भाई मरदाना जी के 564 वें प्रकाश पर्व पर विशेष–

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

चलते-चलते. . . .

(टीम खोज-विचार की पहेल)

प्रासंगिक—

भाई मरदाना जी के 564 वें प्रकाश पर्व पर विशेष–

सिखों के स्वर्णिम इतिहास में भाई मरदाना जी जैसा भाग्यशाली कोई विरला ही होगा, ‘श्री गुरु नानक देव साहिब साहिब जी’ का सबसे अधिक सानिध्य (लगभग 50 वर्षों तक) भाई मरदाना जी को प्राप्त हुआ था। प्रसिद्ध सिख इतिहासकार भाई काहन सिंह जी नाभा के अनुसार भाई मरदाना जी का जन्म 6 फरवरी सन् 1459 ईस्वी. में हुआ था। भाई मरदाना जी अपने माता  पिता की सातवीं संतान थे, इस परिवार के पहले 6 बच्चे अकाल चलाना (स्वर्गवास) कर गए थे, इसलिए भाई मरदाना जी का नाम ‘मर जाणा’ रखा गया था परंतु जब भाई साहिब गुरु पातशाह जी की शरण में आए तो गुरु पातशाह जी ने आपका नाम ‘मरदा ना’ रख दिया था, इसलिए आप जी का नाम भाई मरदाना के नाम से प्रचलित हुआ था। भाई मरदाना जी को भाई दाना जी के नाम से भी संबोधित किया जाता था। आप जी के पिता जी का नाम भाई बदरा जी और माता जी का नाम माइ लक्खो जी था। भाई मरदाना जी मरासी परिवार के थे। यह वह मुस्लिम परिवार था जो राजा  महाराजाओं के दीवान में उनकी स्तुति में गाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। संगीत सुर और ताल भाई मरदाना जी को विरासत में प्राप्त हुए थे। भाई मरदाना जी एक संगीतकार और गायक थे, विश्व प्रसिद्ध गायक तानसेन के दादा जी भाई हरिदास जी, भाई मरदाना जी के शिष्य थे। भाई मरदाना जी रबाबी कला के समस्त गुणों से परिपूर्ण थे, इसी कारण से हरिदास जी ने भाई मरदाना जी को अपना गुरु बनाया था।

भाई मरदाना जी के जीवन को ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने गुरुवाणी के आध्यात्मिक और राग रस में सराबोर कर एक अनोखा आयाम प्रदान किया था। भाई मरदाना जी के कर्मों पर रश्क होता है कि उन्हें ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के जैसा मुर्शिद प्राप्त हुआ था। गुरु पातशाह जी के सानिध्य में रहकर लोगों की स्तुति गाने वाला मरासी भाई मरदाना जी, रबाबी भाई मरदाना जी में परिवर्तित हो चुका था। भाई मरदाना जी गृहस्थ आश्रम में जीवन व्यतीत कर रहे थे और उन्हें तीन संतानों की प्राप्ति भी हुई थी उनके दो सुपुत्र सजादा एवं रजादा नाम से थे उन्हें एक कन्या रत्न की भी प्राप्ति हुई थी।

