भूले-बिसरे गुरु धामों की खोज में- पुरानी कालसी की पुकार
ੴ ਸਤਿਗੁਰੂ ਪ੍ਰਸਾਦਿ॥
इतिहास की परतों में लिपटी हुई असंख्य धरोहरें आज भी मौन होकर हमें पुकार रही हैं-उनकी ओर लौट आने, उन्हें पहचानने और उन्हें संजोने की पुकार। ऐसी ही एक ऐतिहासिक यात्रा में टीम खोज-विचार, सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ के नेतृत्व में, उत्तराखंड के एक विस्मृत होते सिख तीर्थ स्थल- पुरानी कालसी पहुँची।
जब डॉ. खोजी कुछ समर्पित सिख सेवादारों के साथ इस स्थल पर पहुँचे, तो दृश्य अत्यंत हृदय विदारक था। जिस स्थान का संबंध श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज के जीवन-प्रसंगों से है, वह आज मात्र खंडहर बनकर रह गया है, समय और उपेक्षा की मार झेलता हुआ।
डॉ. खोजी जब इस स्थल पर अपने कैमरे के माध्यम से इतिहास को संगत तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे थे, तभी उनके अंतर्मन से एक पीड़ा भरी आवाज में अरदास की पंक्तियां स्वतः ही मुखर हो उठी:
“हर सिख प्रतिदिन अरदास करता है कि जिन गुरुद्वारों, गुरु धामों का पंथ से संबंध टूट गया है, उनकी सेवा-संभाल का दान खालसा जी को बक्शों। हम सत्य का दान माँगते हैं, सिक्खी दान, केश दान, रहत दान माँगते है, पर उन स्थलों का क्या जो हमारी पहचान के स्तंभ हैं और अब विस्मृति की गर्त में समा रहे हैं?“
पौंटा साहिब से कालपी ऋषि तक
इस ऐतिहासिक स्थल पर आने से पहले टीम गुरुद्वारा श्री पौंटा साहिब पहुंची थी। गुरुद्वारे की दहलीज पार करते ही दाहिनी ओर एक छोटा-सा स्थल दृष्टिगोचर होता था, जहां एक तख्ती लगी थी, जिसे देखकर ज्ञात होता है कि यह स्थान ऋषि कालपी जी से संबंधित है।
डॉ. खोजी ने भाव विह्वल स्वर में बताया कि ऋषि कालपी ने अपना पार्थिव शरीर गुरु गोविंद सिंह जी की गोद में त्यागा, और यहीं ब्रह्मलीन हो गए थे। उन्होंने यह भी साझा किया कि पूर्व भ्रमण के समय उनके मन में संकल्प जगा था कि ऋषि कालपी के मूल स्थान, पुरानी कालसी अवश्य जाएंगे।
परंतु यह दुःखद सत्य है कि आज, वर्ष 2025 में, वह मूल स्थान पूर्णतः मिट चुका है। आधुनिक विकास की दौड़ में, सेवा करने वालों ने उस स्थल का समूल नष्ट कर दिया है। वहाँ अब भव्य अंडरग्राउंड पार्किंग और विश्राम गृह निर्मित हो चुके हैं। कालपी ऋषि का मूल स्थान अब ‘स्थानांतरित’ कर दिया गया है, क्योंकि मूल स्थान पर यात्री निवास बनना है।
खंडहरों में दबा इतिहास
डॉ. खोजी और टीम ने जब वर्तमान में बची दीवारों और संरचनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण किया, तो यह ज्ञात हुआ कि इस स्थल का निर्माण नानकशाही ईंटों, चूने और मिट्टी के मिश्रण से किया गया था। दीवारों में पत्थर की पट्टियाँ जड़ी हुई हैं, और छत का ढाँचा भी नानकशाही ईंटों से निर्मित है। ये सभी अवशेष अपने भीतर एक बड़े इतिहास की मौन गवाही देते हैं।
