बाबा दीप सिंह जी के प्रकाश पर्व पर विशेष

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

चलते-चलते. . . .

(टीम खोज-विचार की पहेल)

प्रासंगिक—

बाबा दीप सिंह जी के प्रकाश पर्व पर विशेष–

शीश तली पर रखकर प्रण पूरा करने वाला सूरमा: शहीद बाबा दीप सिंह जी 

जु लरै दीन के हेत सुरा सोई… सुरा सोई॥

गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसानै घाउ॥

खेतु जु माँडिओ सूरमा अब जूझन को दाउ॥

सुरा सो पहचानिऐ जु लरै दिन के हेत॥

पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू ना छाडै खेतु॥

जु लरै दीन के हेत सुरा सोई… सुरा सोई ॥

       (अंग क्रमांक 1105)

अर्थात्….

वह ही शूरवीर योद्धा है जो दीन-दुखियों के हित के लिए लड़ता है। जब मन-मस्तिष्क में युद्ध के नगाड़े बजते हैं तो धर्म योद्धा निर्धारित कर वार करता हैं और मैदान-ए-ग़िरफ्तार में युद्ध के लिए ‘संत-सिपाही’  हमेशा तैयार-बर-तैयार रहता  हैं। वह  ‘संत-सिपाही’ शूरवीर हैं, जो धर्म युद्ध के लिए जूझने को तैयार रहते हैं। शरीर का पुर्जा-पुर्जा कट जाए परंतु आखरी सांस तक मैदान-ए-ग़िरफ्तार में युद्ध करता रहता है।

भक्त कबीर जी द्वारा रचित यह वाणी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में ‘मारू राग’ के अंतर्गत अंकित है। वीर रस से ओत-प्रोत इस ‘सबद’ (पद्य) जैसी रचनाओं से प्रेरित होकर जो ‘संत-सिपाही’,  धर्म योद्धा, ‘देश-धर्म’ की रक्षा के लिए और जुल्मों के खिलाफ लड़ते हुए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर वीरगती को प्राप्त होता है, वह ‘शहीद’ कहलाता है‌।

शहीद बाबा दीप सिंह जी का जन्म 26 जनवरी सन् 1682 ई. को ग्राम पहुविंड ज़िला अमृतसर में हुआ था। आप की माता जी का नाम माता जिऊनी और पिता का नाम भगतु जी था। आप जी को दीपा के नाम से संबोधित किया जाता था। युवावस्था में आप जी को उनके माता-पिता सन् 1699 ई. में  दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी’ के दर्शन-दीदार करने हेतु श्री आनंदपुर साहिब में लेकर आए थे। युवक दीपा ने खंड़े-बाटे की पाहुल का अमृत छककर (अमृत पान कर) गुरु जी के तैयार-बर-तैयार दीप सिंह नाम से सिंह सज गए थे।

आप जी ने गुरु सिखी को जीवन का सूत्र मानकर अपने माता-पिता की आज्ञा से स्वयं के जीवन को गुरु चरणों में समर्पित कर दिया था। युवक दीप सिंह ने ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ के सानिध्य में रहते हुए अपनी रुचि अनुसार घुड़सवारी और शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त की थी। साथ ही आप जी संस्कृत, ब्रजभाषा और गुरुमुखी की शिक्षाओं को ग्रहण कर उच्च शिक्षित हो गए थे।

गुरु जी की आज्ञा अनुसार आप जी गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर अपने परिवार के साथ जीवन यापन करने लगे थे। कुछ समय पश्चात आपको खबर मिली कि मुगलों से युद्ध करते हुए गुरु जी शहीद हो गए है परंतु पश्चात ज्ञात हुआ कि यह खबर झूठी है और आप जी  ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ के दर्शनों के लिए साबो की तलवंडी नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस स्थान पर बाबा दीप सिंह जी ने गुरु जी के चरणों में शीश रखकर, हुए युद्ध में शामिल न होने के कारण दिल से माफी मांगी थी। गुरु जी ने बाबा दीप सिंह जी को गले लगा कर दूसरे महत्वपूर्ण कार्यों को पूर्ण करने हेतु प्रोत्साहित किया था।

