भक्ति और शक्ति का पर्व: होला महल्ला

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ੴ सतिगुर प्रसादि॥

चलते-चलते. . . .

(टीम खोज-विचार की पहेल)

भक्ति और शक्ति का पर्व: होला महल्ला

भारतवर्ष में त्योहारों पर्वों एवं उत्सवों का ऋतुओं के साथ संयोजन, जनमानस की नैसर्गिक अभिव्यक्ति एवं धार्मिक व आध्यात्मिक परंपराओं से एक सूत्र में जुड़ा रहा है। इस देश के मुख्य त्योहारों में होली और दीपावली के पर्व का विशेष महत्व है, जिसे प्रत्येक भारतीय अत्यंत हर्षोल्लास और उमंग से मनाते हैं। निश्चित ही होली हमारी लोक संस्कृति और जीवन से जुड़ा पर्व है। यह पर्व हर्षोल्लास के साथ वातावरण में सतरंगी आभा प्रदान कर, हास्य, व्यंग, उमंग एवं भक्ति के भाव से हमें सराबोर कर देता है। दशम पिता श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी ने इस पर्व में भक्ति के साथ शक्ति को जोड़कर एक अद्भुत मिसाल कायम की है। ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के अनुयायी इस पर्व को होली के दूसरे दिवस ‘होला महल्ला’ के रूप में सम्पूर्ण श्रद्धा और भक्ति भाव से मनाते हैं।

‘होला महल्ला’ के इस पर्व को ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के अनुयायी सुबा पंजाब में स्थित श्री आनंदपुर साहिब जी मैं और सुबा महाराष्ट्र के अबचल नगर श्री हजूर साहिब जी नांदेड़ में अत्यंत हर्षोल्लास, उमंग, भक्ति भाव और वीर रस में सराबोर होकर, शस्त्रों का संचालन, प्रदर्शन (गतका विद्या) एवं घुड़सवारी के जोहर दिखाते हुए विभिन्न रंगों से संपूर्ण वातावरण को रंगीन कर मनाते हैं। इस विशेष दिवस पर ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के अनुयायी देश-विदेश से इन दोनों प्रमुख स्थानों पर एकत्र होकर, ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की छत्र-छाया में आयोजित समागम में उत्साह से भाग लेते हैं। इन समागमों में वीर रस से ओतप्रोत कथा, कीर्तन, ढाढ़ी जत्थे अपनी वारों और कविताओं का पठन उपस्थित श्रृद्धालुओं के सम्मुख पेश कर, उपस्थित श्रृद्धालुओं में विशेष जोश, उत्साह और चेतना का सर्जन करते है। इन समागमों में निहंग सिखों के द्वारा गतका विद्या (सिखों का मार्शल आर्ट)  के साथ-साथ घुड़सवारी के जोहर और साहसी खेलों का प्रकटीकरण श्रद्धालुओं का मन मोह लेता है। इन समागमों में सभी श्रद्धालु एक दूसरे को अबीर, गुलाल, गुलाब जल और अन्य रंगों से सराबोर करते हैं। इस दिवस पर युद्धाभ्यास के विभिन्न जोहर और ‘हल्ला बोल’ का प्रदर्शन सिख श्रद्धालुओं में भक्ति के साथ-साथ शक्ति को भी विशेष रूप से संचारित करता है। जब सारे सिख श्रद्धालु एक साथ ही हल्ला बोल में ‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ का जयघोष करते हैं तो नजारा देखते ही बनता है।

इस पर्व के माध्यम से ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ ने देश में एक बहुत बड़े परिवर्तन का आगाज किया था। उस समय में शत्रु सेना के हाथ में जो तलवार थी वह अहम् का प्रतीक थी परंतु ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ ने अपने सिखों को तलवार नहीं अपितु कृपाण प्रदान करी, जो किसी का हक नहीं मारती थी अपितु हक दिलाती थी। निश्चित ही श्रद्धा, सिमरन और बंदगी से मिली हुई कृपा है कृपाण! गुरु की बख्शीश का प्रतीक है कृपाण! इस रंगों के पर्व के माध्यम से गुरु पातशाह जी ने संदेश दिया कि, मैं जो रंग तुम्हें दे रहा हूं वह अध्यात्म का रंग है, इस रंग को कभी भी उतारने की आवश्यकता नहीं है। जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है

काइआ रंङणि जे थीऐ पिआरे पाईऐ नाउ मजीठ॥

रंङण वाला जे रंडै साहिबु ऐसा रंगु न डीਠ॥

जिन के चोले रतड़े पिआरे कंतु तिना कै पासि॥

धूड़ि तिना की जे मिलै जी कहु नानक की अरदासि॥ (अंग क्रमांक 722)

