोजन होता है। बीते वर्ष ग्रामवासियों ने श्रद्धा स्वरूप चाँदी की पटावी (छड़ी) गुरु जी को अर्पित की थी।
ग्राम में मूल मंत्र का विधिवत पाठ नहीं होता, किंतु गुरु महाराज की जय! गुरु महाराज की जय! का सामूहिक उद्घोष दूर-दूर तक गूँजता है। यह एक ऐसा स्थल है जहाँ शब्दों से अधिक श्रद्धा और समर्पण बोलते हैं।
ग्राम के मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर जब सभी ग्रामवासी और इतिहासकार डाॅ. भगवान सिंह ‘खोजी’ एकत्र हुए, तो वातावरण में श्री गुरु नानक देव साहिब जी की वाणी का संगीत गूँज उठा—
कोई बोलै राम राम कोई खुदाइ ॥
कोई सेवै गुसईआ कोई अलाहि ॥1॥
कारण करण करीम ॥
किरपा धारि रहीम ॥१॥ रहाउ ॥
कोई नावै तीरथि कोई हज जाइ ॥
कोई करै पूजा कोई सिरु निवाइ ॥2॥
कोई पड़ै बेद कोई कतेब ॥
कोई ओढै नील कोई सुपेद ॥3॥
कोई कहै तुरकु कोई कहै हिंदू ॥
कोई बाछै भिसतु कोई सुरगिंदू ॥4॥
कहु नानक जिनि हुकमु पछाता ॥
प्रभ साहिब का तिनि भेटु जाता ॥5॥6॥
इस शबद का सार ग्रामवासियों ने सरल शब्दों में यूँ समझाया— ईश्वर एक ही है; कोई उसे राम कहता है, कोई खुदा। कोई मंदिर जाता है, कोई मस्जिद। कोई वेद पढ़ता है, कोई कुरान। किंतु जिसने परमात्मा के हुक्म को पहचान लिया, वही सच्चा ज्ञानी है।
ग्रामवासियों ने आगे बताया कि उनका भोजन पूर्णतः सात्विक और पहाड़ी परंपरा पर आधारित है। एक प्राचीन कथा के अनुसार, जब एक बुजुर्ग माली से पूछा गया—“कब इस ग्राम से कुष्ठ रोग समाप्त होगा?” तो उसने उत्तर दिया-“जिस दिन झंडा लहराते हुए गुरु महाराज इस ग्राम में पधारेंगे, उस दिन से यह ग्राम समस्त रोगों से मुक्त हो जाएगा।” और सचमुच, जब गुरु गोविंद सिंह महाराज इस पावन भूमि पर आए, तभी से किसी ग्रामवासी को कोई रोग नहीं हुआ।
डाॅ. भगवान सिंह ‘खोजी’ ने चर्चा के दौरान ग्रामीणों से कहा-
“आपकी जो प्राचीन रीत है, वही आपकी पहचान है। उसी को निभाइए, क्योंकि यह आपकी आस्था की विरासत है, जिसे हम केवल देख सकते हैं, अपना नहीं सकते।” फिर उन्होंने इतिहास की पृष्ठभूमि में एक उल्लेखनीय तथ्य साझा किया कि कालपी ऋषि की आयु श्री गुरु नानक देव जी से लेकर श्री गुरु गोविंद सिंह जी के कालखंड तक रही थी। इस क्षेत्र के निकट ही पुरानी कालसी नामक स्थान है, जहाँ कालपी ऋषि ने राजा मेदिनी प्रकाश को बताया था कि-
“जो गुरु इस भूमि पर आएंगे, उनकी बाहें घुटनों तक लंबी होंगी, यही उनकी पहचान है।”
जब गुरु गोविंद सिंह महाराज कालसी पधारे, तो यह भी निश्चित माना जाता है कि उन्होंने अतलेऊ ग्राम को भी अपने चरणों से पवित्र किया होगा।
इतिहासकार भाई वीर सिंह जी, जो कालपी ऋषि के भ्राता थे, ने अपने ग्रंथों में इस तथ्य का उल्लेख किया है कि कालपी ऋषि ने दसों पातशाहियां के युगों का साक्षात्कार किया था। इससे यह प्रमाणित होता है कि गुरु गोविंद सिंह महाराज कालसी से होकर इसी ग्राम में भी आए थे।
यह दुर्भाग्य का विषय है कि आज तक कोई संस्था या सिख संगत इस पावन स्थल तक नहीं पहुँची। ग्रामवासी जब जेठ महीने के पहले रविवार को गुरु दिवस मनाते हैं, तब सिख संगत को भी यहाँ पहुँचकर श्रद्धा के साथ भाग लेना चाहिए।
ग्राम में आज भी जब सफेद निशान साहिब लहराया जाता है और स्वर उठते हैं —
“गुरु महाराज की जय! गुरु महाराज की जय!”