इतिहास में अधोरेखीत है कि ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की भाई मरदाना जी से प्रथम मुलाकात सन् 1480 ईस्वी. में तलवंडी (पाकिस्तान) में हुई थी। भाई मरदाना जी तलवंडी के ही मूल निवासी और गुरु पातशाह जी के साथी थे। इन दोनों का साथ भाई मरदाना जी के अंतिम समय सन् 1534 ईस्वी. तक रहा था। ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने तलवंडी में ही कीर्तन करना प्रारंभ कर दिया था। आप जी किरत, (कष्ट) और कीर्ति को जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य कर रहे थे। आप जी को भी एक ऐसे साथी की तलाश थी जिसके पास सुर, राग और ताल हो, ताकि उनके मुखारविंद से उच्चारित वाणी को सही संगीतमय ढंग से लयबद्ध किया जा सके। जब गुरु पातशाह जी को एक बार तलवंडी में ही रबाब की मधुर धुन सुनाई पड़ी तो आप जी स्वयं भाई मरदाना जी के पास चल कर गये और आत्मीयता से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? भाई मरदाना जी ने उत्तर दिया कि मेरा नाम दाना है तो उस समय गुरु जी ने फरमाया था कि तुम्हें राग, ताल और लय की अच्छी समझ है, यदि तुम साथ दो तो हम मिलकर उस प्रभु-परमेश्वर की स्तुति कर, लोक-कल्याण कर, हम इस दिन-दुनिया का उद्धार कर सकते हैं। उस समय भाई मरदाना जी ने गुरु पातशाह जी को उत्तर दिया कि मैं जाति से डोम (मरासी) हूं और आप बेदी वंश के कुलदीपक है, हमारा साथ कैसे संभव है? उस समय गुरु जी ने भाई मरदाना जी की बांह पकड़ कर कहा था नहीं मरदाना! तु तो मेरा भाई है! उस समय भाई मरदाना ने कहा कि हम तो अपना और परिवार का भरण-पोषण करने हेतु गाते है। अपनी भूख मिटाने के लिए हमें गाना ही पड़ता है, उस समय गुरु पातशाह जी ने मुस्कुराकर वचन किए थे कि, है मरदाना! जो प्रभु-परमेश्वर की भक्ति में लीन हो जाते हैं तो क्या उनको रोटी-पानी की भूख रह जाती है? गुरु पातशाह जी ने वचन किये कि तुम नमाज क्यों पढ़ते हो? तुम रोजा क्यों रखते हो? तो उस समय भाई मरदाना जी ने वचन किये थे कि ख़ुदा के लिए मैं ऐसा करता हूं तो गुरु जी ने वचन किए कि यदि तुम सब कुछ ख़ुदा के लिये करते हो तो ख़ुदा की संगत के हृदय में निवास करते हैं, ख़ुदा तो संतों की संगत में ही निवास करते है। तुम मेरा साथ दो और मेरे साथ चलो, तुम मधुर रबाब की धुन बजाओ और मैं गाऊंगा, हम मिलकर उस प्रभु-परमात्मा का गुणगान करेंगे। गुरु पातशाह जी ने वचन किये कि यह मेरा वादा है, तुम्हारे घर में किसी भी वस्तु की कोई कमी नहीं रहेगी। भाई मरदाना जी ने गुरु पातशाह जी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और भाई मरदाना जी गुरु पातशाह जी के सानिध्य को पा गये थे।

‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के मुखारविंद से उच्चारित वाणी और भाई मरदाना जी की रबाब से निकली मधुर संगीत की धुन ने आध्यात्मिक कीर्तन के साथ-साथ गुरमत संगीत को भी जन्म दिया था। वर्तमान समय में गुरमत संगीत आज एक विशाल वट के वृक्ष के रूप में संसार में स्थापित हो चुका है परंतु इस गुरमत संगीत का प्रारंभ गुरु पातशाह जी और भाई मरदाना जी की जोड़ी से हुआ था।

भाई मरदाना जी की जीवन शैली, सादा जीवन और उच्च विचारों वाली थी। वह निश्चल, निर्भय, निर्मल, सुरमा, वक्त के साथ लड़ने और मरने को तैयार, दुखों में भी अडिग रहकर गुरु पातशाह जी के साथ स्मित हास्य के साथ चलने वाले, राग विद्या में उन्हें महारत हासिल थी और गुरु पातशाह जी का ऐसा साथी जिसने गुरु जी के प्रत्येक वचन को सिर माथे पर रखकर माना था। भाई मरदाना जी के जीवन से सीखने को मिलता है कि गुरु के बहाने में रहकर कैसे ज़िंदगी बिताना है? कैसे गुरु के हुकुम को मानना है? कैसे गुरु के हुक्म अनुसार सेवा करनी है? कैसे गुरु के बताये हुए मार्ग पर चलना है? और कैसे गुरु की बख्शीश प्राप्त करनी है? यह सभी महत्वपूर्ण पहलू हम भाई मरदाना जी के जीवन से सीख सकते है। भाई मरदाना जी की जीवन तपस्या बहुत कुछ सिखाती है जैसे कि ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने भाई मरदाना जी को तीन उपदेश दिये थे।

1.केशो को कटवाना नहीं है। 2.ब्रह्म मुहूर्त से पहले जागकर सिमरन करना है और 3.आए-गए सभी साधु-संत और ज़रूरतमंदों की आवश्यकता अनुसार सेवा करनी है। भाई मरदाना जी ने इन उपदेशों को स्वयं तो आत्मसात किए और इन्हीं उपदेशों को आप जी ने संगत को भी दृढ़ करवाये थे।