हे मेरे प्यारे! यदि यह काया ललारी की भट्टी बन जाए और उसमें नाम रूपी मजीठ डाला जाए। यदि रंगने वाला मेरा मालिक स्वयं मेरे तन रूपी चोले को रंगे तो उसे ऐसा सुन्दर रंग चढ़ जाता है, जो पहले कभी देखा नही होता। हे प्यारे! जिन जीव  स्त्रियों के तन रूपी चोले नाम रूपी रंग में रंगे हुए हैं, उनका पति प्रभु सर्वदा उनके साथ रहता है। नानक की प्रार्थना है कि मुझे उनकी चरण धूलि मिल जाए॥

दशमेश पिता श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी ने इस उत्सव का प्रारंभ सन् 1700 ईस्वी. में श्री आनंदपुर साहिब जी में किया था। उस समय में उनके एक अत्यंत प्यारे, अनन्य भक्त विद्वान सिख भाई नंद लाल जी थे, जिसे समय की हुकूमत ने ज़बरजस्तदस्ती कर, मुस्लिम धर्म स्वीकार करवाना चाहा था। आप जी दशमेश पिता श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी की शरण में श्री आनंदपुर साहिब जी में आ गए थे। आप जी ने इस गुरु दरबार के सानिध्य में रहकर संपूर्ण भक्ति भाव से अपनी रचनाएँ फारसी भाषा में रचित की थी, होला महल्ला पर्व पर आप जी की निम्नलिखित रचनाएँ प्रसिद्ध है, जिसे इस प्रकार से अंकित किया गया है—

बाहोश बाश कि हंगामा-ए-नौबहार आमद

बहार आमदो करार आमदो यार आमद

अर्थात् दुनिया में जो शोरगुल है वह संयम रहित है परंतु मेरे आध्यात्मिक गुरु की आहट (आमद) में जो शोर मुझे सुनने को मिला है निश्चित ही वह सच्चा अध्यात्म है। इस अध्यात्म में परमात्मा की स्तुति का संगीत है, यदि इस आनंद को प्राप्त करना चाहते हो तो महल्ला (आक्रमण) कर अपने अवगुणों और अज्ञानता को समाप्त करें। आप जी ने अपनी एक अन्य फारसी भाषा की रचना में अत्यंत भक्ति-भाव से अंकित किया है—

गुले होली ब बागे दर बू करद, लबे चूं गुंचा रा फरखंदर खू करद॥

गुलाबो अंबरो मुशकों अबीरो, चूं बांगा बारशे अज सू बसू करद॥

जहे पिचकारीए पुर जुफरानी, कि हर बेरंग रा खुसरंगे बू करद॥

गुलाल अफशानी अज दसते मुबारक, ज़मीनों आसमां रा सुरखरु करद॥

दो आलम गशत रंगी अज तुफलैश, चु शाहम जामह रंगी दह गुलू करद॥

अर्थात् जब धरती पर गुलाल और रंगों की वर्षा होती है तो सभी कुछ रंगों से सराबोर होता है, ‘होला महल्ला’ के पर्व पर ‘श्री आनंदपुर साहिब जी’ की धरती फूलों की खुशबू की तरह महकती है। गुलाल, गुलाब और खुशबू की महक से आसमान रंगों से सुर्ख हो जाता है, गुरु सिखों के दोनो जहान उसकी रहमत से रंगीन हो जाते है, जिन्हे सतगुरु जी के दर्शन  दीदार हो जाते है, उनकी समस्त स्वयं संचित अभिलाषायें पूर्ण होती है। इस पर्व पर गुरु के ख़ालसाओं के द्वारा मस्ती में आकर हर्षोल्हास से एक गीत गुनगुनाया जाता है, जिसके बोल इस तरह है—