निकासी द्वारों की स्थापत्य शैली विशिष्ट और अत्यंत आकर्षक है। स्पष्ट होता है कि निर्माताओं ने अपने समय में अपार श्रम से इस पावन स्थल का निर्माण किया था। यह भी प्रमाणित होता है कि नानकशाही ईंटों का प्रयोग उत्तराखंड जैसे पर्वतीय क्षेत्र में भी प्रचलित था, जो अपने आप में ऐतिहासिक महत्व रखता है।
स्थानीय जनों की वाणी से इतिहास
विकास नगर निवासी एडवोकेट कुलविंदर सिंह जी, जो इस स्थल की मूल स्मृतियों को संजोए हुए हैं, ने बताया कि जब ऋषि कालपी अत्यंत वृद्ध हो चुके थे, तब श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज स्वयं इस स्थान पर आए थे और ऋषि जी को अपने साथ पौंटा साहिब ले गए थे।
पौंटा साहिब में प्रवेश करते समय, दाहिनी ओर स्थित वह स्थान आज भी इस ऐतिहासिक मिलन का साक्षी है- जहाँ ऋषि कालपी जी ने अंतिम श्वास गुरु महाराज की गोद में ली थी। गुरु साहिब ने पूर्ण विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया, जो सिख परंपरा में एक विशिष्ट प्रसंग है।
एक करुण पुकार– पुनर्जीवन की अपील
एडवोकेट कुलविंदर सिंह ने भावुक होकर कहा:
“यह स्थान अब खंडहर बन चुका है, किंतु हम इसे फिर से जीवित कर सकते हैं। मेरी folded-hands / दो हाथ जोड़कर बेनती है कि संगत इस स्थल को कालपी ऋषि व गुरु गोविंद सिंह जी की स्मृति में पुनः संवारने हेतु आगे आए। यह स्थान लगभग 15 किमी दूरी पर, कालसी तहसील के सामने स्थित है और हर सिख सहजता से इस स्थान पर पहुँच सकता है।“
अंत में उन्होंने कहा- “मैं एडवोकेट कुलविंदर सिंह (मो. 9758367692), विकास नगर का निवासी, संगत से सीधा संवाद के लिए सदैव उपलब्ध हूँ। मैं डॉ. खोजी और उनकी टीम का हृदय से आभारी हूँ, जो इस प्रकार की खोज कर इतिहास को पुनः उजागर कर रहे हैं।”
इस ऐतिहासिक यात्रा में एक और मार्मिक क्षण तब आया, जब स्थानीय निवासी सरदार बलजीत सिंह जी ने भावभीने शब्दों में अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने कहा:
“मैं बलजीत सिंह, यहीं का निवासी हूँ। आज जब इतिहासकार डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ जी इस स्थल पर पहुँचे, तो मन गर्व और संतोष से भर उठा। उनके आगमन से इस भूले-बिसरे स्थल को एक नई चेतना मिली है।”
डॉ. खोजी ने जब इन भग्नावशेषों का गहन निरीक्षण किया, तो स्पष्ट हुआ कि ये अवशेष गुरु साहिब जी के युग से जुड़े हुए हैं। खंडहर हो चुके इन अवशेषों की स्थिति देखकर बलजीत सिंह की आवाज़ भारी हो उठी:
“यह दृश्य हमारी आत्मा को झकझोर देता है। एक ओर हम इतिहास की बात करते हैं, और दूसरी ओर अपने हाथों से ही उन स्मृतियों को मिटाते चले जा रहे हैं।”
धरोहर का संरक्षण — विकास की आड़ में विनाश?