इतिहास में अधोरेखीत होता है कि जब गुरु पातशाह जी अपनी प्रथम उदासी यात्राएं कर रहे थे तो एक नगर में उन्हें लोगों ने बहुत सारा धन, सामान और वस्त्र भेंट स्वरूप प्रदान किए गये थे। भाई मरदाना जी ने यह सब वस्तुएं एकत्र कर गुरु जी के सम्मुख रख दी थी परंतु गुरु जी ने इन सभी वस्तुओं को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था और वचन किये थे कि परमात्मा के मार्ग पर चलते हुये माया रूपी रुकावटों से दूर रहना ही उत्तम है। ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ और भाई मरदाना जी ने अपने जीवन काल में चार उदासी यात्राएं की थी। इन यात्राओं में आप जी ने 36000 माइल्स तक की पैदल यात्राएं की थी। उस समय लोक-कल्याण के लिए की गई यह यात्राएं दिग्विजय यात्राओं के रूप में जानी जाती है। इन उदासी यात्राओं में भाई मरदाना जी को अनेक कष्टों से रू बरू होना पड़ा था। कई-कई दिनों तक उन्हें भूखा रहना पड़ा था। इन कठिन मार्गों पर चलते हुए आप हमेशा धन् करतार की धुन में ही रमे रहते थे, आप जी ने गुरमत संगीत के 19 रागों में गुरुवाणी को गाकर गुरु घर के प्रथम किर्तनियें होने का मान प्राप्त किया था। भाई मरदाना जी ने स्वयं कष्ट सहकर, हमें कष्टों को सहन करने की महत्वपूर्ण सीख दी है।

इन उदासी यात्राओं को करते हुए एक बार भाई मरदाना जी ने गुरु जी से कहा कि आपकी तपस्या बहुत कठिन है, मैं इस तपस्या में आपका साथ निभाने में स्वयं को असमर्थ पाता हूं। उस समय गुरु जी ने वचन किए थे कि आप सहजता से हमारे सानिध्य में रहिये, तब भाई मरदाना जी ने उत्तर दिया था कि गुरु पातशाह जी यह तभी संभव है कि जब आप मुझे अपने जैसा धीरज प्रदान करें, जैसे आपको भूख और प्यास नहीं लगती है, वैसे ही मुझे भी भूख और प्यास ना लगे। जिस अवस्था में आप जी विचरण करते हैं उसी सहज अवस्था में आप जी मुझे भी अपने साथ रखें नहीं तो मुझे पुनः घर जाने की आज्ञा प्रदान करें। गुरु पातशाह जी ने अत्यंत प्रसन्नता से कहा कि शाबाश मरदाना! आपने आज मुझसे एक अच्छी बक्शीश को मांगा है, भाई मरदाना जी ने गुरु पातशाह जी से हमेशा धीरज, सब्र और संतोष ही मांगा था। गुरु पातशाह जी के साथ रहकर भाई मरदाना जी ने बाबर से भी मुलाकात की थी और संगला द्वीप के राजा शिवनाब से भी मुलाकात की थी, मलक भागो जैसे उस समय के सबसे अमीर व्यक्ति से भी भाई मरदाना जी की मुलाकात हुई थी, चौधरी सालसराय जैसे महान जौहरी ने भाई मरदाना जी को गुरु पातशाह जी के हीरे के दर्शन करने के 100 रु. दे दिये थे, ऐसा विशुद्ध हीरा देखने को नहीं मिलता है। ऐसे अमीर लोगों की संगत में रहकर भी भाई मरदाना जी ने किसी से कुछ नहीं मांगा था, उन्होंने जब भी मांगा तो अपने गुरु पातशाह जी से मांगा था और मांगा क्या था? धीरज, सब्र और संतोष!  एक बार भाई मरदाना जी ने गुरु पातशाह जी से कहा कि आप में और मुझ में कोई अंतर नहीं है कारण कि आप ख़ुदा के डोम (मरासी) और मैं आपका डोम (मरासी) हूं। आप जी ने ख़ुदा को प्राप्त किया और मैंने आप जी को प्राप्त किया है, गुरु पातशाह जी मेरा आपसे निवेदन है कि आप मुझे कभी मत छोड़ना, ना इस लोक में ना ही परलोक में, उसी समय गुरु पातशाह जी ने वचन किए थे कि

जिथै मेरा वासा, उथै तेरा वासा!