तो लगता है जैसे हवा भी इस जयघोष में शामिल होकर कह रही हो-
यह भूमि आज भी गुरु गोविंद सिंह महाराज की कृपा से पवित्र है।
गुरु नानक से गुरु गोविंद सिंह तक- आस्था की अविरल परंपरा
यदि इतिहास की गहराई में झाँका जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि सफेद निशान साहिब केवल एक ध्वज नहीं, बल्कि पवित्रता और समर्पण का प्रतीक है। साकेत मंडी में श्री गुरु गोविंद सिंह जी की स्मृति में ऐसा ही निशान लहराया जाता है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में भी नानकपंथी जन इसी सफेद निशान साहिब को श्रद्धा से झुलाते हैं। इसी प्रकार, धन्य श्री गुरु अमर दास साहिब जी की स्मृति में भी सफेद ध्वज सुशोभित रहता है। ग्राम अतलेऊ में भी पुराने लकड़ी के खंभे पर यह सफेद निशान साहिब आस्था की निशानी बनकर आज भी लहरा रहा है, यह स्मरण कराता है कि जहाँ-जहाँ श्री गुरु नानक देव जी और श्री गुरु गोविंद सिंह जी को कुल देवता के रूप में माना गया, वहाँ यह सफेदी आत्मा की निर्मलता का प्रतीक बन गई।
इतिहासकार डाॅ. भगवान सिंह ‘खोजी’ कहते हैं-
“हम सिखों की यह बदकिस्मती है कि आज तक इस स्थान पर कोई संगत नहीं पहुँची। तारे तो गिने जा सकते हैं, परंतु उन आत्माओं की गिनती असंभव है जिन्हें गुरु महाराज ने तार दिया।”
ग्रामवासी बताते हैं कि अतीत में यहाँ कुष्ठ रोग और विकलांगता का व्यापक प्रकोप था। कालपी ऋषि के निवेदन पर गुरु गोविंद सिंह महाराज कालसी पहुँचे थे और वहीं से यह पर्वतीय मार्ग पार कर इस ग्राम में आए। जैसे ही उनके पावन चरण इस भूमि पर पड़े, यह गाँव निरोगी हो गया- दुःख मिटे, भय दूर हुए, और आस्था की ज्योति जल उठी।
ग्राम के मंदिर में आज भी धुना जलता है, एक प्रतीक उस ज्वाला का जो गुरु कृपा से सदा प्रज्वलित रहती है। किंतु विडंबना यह है कि ये लोग सिख धर्म के सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि हमने लोगों को केवल दुनियावी लंगर दिए, शबद् का लंगर नहीं। यह ग्राम ऊँचे पर्वत की चोटी पर स्थित है, यहाँ पहुँचना अत्यंत कठिन है; कारों के इंजन तक चढ़ाई में गर्म हो जाते हैं। फिर भी, टीम खोज-विचार के साथ कुछ स्थानीय सिख-सेवादार इस स्थल तक पहुँचे। उन सिखों ने स्वीकार किया कि वह भी पहली बार यहाँ आए हैं। डाॅ. खोजी ने कहा- “हम खोज करना ही भूल गए हैं, परंतु शुक्र है अकाल पुरख का कि इस युग में भी यह श्रद्धा अबाध रूप से जीवित है।”उनका विश्वास था कि इस ग्राम के लोग हमारे सच्चे गुरु-भाई हैं। उन्होंने वचन दिया कि आने वाले वर्ष जेठ महीने के पहले रविवार को वह पुनः अपनी टीम के साथ यहाँ पहुँचेंगे और ग्राम वासियों के साथ मिलकर गुरु महाराज का दिवस मनाएँगे।
डाॅ. खोजी ने संगत को संबोधित करते हुए कहा-“जो भी श्री गुरु नानक देव जी को मानता है, चाहे वह पर्वतों में रहता हो या समुद्र पार! वह हमारा अपना है। हमारा कर्तव्य है कि हम उन्हें मुख्य गुरु पंथ खालसा की धारा में जोड़ें।” ग्राम अतलेऊ के निकट नेगी सिख परिवार निवास करते हैं। यह वही हैं जो प्राचीन समय में नेकी सिख कहलाते थे। टीम खोज-विचार ने विशेष प्रयास कर इन्हीं नेगी सिखों को पहली बार श्री दरबार साहिब, अमृतसर के दर्शन के लिए लाया, यह एक ऐतिहासिक क्षण था। इन उत्तराखंड पहाड़ियों में आज भी सिख धर्म की गहरी जड़ें विद्यमान हैं।