बलजीत सिंह और उनके ग्राम अटलाव तथा पूरे जौनसार क्षेत्र के स्थानीय निवासियों ने एक स्वर में यह मांग उठाई कि इस ऐतिहासिक स्थल का समग्र विकास हो, किंतु विरासत को मिटाकर नहीं, अपितु उसे संजोते हुए, उसे यथावत रखते हुए।
उनकी स्पष्ट राय थी कि इस धरोहर पर यदि छत की आवश्यकता हो, तो आधुनिक कंक्रीट के नीचे इसे दबा देने की बजाय इसके ऊपर पत्रे की छत बनाकर संरक्षित किया जाए।
उन्होंने संगत से अपील की:
“हमारा निवेदन है कि संगत इस कार्य में आगे आए। हम ग्रामवासी तन, मन, धन से इस सेवा में सम्मिलित होने को तैयार हैं।”
(बलजीत सिंह का संपर्क मोबाइल क्रमांक: 9719441413)
इतिहास के झरोखे से- गुरु गोविंद सिंह जी और कालपी ऋषि
डॉ. भगवान सिंह खोजी ने अपने वक्तव्य में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य पर प्रकाश डाला कि, कालपी ऋषि की आयु श्री गुरु नानक देव जी से लेकर श्री गुरु गोविंद सिंह जी के कालखंड तक विस्तारित थी। यही नहीं, उनके जीवन में कई ऐसे प्रसंग हैं, जो सिख इतिहास में विलक्षण स्थान रखते हैं।
एक ऐतिहासिक प्रसंग के अनुसार- जब राजा मेदनी प्रकाश और राजा फतेह शाह के मध्य कटुता थी, तो कालपी ऋषि ने राजा मेदनी प्रकाश से कहा:
“आपका यह वैर केवल वही मिटा सकता है जो श्री गुरु नानक देव जी की दसवीं ज्योति है, जो संत भी हैं और सिपाही भी, जिनकी बाहें घुटनों तक लंबी होंगी।”
यही संकेत था जिससे राजा मेदनी प्रकाश ने दशमेश पिता श्री गुरु गोविंद सिंह जी को पहचाना, और उनके निमंत्रण पर ही गुरु साहिब पौंटा साहिब पधारे।
कालपी ऋषि की अंतिम इच्छा- गुरु की गोद में ब्रह्मलीन
गुरु साहिब जब पर्वतीय क्षेत्रों में भ्रमण कर रहे थे, तभी उन्हें कालपी ऋषि के तप स्थल के विषय में जानकारी प्राप्त हुई। ऋषि की अंतिम कामना थी- “मैं अपनी अंतिम श्वास श्री गुरु गोविंद सिंह जी की गोद में लेना चाहता हूँ।”
और वही हुआ। गुरु साहिब ने उन्हें अपनी गोद में स्थान दिया और ऋषि जी ब्रह्मलीन हो गए।
किन्तु, आज वही स्थल, जहाँ यह दिव्य लीला संपन्न हुई थी, अफसोस. . . . समाप्ति के कगार पर है।
कठिन राह, पर मन की लगन
डॉ. खोजी की टीम जब इस स्थल तक पहुँची, तो कोई सीधा मार्ग नहीं था। वे पर्वतीय पगडंडियों से होते हुए इस स्थान पर पहुँचे। उनके साथ उनका पाँच वर्षीय बालक शहादत सिंह भी था, जिसने कठिन चढ़ाई पूरी कर यह संदेश दिया कि श्रद्धा उम्र की मोहताज नहीं होती।
स्थानीय नागरिकों ने इस स्थल को वर्षों से अपनी सेवा भावना से संजो कर रखा है, भले ही यह शासन-प्रशासन और संगत की दृष्टि से दूर रहा हो।
एक मार्मिक अपील- “सिखों, जागो!”
डॉ. खोजी की वाणी फिर एक बार विदग्ध हो उठी। उन्होंने पीड़ा से भरकर संगत को पुकारा:
“सिखों, जागो! जागो! यह स्थान करुण पुकार कर रहा है। यहाँ के लोग रो-रो कर कह रहे हैं- हे पंथ दर्दियों! इस ऐतिहासिक स्थल को बचा लो। कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी इस धरोहर को केवल चित्रों और कहानियों में ढूंढती फिरे।
क्या हम केवल नए गुरुद्वारों की चमक-दमक तक सीमित रह गए हैं? क्या हम इतिहास की आत्मा को भूल चुके हैं? क्या ये पत्थर, ये खंडहर, हमसे कुछ नहीं कहते?