इन उदासी यात्राओं में भाई मरदाना जी ने कोड़ीयों की सेवा कर, कोडीयों के दुख दूर करें। सभी ज़रूरतमंद और दुखी लोगों की तन्मयता से सेवा की थी अर्थात दुख में सुख में हर जगह आप जी ने गुरु पातशाह जी के साथ रहकर अपने जीवन को सफल किया था। भाई मरदाना जी मुसलमान फ़कीर होकर भी गुरु पातशाह जी के साथ मंदिरों में दर्शन करने गए, जगन्नाथ पुरी के मंदिर में आप जी ने धनाश्री राग के अंतर्गत सृष्टि के रचयिता की आरती के गायन में अपनी रबाब की मधुर धुन प्रस्तुत की थी। इन उदासी यात्राओं के दौरान जब गुरु पातशाह जी भाई मरदाना जी के साथ बगदाद में गए और वहां पर गुरु जी ने अपने मुखारविंद से उच्चारण किया—

पाताला पाताल लख आगासा आगास॥

ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहनि इक वात॥

                        (अंग क्रमांक 5)

अर्थात् गुरु पातशाह जी ने आम लोगों की धारणा सात पाताल व सात आकाश की है (कुरान शरीफ अनुसार) का खंडन करते हुए कहा कि सृष्टि की रचना में पाताल-दर-पाताल लाखों है एवं आकाश-दर-आकाश भी लाखों है। इस वाणी को सुनने के पश्चात भी भाई मरदाना जी ने कुरान शरीफ का उदाहरण देकर गुरु पातशाह जी का विरोध नहीं किया था। आप जी ने कभी भी गुरुवाणी का विरोध नहीं किया, जब मक्का में ख़ुदा के घर की ओर पैर कर गुरु जी आराम कर रहे थे तो भी उन्होंने इसका विरोध नहीं किया, 

जिसे वारां: भाई गुरदास जी की में इस तरह से अंकित किया गया है—

जा बाबा सुता राति नो वलि महराबे पाइ पसारी॥

जीवणि मारी लति दी केहड़ा सुता कुफर कुफारी?

दूसरों ने विरोध किया परंतु भाई मरदाना जी ने गुरु के हुक्म में ही स्वयं को रखा था, आप जी हमेशा गुरु की रजा में राजी रहें। गुरु पातशाह जी ने भी भाई मरदाना को भाई कहकर अपना रिश्ता भाइयों वाला रखा था अर्थात् ऊंच-नीच का प्रबल विरोध किया था। जिसे गुरुवाणी में इस तरह से अंकित किया गया है—

 नीचा अंदरि नीच जाति नीची हू अति नीचु॥

 नानकु तिन कै संगि साथि वडिआ सिउ किआ रीस॥

                 (अंग क्रमांक 15)

अर्थात् निम्न में जो निम्न जाति के लोग है और फिर उनमें भी जो अति निम्न प्रभु भक्त हैं। गुरु पातशाह जी फरमाते हैं कि हे निरंकार! उनकी मेरे साथ मुलाकात करवाओ, माया और ज्ञान अभिमान के कारण जो बड़े हैं उनसे मेरी क्या तुलना हो सकती है?

पूरी दुनिया के लोगों को गुरुवाणी के साथ जोड़कर भाई मरदाना जी की रबाब ने जन-जागृति की और एक परमेश्वर के अर्थ को समझाया था।

भाई मरदाना जी का ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ से किये हुए सभी वार्तालाप अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैसे कि भाई मरदाना जी ने जब गुरु जी से रागों के महत्व के संबंध में पूछा तो गुरु जी ने उत्तर दिया था कि राग तो सभी अच्छे होते हैं परंतु सबसे उत्तम वह ही राग है, जिस के कारण आप उस प्रभु-परमेश्वर से जुड़ जाते हैं। जब भाई मरदाना जी ने पूछा कि संसार क्या है? तब गुरु पातशाह जी ने उत्तर दिया था कि संसार सागर है, गुरुवाणी नाव है और इस नाव को पार लगाने वाला नाविक गुरु है। जब भाई मरदाना जी ने गुरु पातशाह जी से पूछा कि सबसे अच्छा समय कौन सा होता है? तो उस समय गुरु पातशाह जी ने उत्तर दिया था कि वह ऋतु और महीने ही सबसे उत्तम होते हैं, जिसमें परमात्मा को हम याद रखते है। इन वार्तालाप ने इस तरह के अनेक उदाहरणों से हमें गुरु पातशाह जी ने जीवन में मार्गदर्शन प्रदान किया है। ज़रूरत, निर्भयता और बेबाकपन को भाई मरदाना जी ने गुरु पातशाह जी से ही आत्मसात किया था।