इस साबो की तलवंडी (तख़्त दमदमा साहिब जी) नामक स्थान पर उन दिनों में गुरु जी भाई मनी सिंह जी से ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की पुनर्रचना करवाकर संकलित कर रहे थे। उस समय   ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब साहिब जी’ में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ द्वारा रचित गुरु वाणीयों  को भी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित कर पूर्ण रूप से संकलित करवाने का महत्वपूर्ण कार्य   ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ के द्वारा किया जा रहा था। उस समय 48 सिखों को गुरुवाणी कंठस्थ करवाई गई थी और उन सिखों में से एक बाबा दीप सिंह जी भी थे।

‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ ने साबो की तलवंडी से प्रस्थान किया तो इस गुरुमत के प्रमुख विद्यालय केंद्र के प्रमुख के रूप में आप जी  ने बाबा दीप सिंह जी को मनोनीत किया था और गुरु जी ने वचन किए थे कि भविष्य में इस स्थान को सिखों  की काशी के रूप में सम्मान प्राप्त होगा। गुरु जी के वचनों अनुसार बाबा दीप सिंह जी ने इस गुरुमत के प्रमुख विद्यालय केंद्र को दमदमी टकसाल के नाम से निरूपित किया था।

सन् 1709 ईस्वी. में भाई दीप सिंह ने बाबा बंदा सिंह बहादुर जी की फ़ौज में शामिल होकर सरहिंद फतेह के समय युद्ध के अग्रिम मोर्चे पर रहकर अभूतपूर्व शौर्य का प्रदर्शन कर निश्चय कर अपनी जीत को हासिल किया था ।

सन् 1756 ईस्वी. में जब चौथी बार देश में आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली ने आक्रमण किया तो पूरे देश में लूट-मार कर भारत की बहन, बेटियों को क़ैद कर जब वह पुनः काबुल जा रहा था तो उस समय बाबा दीप सिंह जी द्वारा निर्मित मिस्सल शहीदां की नामक फ़ौजी टुकड़ी ने गोरिल्ला युद्ध के अनुसार पीपली और मार्कण्डेय नामक घने ग़िरफ्तारलों में शत्रु सेना पर अचानक आक्रमण कर लगभग 300 देश की बहन-बेटियों को आज़ाद करवा कर सुरक्षित उन्हें उनके घरों तक पहुंचाने का अभूतपूर्व पराक्रम वाला कार्य किया था। साथ ही देश की मूल्यवान पशु-संपदा और धन-दौलत को भी इस आक्रांता अहमद शाह अब्दाली की सेना से पुनः छुड़वा लिया था।  उस समय इन 300 बहन बेटियों में से कई मुस्लिम परिवार की बेटियां भी थी परंतु किसी भी प्रकार का भेदभाव ना करते हुए इन समस्त देश की बेटियों को उनके घरों में सुरक्षित पहुंचाया था। सिखों के उच्च चाल-चलन और चरित्र के कारण ही उस समय मुस्लिम बेटियां बाबा जी से गुहार लगाती थी—

 मोहड़ी बाबा कच्छ वालीआं नही ते गई रण वसरे नु॥

जब अफगानी आक्रमणकारी जहान ख़ान ने श्री दरबार साहिब जी पर आक्रमण करने का मन सुबा बना लिया था तो उस समय बैसाखी का पर्व समीप ही था। 13 अप्रैल सन् 1757 ई. को गुरु के खालसे बैसाखी पर्व को मनाने हेतु श्री दरबार साहिब में एकत्रित हो रहे थे तो उस समय एक बड़ी, विशाल फ़ौज की सहायता से जहान ख़ान ने लाहौर से कुच कर श्री दरबार साहिब अमृतसर पर आक्रमण कर दिया था। उस समय कई सिखों के युद्धक जत्थे देश में विभिन्न मुहिमों के तहत विभिन्न स्थानों पर गए हुए थे। इस कारण जहान ख़ान की इस विशाल सेना का सिख योद्धा मुकाबला करने में क़मजोर पड़े थे और बहुत सारे सिख योद्धा इस युद्ध में शहीद हो गए थे। जहान ख़ान ने श्री दरबार साहिब पर कब्जा कर लिया था।

इस अफगानी आक्रमणकारी जहान ख़ान ने दरबार साहिब के पवित्र सरोवर में कचरा फिकवा दिया था और गायों की हत्या कर उनके सिरों को काटकर दरबार साहिब के मुख्य कक्ष में रखवा दिया था। जिससे इस पवित्र वातावरण में दुर्गंध फैल गई थी, उस समय श्री दरबार साहिब जी में कई भवनों को भी ध्वस्त कर दिया गया था। इस जहान ख़ान ने हाहाकार मचाते हुए श्री दरबार साहिब के चारों ओर अपनी सेनाओं को तैनात कर दिया था।