हम चाहे जितने ऊँचे भवन बना लें, परंतु यदि मूल स्थानों की सेवा-संभाल नहीं की, तो हमारी नींव खोखली रह जाएगी। पौंटा साहिब में कालपी ऋषि जी का स्मारक पहले ही नष्ट हो चुका है, कृपया इस स्थल को भी ना खोने दें।“
निशान साहिब की छाया में- एक आशा की किरण
इस पावन स्थल के सम्मुख कभी एक भव्य निशान साहिब सुशोभित होता था, जिसके थड़े के अवशेष आज भी उपस्थित हैं। दुर्भाग्यवश, यहाँ सिख संगत की संख्या कम होने से अब वह निशान साहिब भी इतिहास बनने को है।
लेकिन, एक ओर जहाँ खंडहर खड़े हैं, वहीं दूसरी ओर एक निर्मल नदी बह रही है, यह दृष्य एक ओर वीरानगी है, तो दूसरी ओर संभावनाओं की शीतल सरिता भी।
बलजीत सिंह और अन्य ग्राम वासियों का विश्वास है कि शीघ्र ही युवा पीढ़ी जागेगी, और इस स्थान पर फिर से निशान साहिब शान से लहराएगा पूर्ण श्रद्धा, सेवा और गुरुवाणी के प्रकाश के साथ।
इतिहास की सांद्र छाया में जब हमारी टीम खोज-विचार ने शोध की धूल झाड़ी, तो एक पुराना, किंतु अत्यंत प्रामाणिक ग्रंथ हमारे समक्ष आया- “गुर तीर्थ साइकिल यात्रा” जो भाई धन्ना सिंह जी पटियालवी द्वारा रचित है। ग्रंथ के पृष्ठ क्रमांक 166 पर अंकित विवरण पढ़कर हमारी चेतना झनझना उठी:
“जब भाई धन्ना सिंह जी कालसी पहुँचे, उन्होंने स्पष्ट लिखा- ‘यह वह ग्राम है जिसे कालपी ऋषि ने बसाया था। यहीं पर मैंने स्वयं मंजी साहिब के दर्शन किए हैं, और इसी स्थान पर निशान साहिब भी झूलता था।'”
और सबसे उल्लेखनीय यह- इस स्थल को “दशम पिता का स्थान” कहा गया है।
भाई साहब की यह यात्रा लगभग 94 वर्ष पूर्व की थी। तब इस स्थान पर मंजी साहिब व निशान साहिब मौजूद थे, आज यह स्थान खंडहरों में परिवर्तित हो चुका हैं। परंतु पत्थरों के इन टूटे टुकड़ों के मध्य अब भी गुरु साहिब की महिमा का प्रकाश छिपा हुआ है- बस, उसे देख पाने की आंखें चाहिए।
“यह केवल एक खंडहर नहीं…” – टीम खोज-विचार की पुकार
डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ और उनकी टीम खोज-विचार बार-बार यह स्पष्ट करती है कि यह स्थल केवल ईंट, गारे और मलबे का ढेर नहीं, अपितु गौरवशाली इतिहास की जीवित निशानी है।
“ऐसे अनगिनत स्थल हैं जो समय की मार से टूटते जा रहे हैं। सिखों, यदि अब भी न जागे तो हमारी विरासत केवल पुस्तकों तक सिमट कर रह जाएगी।”
हमारी टीम का कार्य मेज पर बैठकर इतिहास पढ़ना नहीं, बल्कि पर्वतीय पगडंडियों पर चलकर इतिहास को खोज लाना है। हमारी टीम सन 2021-22 से लगातार ऐसे भूले-बिसरे गुरु धामों को चिन्हित कर, संगत के समक्ष उनका वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करने का कार्य कर रही है।
डॉ. देविंदर सिंह ग्रेवाल का योगदान- एक और प्रमाण
इस शोध यात्रा में गुरु पंथ खालसा के महान इतिहासकार डॉ. देविंदर सिंह ग्रेवाल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। वे भी इस स्थल पर पहुंचे थे और उन्होंने भंगानी युद्ध भूमि से लेकर पुरानी कालसी तक का व्यापक ऐतिहासिक का अनुसंधान किया।