गुरुवाणी में अंकित है—

सच की वाणी नानकु आखै सचु सुणाइसी सच की बेला॥

                             (अंग क्रमांक 723)

अर्थात् बाबा नानक जी सच की वाणी सुना रहे है और केवल सत्य ही सुना रहे है, अब सत्य बोलने की ही बेला है। उपरोक्त वाणी के अनुसार भाई मरदाना जी का स्वभाव परिपक्व हो गया था, तीर्थ स्थानों पर तीर्थ यात्रियों की जिस तरह से लूट-खसोट की जाती थी, उस पर आप जी ने अनेक बेबाक टिप्पणियां की थी। आप जी ने महंतों के अहंकार को और नकली पीर-फ़कीरों के आडंबरों का भी भंडाफोड़ किया था। एक बार तो उनकी बेबाक टिप्पणियों के कारण उन पर हमला भी किया गया था परंतु असली महंत और पीर-फ़कीर क्या होते है? इस बारे में गुरु पातशाह जी ने उपदेशित कर इस विवाद को शांत किया था।

इन उदासी यात्राओं के दौरान प्रत्येक स्थान पर रबाब की धुन और बाबा गुरु  ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के सबद् रूपी कीर्तन को सुनकर लोग दौड़े चले आते थे। दुख में सुख में हर जगह आप जी ने गुरु पातशाह जी के साथ रहकर अपने जीवन को सफल किया था।

जब इन उदासी यात्राओं के दौरान गुरु पातशाह जी, भाई मरदाना जी के साथ हरिद्वार की धरती पर गए तो वहां पर एक अहंकारी महंत कई तरह के आडंबरों को अंजाम दे रहा था। इस महंत के पास भाई मरदाना जी को गुरु पातशाह जी ने भेजा एवं कहा कि चढ़ते हुए सूरज के स्थान पर खड़े होकर, इस महंत से आग लेकर आओ! भाई मरदाना जी ने सत् वचन कह कर उत्तर दिया और चढ़ते हुए सूरज के स्थान पर खड़े होकर उस महंत से आग की मांग की थी, उसी समय वह महंत एक जलती हुई लकड़ी लेकर भाई मरदाना जी पर हमला करने हेतु दौड़ पड़ा था। भाई मरदाना जी दौड़ते  दौड़ते गुरु पातशाह जी के चरणों में आ गये थे, जब गुरु जी के पास आये तो गुरु पातशाह जी ने उस महंत से पूछा कि क्या कारण है? जो तुम जलती हुई लकड़ी लेकर इस पर हमला कर रहे हो, मैंने तो इसे तुम्हारे पास आग लाने के लिए भेजा था, उस महंत ने उत्तर दिया मैं तुम्हें आग देने नहीं आया, अपितु मैं तो आग लगाने आया हूं गुरु पातशाह जी ने उत्तर दिया कि हरि के द्वार पर यदि आग लगाने वाले बैठे हैं तो इसे बुझाएगा कौन? क्या कारण है? ऐसा कि, तुम भाई मरदाना पर हमला करने चले आये हो, उसने उत्तर दिया कि तुम्हारे साथी ने मेरा धर्म भ्रष्ट कर के रख दिया, गुरु जी ने पूछा वह कैसे? तो उसने उत्तर दिया इसने चढ़ते हुए सूरज के स्थान पर खड़े होकर आग की मांग की, जिससे इसकी परछाई मेरे चौके पर पड़ गई और मैं ब्रह्म मुहूर्त से कर्मकांड कर रहा हूं और इसने मेरे समस्त क्रिया-कर्मों का नाश करके रख दिया है। सतगुरु जी ने भाई मरदाना जी को वचन कर कहा कि आप जी को कितनी बार समझाया कि आप ऐसे लोगों के पास मत जाया करो, इनका धर्म इतना नाजुक है कि जो तुम्हारी परछाई से ही टूट गया है। आप का तो कुछ नहीं बिगड़ा, इसके पूरे जीवन की तपस्या समाप्त हो गई। विचार करो यदि इसका धर्म जीवन के अंतिम समय में टूट जाता तो इसका जीवन ही व्यर्थ हो जाता था। जिस व्यक्ति की सारी ज़िंदगी धर्म कमाते गुजर गई और अंतिम समय में उस व्यक्ति का धर्म टूट जाए तो क्या होगा? उस महंत को गुरु पातशाह जी की गहराई से की हुई बात समझ आयी, वह कैसा धर्म? जो केवल परछाई से ही टूट जाए। गुरु पातशाह जी ने भाई मरदाना जी की धुन से ऐसे अद्भुत सिख योद्धाओं का निर्माण किया जो एक-एक सिख सवा लाख के बराबर थे। इस रबाब की धुन का ही कमाल था जो भाई मती दास जैसे सिख तैयार हुए, जिनके आरे से दो टुकड़े कर दिए पर धर्म नहीं टूटा! ऐसे सिख भाई दयाला जी जैसे तैयार हुए जो उबलती देग में उबल गए पर अपना धर्म नहीं छोड़ा, भाई सती दास जी जैसे सिख जो रुई में लपेटकर जल गये पर अपना धर्म नहीं छोड़ा, ऐसे सिख अस्तित्व में आये उन्होंने बंद-बंद कटवा लिये, खोपड़ियां उतरवा ली परंतु धर्म पर अडिग रहें। मांओं ने बच्चों के टोटे-टोटे करवा कर झोलियों में डलवा लिए पर धर्म नहीं टूटा, चक्की में पीस दिए गए पर धर्म पर अडिग रहे। भाई मरदाना की रबाब ने दुनिया के अनेक लोगों को प्रभु-परमेश्वर से जोड़ने का काम किया है, यही वह रबाब है जिसने कर्मकांड पर करारा प्रहार किया, जिसे गुरुवाणी में इस तरह से अंकित किया है—