डाॅ. खोजी ने गंभीर स्वर में कहा- “हम विवादों में न पड़ें। हमें एकत्र होकर गुरु साहिब की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि श्री गुरु नानक देव जी की संगत आज भी दूर-दूर तक बसी हुई है। जब तक हमारी साँसें चलती हैं, टीम खोज-विचार ऐसे भूले-बिसरे धामों की खोज करती रहेगी और उन्हें संगत के समक्ष प्रस्तुत करती रहेगी।”
स्थानीय निवासियों ने एक प्राचीन प्रसंग सुनाया- कई पीढ़ियाँ पहले उनके पूर्वज अमृतसर गए थे। वहाँ से वे एक कड़ा लेकर लौटे और कहा गया कि- “इस कड़े की पूजा करना, यह तुम्हारे सभी दुख-दर्द दूर करेगा।” आज भी जब वह गुरु साहिब का दिवस मनाते हैं, तो उनके मुख से श्री गुरु नानक देव जी के उपदेश झरने की तरह फूट पड़ते हैं, और वह साथ ही गुरु गोविंद सिंह महाराज को भी स्मरण करते हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि उनके पुरखों की देह में गुरुओं का संदेश आज भी जीवित है।
मंदिर के भीतर श्री गुरु नानक देव जी और श्री गुरु गोविंद सिंह जी की तस्वीरें सुशोभित हैं, और मंदीर के बोर्ड पर पर पंजाबी में लिखा है- “गुरु महाराज की जय! गुरु महाराज की जय!”
डाॅ. खोजी ने भावुक होकर कहा- “हमारी बदकिस्मती यह है कि हमने अपने लोगों को जोड़ा नहीं, केवल भवन खड़े कर दिए। हमने पुरातन धरोहरों को तोड़कर नए महल बना लिए, पर उन धरोहरों में बसती आत्माओं से नाता तोड़ लिया। याद रखिए- जो भी टूटेगा, वह विरासत बन नहीं सकेगा।”
उन्होंने कहा-“बहुत से सनातनी और मुस्लिम भाई भी आज श्री गुरु नानक देव जी को मानते हैं और उनका नाम लेकर जयकारा लगाते हैं। मैं उन सभी को प्रणाम करता हूँ।”
अंत में उन्होंने विनम्र निवेदन किया- “जो लोग कट्टरता के मार्ग पर चलते हैं, वह कृपया इस स्थल पर न आएँ। इन ग्रामीणों को उनकी परंपराएँ निभाने दें। जैसे उड़ीसा के बिरंचीपुर में जाकर मैं वहाँ की संस्कृति में घुल-मिल जाता हूँ, उसी तरह आनंद इसी समरसता में है, उसी में परमात्मा के दर्शन हैं।”
डाॅ. खोजी ने कहा- “सिक्खी केवल दस्तार बाँधने या गात्रा पहनने का नाम नहीं, बल्कि वह प्रेम, करुणा और सेवादारी का मार्ग है। यही सिक्खी आज इन पर्वतों पर साँस ले रही है।” इस प्रकार, ग्राम अतलेऊ की यह यात्रा केवल इतिहास का पुनर्स्मरण नहीं, बल्कि गुरु परंपरा की जीवित झलक है।
जब यात्रा के अंत में गाँव में जयकारे गूँजे—
“श्री गुरु नानक देव जी महाराज की जय!
श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज की जय!
बोले सो निहाल… सत श्री अकाल!”
तो पूरा वातावरण गुरु प्रेम और एकता के प्रकाश से भर उठा। ग्रामवासियों ने टीम खोज-विचार को भावभीनी विदाई दी- उनके चेहरों पर संतोष था, और आँखों में वह चमक, जो केवल गुरु कृपा के दर्शन से मिलती है।