उन्होंने न केवल अवशेषों की उपेक्षा पर चिंता जताई, बल्कि डॉक्युमेंटेशन के माध्यम से इस स्थान की महत्ता को उजागर किया। वे सिख पंथ के ऐसे मौन सिपाही हैं जिन्होंने अब तक 124 ग्रंथों की रचना कर, सिख इतिहास को अक्षुण्ण बनाए रखने का कार्य किया है।
टीम खोज-विचार उनके प्रति आभार व्यक्त करती है और उनका अनुसरण करते हुए इस अभियान को आगे बढ़ा रही है।
एक पुकार- जो हर हृदय तक पहुँचे
“*जो सिख श्री गुरु गोविंद सिंह जी से प्रेम करता है, वह इस पुकार को सुने। यह केवल वीडियो क्लिप नहीं, बल्कि इतिहास की हृदयविदारक पुकार है।
हमारी विरासत ढह रही है- क्या अब भी कोई नहीं उठेगा? क्या कोई नौजवान, कोई वीर, कोई संगत, कोई संस्था सामने नहीं आएगी?*”
टीम की इस मार्मिक अपील में कर्तव्य की आग जलती है- एक पुकार कि “हमें केवल नई इमारतें नहीं बनानी हैं, हमें अपनी जड़ों से भी जुड़ना है।”
स्थानीय जन की जुबानी – बीते समय की छाया
टीम ने जब ग्रामवासियों से संवाद किया तो ज्ञात हुआ कि पहले इस स्थान पर वर्ष में दो से तीन बार लंगर / भंडारे आयोजित होते थे। परंतु पिछले दो वर्षों से यह गतिविधियां पूरी तरह बंद हैं।
स्थानीय लोग इस स्थान को अब “ठाकुर द्वारा” के नाम से जानते हैं। यहाँ अब सिख या सरदार नहीं आते, केवल पर्यटक आते हैं, जो इसे एक हिल स्टेशन की तरह देखते हैं।
परंतु ग्राम वासियों की आकांक्षा यह नहीं है कि यह स्थान केवल एक पर्यटन स्थल बने। उनका स्पष्ट मत है:
“यहाँ एक सुंदर गुरुद्वारा बनना चाहिए, जो न केवल हमारी विरासत को जीवित रखे, बल्कि श्रद्धा और भक्ति का केंद्र भी बने।”
“यह वह स्थल है जहाँ गुरु साहिब स्वयं सेवादारों सहित घोड़े पर सवार होकर आए थे, और कालपी ऋषि जी को पालकी में बिठाकर पौंटा साहिब ले गए थे।”
स्थान की भौगोलिक स्थिति- कैसे पहुँचें?
यह स्थल पौंटा साहिब (हिमाचल प्रदेश) के निकट है। हिमाचल से उत्तराखंड की सीमा पार करते ही हरपटपुर नामक स्थान आता है। वहाँ से एक सड़क देहरादून, और दूसरी विकासनगर की ओर जाती है।
पुरानी कालसी ग्राम, हरपटपुर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
गाँव में स्थित पोस्ट ऑफिस के सामने से एक कच्चा रास्ता जाता है। लगभग 150 मीटर चलने पर यह ऐतिहासिक स्थल स्थित है, जहाँ आज भी खंडहरों के बीच इतिहास सांस ले रहा है।
समापन- अब निर्णय संगत का है
इस स्थान की खोज करते समय जो चित्र सामने आया है, वह केवल इतिहास का दस्तावेज नहीं अपितु धरोहर की पुकार, कर्तव्य का आह्वान और भविष्य की चिंता है।
“क्या हम केवल पत्थरों के ढांचे बनाते रहेंगे या अपनी आत्मा के गुरुद्वारों को भी संजोएँगे?”
“क्या हमारी आने वाली पीढ़ी इन स्थलों को केवल फोटो एल्बम में देखेगी, या उनके चरण स्पर्श भी कर सकेगी?”
अब समय है एकजुट होकर कार्य करने का।
अब समय है इस स्थल को फिर से गौरव का प्रतीक बनाने का।
अब समय है इतिहास को पुनर्जीवित करने का।
वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!