कुबुधि डूमणी कुदइआ कसाइणि पर निंदा घट चूहड़ी मुठी क्रोधि चंडालि॥

कारी कढी किआ थीऐ जाँ चारे बैठीआ नालि॥

(अंग क्रमांक 91)

अर्थात् गुरु पातशाह जी फरमाते है कि है पंडित! तेरे शरीर रूपी घर में कुबुद्धि का निवास है, जो डोमनी है, हिंसा का भी निवास है, जो कसाइन है, जो पराई निंदा करती है, वह सफाई का कार्य करती है और क्रोध चंडाल के रूप में रहता है। यह सभी वृत्तियाँ तेरे शुभ गुणों को लूट रही है, लकीरें खींचने का तुझे क्या लाभ है? जब यह चारों ही तेरे साथ विराजमान है।

यही वह रबाब थी, जिसने कोड़ा राक्षस को भी बंदा बना दिया था, यही वह रबाब थी जिसने ठगों की बस्ती में जाकर ठगों को भी ठग लिया था। जब भाई लालो जी को संबोधित कर गुरु पातशाह जी ने बाबर को जाबर कहा, जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है—

जैसी मै आवै ख़सम की बाणी तैसड़ा करी गिआनु वे लालो॥

पाप की जंञ लै काबलहु धाइआ जोरी मंगै दानु वे लालो॥

                         (अंग क्रमांक 722)

अर्थात् हे भाई लालो! मेरे मालिक-प्रभु की जैसी बाणी मुझे आई है, वैसा ज्ञान मैं तुझे वर्णन कर रहा हूं। पाप एवं जुल्म की बारात लेकर बाबर काबुल से आया है ओर जोर-जुल्म से भारत की हुकूमत रूपी कन्या का दान मांग रहा है।

उस कठिन समय में भी इसी रबाब ने अपनी धुन को प्रस्तुत किया था और बाबर के कहर को अपनी रबाब की धुन से उत्तर दिया था, इतनी ज़रूरत थी उस भाई मरदाना जी की कारण रबाब बजाने वाला भाई मरदाना अत्यंत ऊंची अवस्था का मालिक था।

दुनिया के बड़े-बड़े गुणी पुरुष शराब के प्याले में डूब कर रहे गये। डॉक्टर इकबाल मोहम्मद इकबाल, शिव कुमार बटालवी जैसे शायर को शराब के नशे ने डुबो दिया परंतु भाई मरदाना जी के रचित ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित दोनों सबद की रचनाओं ने एक अलग आयाम दिया हैं| ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने वचन किए कि मैं दुनिया को एक ऐसा कलाकार, एक ऐसा कीर्तन कार, एक ऐसा मरदाना, एक ऐसा गुणी पुरुष देकर जा रहा हूं जो दुनिया को केवल दुनिया के शराब के प्याले में नहीं डूबायेगा अपितु वह आप भी रब के नाम की खुमारी में रहेगा और भूले हुए लोगों को भी रब के नाम की खुमारी की मस्ती से जुड़ेगा। बिहागडा राग में भाई मरदाना जी के उच्चारित दोनों सबद् वर्तमान समय को भी सारगर्भित करते हैं, जिसे इस तरह से अंकित किया गया है—