जब इस घटना की सूचना बाबा दीप सिंह जी को प्राप्त हुई तो वह अत्यंत आक्रोशित हो गए थे और नगाड़े बजाकर युद्ध करने के लिए तैयार-बर-तैयार होने का संकेत सिख योद्धाओं को दिया था।

इस साबो की तलवंडी पर सिख योद्धा इकट्ठा होना प्रारंभ हो चुके थे। इन योद्धाओं के सम्मुख उपस्थित होकर बाबा जी ने हुंकार भर के वचन दिए कि श्री दरबार साहिब को मुक्त करने हेतु हमें धर्म युद्ध करना होगा और श्री दरबार साहिब जी की बेइज्जती का बदला अवश्य लिया जाएगा। मृत्यु को गले लगाने हेतु शहीदों की बरात ज़रूर निकलेगी। इस शहीदों की बरात में शामिल होने के लिए केसरी बाना और शस्त्रों के साथ तैयार-बर-तैयार हो जाओ।

देखते ही देखते ‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ के जयकारों के साथ धर्म की शमा पर मर मिटने वाले शहीद परवानो ने शहादत का जाम पीने हेतु अपनी कमर पर कमरकस्सा, कस कर बांध लिया था। आसपास के समस्त ग्रामों में इस धर्म युद्ध की सूचना दे दी गई थी। चारों और से सिख योद्धा पूरी तैयारी के साथ एकत्र होना प्रारंभ हो गए थे।

जब यह मिस्सल शहिदां नामक युद्धक दस्ता आक्रमण के लिए तैयार हो गया तो बाबा दीप सिंह जी ने अपने खंडे़ से ज़मीन पर एक लकीर को खींच दिया था और हुंकार भरते हुए कहा कि इस युद्ध के दस्ते में वह सिख योद्धा ही शामिल हो सकते हैं जो मृत्यु या फतेह की कामना करते हैं। यदि हम श्री दरबार साहिब को आज़ाद नहीं करवा पाए तो इस रणभूमि में हमारे द्वारा वीरगति को पाना निश्चित है और हम अपने प्राणों की आहुति को गुरु चरणों में न्योछावर कर देंगे। साथ ही सभी सिख योद्धाओं के सम्मुख बाबा दीप सिंह जी ने वचन किए कि मैं क़सम खाता हूं कि मैं अपने शीश को गुरु चरणों में अर्पित करूंगा और यदि कोई योद्धा मृत्यु से घबराता है तो वह अभी पुनः वापस जा सकता है। जो मृत्यु को आलिंगन करना चाहते हैं वह इस खंडे के द्वारा खींची गई लकीर के पार आकर हमारे साथ आक्रमण के लिए आ सकते हैं। लकीर के इस तरफ या उस तरफ के वचन सुनकर 500 योद्धाओं ने प्रण लेकर बाबा दीप सिंह जी के साथ युद्ध के लिए कुच किया था।

उस समय बाबा जी की आयु 75 वर्ष से भी ज़्यादा थी और जब इस जत्थे ने अमृतसर की और  प्रयाण किया तो रास्ते में अलग-अलग सिख योद्धा अलग-अलग ग्रामों से इनके साथ इन शहीदों की बरात में शामिल हो रहे थे। जब यह जत्था तरनतारन नामक स्थान पर पहुंचा तो इस जत्थे में 5000 के लगभग सिख योद्धा शामिल हो चुके थे।

अफगान आक्रमणकारी जहान ख़ान को जब ज्ञात हुआ कि सिख योद्धा हमला करने हेतु आ रहे हैं तो वह अपनी बीस हजार  की फ़ौज के साथ अमृतसर शहर के बाहर ग्रोवल नामक स्थान पर पहुंच गया। सिख योद्धा जो कि दरबार साहिब की बेइज्जती के लिए इस युद्ध को जान की बाजी लगाकर लड़ रहे थे। इन योद्धाओं के सम्मुख लूटमार करने वाली मुगल सेना के किराए के सैनिक नही टिक पाये, इस भीषण युद्ध में सिखों का पलड़ा भारी था। मुगल सैनिकों ने अपनी जान बचाकर भागना ही उत्तम समझा था।