लोकां दी बोलीआं ते खालसे दा होला ऐ॥

लोकां दी होलीआं ते खालसे दा बोला ऐ॥

लोकां दिया पगा ते खालसे दा दसतारा ऐ॥

लोकां दिया दाढ़ीयां ते खालसे दा दाहडा़ ऐ॥

लोकां दिया द‍ाल ते खालसे दा दाला ऐ॥

लोकां दिया सबजी ते खालसे द‍ा भाजा ऐ॥

लोकां दे पतीले ते खालसे दा देगा ऐ॥

लोकां दिया तलवारां ते खालसे दा तेगा ऐ।

लोकां लेई दिन ते खालसे दा प्रकाशा ऐ॥

लोकां लेई बेनती ते खालसे दा अरदासा ऐ॥

लोकां लेई पागल ते खालसे दा मसतानां ऐ॥

लोकां लेई नोहणा ते खालसे दा इसनाना ऐ॥

अमृतसर जिले दे विच पिंड तसरिका ऐ॥

चारे पासे खालसे दा चलदा पिआ सिका ऐ॥

लोकां दिया बोलीआं ते खालसे दा होला ऐ॥

लोकां दिया होलीआं ते खालसे दा होला ऐ॥

गुरु पातशाह जी ने इस पर्व के माध्यम से अपने ख़ालसाओं को युद्धाभ्यास के लिए प्रेरित कर, नकली (मसनूई) लड़ाई करवा कर, जोश भरकर, अपने सिखों को हमेशा तैयार-बर-तैयार रहने का संदेश इस पर्व के माध्यम से दिया कारण प्रत्येक सिख को शस्त्र विद्या के अभ्यास का नितनेमी होना आवश्यक है। साथ ही गुरु पातशाह जी ने इस पर्व के माध्यम से जात-पात के भेद को समाप्त कर सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है। जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है—

नीचा अंदरि नीच जाति नीची हू अति नीचु॥

नानकु तिन कै संगि साथि वडिआ सिउ किआ रीस॥ 

            (अंग क्रमांक 15) 

अर्थात निम्न में जो निम्न जाति के लोग हैं और फिर उनमें से भी जो अति निम्न प्रभु भक्त हैं, सद्गुरु जी फरमाते हैं कि है निरंकार! उनके साथ मेरा मिलाप करो, माया वह ज्ञान अभिमान के कारण वह बड़े हैं उनसे मेरी क्या समानता?

इस पर्व के माध्यम से गुरु पातशाह जी ने समाज के चारों वर्णों को जुल्म के खिलाफ लड़ने के लिए शस्त्र धारी बनाकर, अपनी सामाजिक समरसता के सिद्धांत को बल दिया था। गुरु पातशाह जी ने इन शस्त्रधारी सिखों को शास्त्र का आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान कर खालसे को विराट और विशाल रूप प्रदान किया इसलिए तो इस फ़ौज को ‘गुरु की लाडली फ़ौज’ कहकर भी सम्मानित किया गया है। निश्चित ही गुरु जी ने एक नील वस्त्रधारी मार्शल कौम को देश और धर्म की रक्षा के लिए जन्म दिया था जो कि जुल्मों के खिलाफ लगातार संघर्ष करती रही है।

इस पर्व के माध्यम से गुरु पातशाह जी ने अपने सिखों को देश और धर्म की रक्षा के लिए शहीद होने का ज़ज्बा प्रदान किया, जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है—

श्लोक महला 5॥

पहिला मरणु कबूलि जीवण की छडि आस॥

होहु सभना की रेणुका तउ आउ हमारै पासि॥

          (अंग क्रमांक 1102)

अर्थात् सर्वप्रथम मृत्यु को कबूल करो, जीने की आशा छोड़ दो, सबकी चरणरज बन जाओ, हे मानव! तो ही हमारे पास आओ॥

उपरोक्त उल्लेखित इस संपूर्ण विश्लेषण से स्पष्ट है कि ‘होला महल्ला गुरु पंथ ख़ालसा’ का एक विशेष पर्व है, जिसे हम इस तरह से भी विश्लेषित कर सकते हैं कि होला अर्थात आध्यात्मिक रंग में स्वयं को रंगने का एक संदेश और महल्ला अर्थात आक्रमण करना और यह आक्रमण हमें जुल्म, जालिम और अवगुणों पर करना है। हम इसे इस तरह से भी विश्लेषित कर सकते हैं कि अपने शौर्य को युद्धाभ्यास के माध्यम से प्रकट कर, इस पर्व को हर्षोल्लास और उमंग से मनाना ही ‘होला महल्ला’ है। गुरु पातशाह जी ने इस सांस्कृतिक धरोहर की समझ को ही पर्व बना दिया जो कि निश्चित कमाल है, निश्चित ही डरपोकों के डर को शौर्य में बदलने का यह पर्व है ‘होला महल्ला’!

नोट 1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

साभार— लेख में प्रकाशित फारसी भाषा की वाणी का भावार्थ ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के महान कथाकार ज्ञानी हरिंदर सिंह जी (अलवर निवासी) जी ने किया है एवं  लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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