    सलोकु मरदाना 1॥

कलि कलवाली कामु मदु मनूआ पीवणहारु॥

क्रोध कटोरी मोहि भरी पीलावा अंहकारु॥

मजलस कूड़े लब की पी पी होइ खुआरु॥

करणी लाहणि सतु गुड़ु सचु सरा करि सारु॥

गुण मंडे करि सीलु घिउ सरमु मासु आहारु॥

गुरमुखि पाईऐ नानका खाधै जाहि बिकार॥

            (अंग क्रमांक 553)

अर्थात् यह कलयुग कामवासना की मदिरा से भरा हुआ मदिरालय है, जिसे मन पीने वाला है। क्रोध का कटोरा मोह से भरा हुआ है, जिसे अहंकार पिलाने वाला है। झूठे लोभ की महफिल में कामवासना की मदिरा पी-पीकर जीव बर्बाद हो रहा है। इसलिये हे जीव! शुभ कर्म तेरा पात्र और सत्य तेरा गुड़, इससे तु सत्य नाम की श्रेष्ठ मदिरा बना। गुणों को अपनी रोटी, शीलता को अपना घी एवं लज्जा को ख़ाने हेतु मांसाहार बना। हे नानक! ऐसा भोजन गुरुमुख बनने से ही प्राप्त होता है, जिसे ख़ाने से सभी पाप विकार मिट जाते हैं॥

इसी प्रकार से भाई मरदाना जी द्वारा रचित दुसरा सबद् ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में इस तरह से अंकित है—

मरदाना 1॥

काइआ लाहणि आपु मदु मजलस त्रिसना धातु॥

मनसा कटोरी कूड़ि भरी पीलाए जमकालु॥

इतु मदि पीतै नानका बहुते खटिअहि बिकार॥

गिआनु गुड़ु सालाह मंडे भउ मासु आहारु॥

नानकु इहु भोजनु सचु है सचु नामु आधारु॥

काँयाँ लाहणि आपु मदु अंम्रित तिस की धार॥

सतसंगति सिउ मेलापु होइ लिव कटोरी अंम्रित भरी पी पी कटहि बिकार॥

                (अंग क्रमांक 553)

अर्थात् मनुष्य का तन एक घड़ा है, अहम मदिरा है और तृष्णा एक महफ़िल है। मन के मनोरथ और वासनाओं की कटोरी झूठ से भरपूर है, इस कटोरी को यमदूत पिलाने वाला है। हे नानक! इस मदिरा को पीने से जीव अत्याधिक पाप-विकार कमा लेता है| ब्रह्म-ज्ञान को अपना गुड़, प्रभु  भजन को अपनी रोटी और प्रभु भय को ख़ाने के लिये अपना मांसाहार बना। हे नानक! वह भोजन ही सत्य है, जिसके करने से सतनाम ही मनुष्य के जीवन का आधार बनता है। यदि यह शरीर घड़ा हो, आत्म ज्ञान की मदिरा हो तो नामामृत उसकी धारा बन जाती है। यदि सतसंगत से मिलाप हो, प्रभु में सुरति की कटोरी जो नामामृत से भरी हुई है, उसे पी-पीकर, पाप-विकार मिट जाते है। 

भाई मरदाना जी सन् 1534 ई. में अकाल चलाना (स्वर्गवास) कर गए थे। अपने अंतिम समय में गुरु पातशाह जी ने उन्हें वचन किए थे कि भाई मरदाना जब रबाब की तार टूटती है तो तुम लगा देते थे और जब ढीली होती थी तो उसे कस लेते थे परंतु अब जो यह तार टूट रही है, यह प्रभु के हाथ में है। ‘टूटी तंत रबाब की’ यह रबाब की तार रब के हाथ में है, गुरु पातशाह जी ने वचन किए कि भाई मरदाना तुम्हारे अकाल चलाना (स्वर्गवास) करने के पश्चात क्या मैं तुम्हारी देह को जल प्रवाह करूं? या अंतिम संस्कार करूं? या सुपुर्द ए खाक करूं? अपने इस अंतिम समय में भाई मरदाना जी ने भाव-विभोर होकर कहा था कि वाह बाबा इस अंतिम समय में भी देह के संबंध में वार्तालाप! गुरु जी ने प्रसन्न होकर कहा कि हम तुम्हारी देह को सुपुर्द-ए-खाक करेंगे, तुम्हारी क़ब्र बना कर वहां पर तुम्हारे नाम का पत्थर लगा देंगे। दुनिया तुम्हारी क़ब्र की पूजा करेगी, भाई मरदाना जी ने वचन किये कि बाबा जी पहले आपने मेरी बांह पकड़ी, मुझे कीर्तन की बक्शीश की, आप की संगत, आप के चरण और आप के सबद् के कारण मैं आज चमड़े की क़ब्र से पारायण कर रहा हूं परंतु आप जी मुझे चमड़े की क़ब्र से निकाल कर, पत्थर की क़ब्र में मत बसा देना, जहां पर आप निवास करोगे वहां पर मुझे भी अपने चरणों में निवास बक्श देना। संपूर्ण जीवन में मुझे अपने साथ रखा और अब अलग करने की बात कर रहे हो! गुरु पातशाह जी ने मुस्कुरा कर कहा कि जा भाई मरदाना. . . . .