सिख योद्धा भाई दयाल सिंह अपने 500 साथियों के साथ शत्रु सेना को चीरते हुए, जहान ख़ान पर टूट पड़े थे परंतु जहान ख़ान वहां से पीछे हट गया था। उस समय भाई दयाल सिंह का सामना उसके सिपहसालार याकूब ख़ान से हो गया था। भाई दयाल सिंह जी ने गुरु जी गदा नामक शस्त्र से ऐसा अचूक वार किया कि याकूब ख़ान जगह पर ही ढेर हो गया था। दूसरी और जहान ख़ान का प्रमुख फ़ौजदार जमाल ख़ान ने आगे से होकर बाबा दीप सिंह को ललकार कर आक्रमण कर दिया था और घमासान युद्ध हुआ था। बाबा जी का घोड़ा बुरी तरह ज़ख्मी हो चुका था, बाबा जी पैदल युद्ध के मैदान में आगे बढ़ने लगे थे। जमाल ख़ान और बाबा दीप सिंह दोनों ने अपने शस्त्रों से एक दूसरे पर घातक वार किए थे। इस घातक वार से दोनों के ही सिर धड़ से अलग हो गए थे। दोनों ओर की सेनाएं इस दृश्य को अचंभित होकर देख रही थी। पास ही खड़े भाई दयाल सिंह ने ऊंची आवाज में वचन किए—

प्रण तुम्हारा दीप सिंह रहयो॥

गुरपुर जास सीस मै देहऊ॥

मे ते दोए कोस इस ठै हऊ॥

अर्थात बाबा दीप सिंह जी आपका प्रण तो गुरु नगरी में जाकर शीश देने का था। पर वह तो अभी दो कोस दूर है।

यह सुनते ही बाबा दीप सिंह जी उठ खड़े हुए अपने आत्म बल से अपना कटा हुआ शीश हथेली पर रखकर दूसरे हाथ से खंडा चलाते हुए ऐसा भीषण युद्ध किया कि शत्रु सेना में हाहाकार मच गया। मुगल सैनिक कहने लगे कि हम जिंदा सिखों से तो युद्ध कर सकते हैं परंतु शीश तली धर कर युद्ध करने वाले योद्धा से हम युद्ध नहीं कर सकते हैं। बाबा जी खंडे को चलाते हुए श्री दरबार साहिब पहुंचे और उन्होंने इस युद्ध पर विजय हासिल कर अपनी बेइज्जती का बदला ले लिया था। बाबा दीप सिंह जी ने गुरु दरबार में पहुंचकर अपना शीश अर्पित कर अपनी क़सम को निभाते हुए शहादत पाई थी। साथ ही अनेक सिख योद्धा इस युद्ध में शहीद हुए थे।

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। अपनी क़सम को निभाने हेतु आत्मबल से सीमा में रहकर अपने प्रण को बाबा दीप सिंह जी ने पूरा कर श्री दरबार साहिब की बेइज्जती का बदला ले लिया था।

बाबा दीप सिंह जी का अंतिम संस्कार श्री अमृतसर नगर में चाटीविंड दरवाजे के पास गुरुद्वारा रामसर साहिब के निकट किया गया था। वर्तमान समय में इस पवित्र स्थान पर गुरुद्वारा श्री शहीद गंज साहिब जी सुशोभित है। बाबा दीप सिंह जी ने श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब की परिक्रमा में जहां शीश अर्पित किया था, उस स्थान पर भी वर्तमान समय में आप जी की स्मृति में गुरुद्वारा साहिब सुशोभित है। बाबा दीप सिंह जी का खंडा श्री अकाल तख़्त साहिब जी में सुशोभित है।

आज बाबा दीप सिंह जी के जन्म पर्व के विशेष दिवस पर इस अनमोल-स्वर्णिम इतिहास को याद कर, ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के एक ऐसे सूरमा की स्मृति को हम उजाला दे रहें है, जिसने मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने शीश को तली पर रख अपने प्रण को पूरा किया था। गुरु पंथ ख़ालसा के ऐसे शहीद महान योद्धा बाबा दीप सिंह जी को सादर नमन!

नोट 1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

साभार लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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भाई मरदाना जी के 564 वें प्रकाश पर्व पर विशेष–

KHOJ VICHAR CHANNLE


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