जिथै मेरा वासा, औथे तेरा वासा! 

इस गुरुवाणी में इस तरह से भी अंकित किया गया है—

अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी॥

                        (अंग क्रमांक 969)

अर्थात् अब हमारा प्रभु से मिलन हो गया है और हृदय रूपी सिंहासन पर चढ़कर उसकी संगत पा गये है।

भाई मरदाना जी ने अपनी अंतिम श्वास गुरु पातशाह जी के गोद में ली थी। इतिहास में आता है कि भाई मरदाना जी की देह को रावी/खुर्रम नदी के जल में प्रवाहित किया गया था और उनके ब्रह्मलीन (अकाल चलाना) होने के पश्चात भाई मरदाना जी के सुपुत्र सजादा और रजादा को तलवंडी से बुलवाया गया था। जब सजादा गुरु जी के पास पहुंचा और देखा कि बाबा जी के साथ सिख सेवादार जुड़ कर बैठे हैं परंतु सजादा अपनी अधीर आंखों से अपने बाबा, अपने अब्बू को खोज रहा था, गुरु पातशाह जी के पास ही भाई मरदाना जी की रबाब रखी हुई थी, सजादा देखता है कि दाएं और बाएं कहीं भी उसे अपने अब्बू दिखाई नहीं पड़ रहे थे, उसने अधीरता से गुरु पातशाह जी से पूछा कि बाबा जी मेरे अब्बू कहां है? गुरु पातशाह जी ने वचन कर कहा सजादा तेरे अब्बू अपने घर चले गये है, उसने आश्चर्यचकित होकर पूछा हमारा कौन सा अपना घर? इस पर बाबा जी ने वचन किए कि यह घर तो सब ने छोड़ना है, तेरा अब्बू तो ख़ुदा के घर चला गया है। सजादा की आंखें भर आई थी, गुरु पातशाह जी ने वचन किये सजादा रोना मत, यदि कोई अपने घर जाता है तो इसमें कैसा रोना? जो घर से गुमराह हो जाते हैं उनके लिए रोया जाता है। बाबा जी ने वचन कर कहा कि क्या हम तुम्हें सिरोपाउ प्रदान करें? कौन सा सिरोपाउ तुम्हें चाहिये? दिन का चाहिये या दुनियावी चाहिये! उस सुपुत्र सजादा ने नतमस्तक होकर उत्तर दिया गुरु पातशाह जी वह ही सिरोपाउ मुझे भी प्रदान करो जो मेरे अब्बू को आप जी ने प्रदान किया था। गुरु पातशाह जी ने स्नेह पूर्वक सजादा के हाथों में रबाब थमा दी और कहा सजादा रबाब की धून छैड़, हम दोनों मिलकर उस अकाल पुरख की स्तुति करते हैं। इस तरह से गुरु पातशाह जी ने भाई मरदाना जी को नवाजा था। अफसोस! जिस भाई मरदाना जी को गुरु पातशाह जी ने चुना था उसे हमने कभी सम्मान नहीं दिया, वह भाई मरदाना जी थे, जो गुरु पातशाह जी के सजल नयनों में निवास करते थे, वह भाई मरदाना जी  थे, जो गुरु पातशाह जी के लबों की शान थे, वह भाई मरदाना जी  थे, जो गुरु पातशाह जी के हृदय में निवास करते थे। उस भाई मरदाना जी को सादर नमन है! जिन्होने ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ में अपना नाम अंकित किया है।

नोट— 1. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

साभार— लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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