प्रसंग क्रमांक 6 : पंजाब में हुई नौवें पातशाह की गिरफ्तारी
(सफ़र-ए-पातशाही नौंवीं — शहीदी मार्ग यात्रा)
संगत जी, वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतेह!
श्री आनंदपुर साहिब से आरंभ हुआ यह पावन शहीदी-मार्ग, धीरे-धीरे वह अध्याय खोलता चलता है जहाँ से मानव इतिहास को अमरत्व प्राप्त हुआ। इसी धारा में आज हम पहुँचते हैं—मलकपुर रंगड़ा, उस स्थल पर, जिसके साथ नौवें पातशाह, धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की यात्रा का एक संवेदनशील प्रसंग जुड़ा हुआ है।
भरतगढ़ से मलकपुर रंगड़ा तक- यात्रा का अगला पड़ाव
श्री आनंदपुर साहिब से संगत को वापस लौटाकर, गुरु साहिब जी प्रथम रात्रि विश्राम भरतगढ़ में करते हैं। अगली सुबह गुरु जी के घोड़ों की टापों ने जिस दिशा को पकड़ा, वह दिशा थी—मलकपुर रंगड़ा।
आज इसी स्थान पर स्थित गुरुद्वारा साहिब के दर्शन करते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो समय की धूल हटती जा रही हो और इतिहास स्वयं हमारी ओर बढ़कर हमें अपने भीतर ले जा रहा हो।
पृष्ठभूमि में जैसे कोई पार्श्व-गायन उठता है— “समय की परतों में दबी, अमर-यातना की कहानी…”
मलकपुर रंगड़ा से जुड़ी दो ऐतिहासिक परंपराएँ
इस स्थान से संबंधित इतिहास दो स्वरूपों में सामने आता है।
1. केसर सिंह छिब्बर की परंपरा
प्रसिद्ध इतिहासकार क़ेसर सिंह छिब्बर के अनुसार- जब श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी मलकपुर रंगड़ा पहुँचे, तो गाँव के कुछ रंगड़ लोगों ने सरहिंद प्रशासन को यह सूचना भेज दी कि- “गुरु तेग बहादुर पातशाह इस गाँव में ठहरे हुए हैं।” धर्मांध मुगल शासन के उस दौर में औरंगज़ेब ने स्पष्ट आदेश दिया हुआ था कि गुरु पातशाह को हर परिस्थिति में गिरफ्तार किया जाए। इतिहासकार केसर सिंह छिब्बर लिखित इतिहास बताता है कि- गुरु साहिब जी को यहीं, मलकपुर रंगड़ा से पहली बार गिरफ्तार किया गया। और फिर उन्हें दिल्ली की ओर ले जाया गया, जहाँ अंततः वे मानवता के कल्याण हेतु शहीद हुए।
स्थानीय बुज़ुर्ग भी यही बताते हैं कि यह घटना श्रावण मास में घटी थी और दिनांक के रूप में वह “12 जुलाई 1675 ई.” का उल्लेख करते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ भी यह कहते हैं कि गुरु साहिब 12 जुलाई को इस स्थान पर अवश्य पहुँचे थे।
सवाल- यदि यहाँ गिरफ्तारी हुई, तो आगरा की गिरफ्तारी का उल्लेख क्यों?
इतिहास का यह प्रश्न बार-बार उठता है- यदि गुरु साहिब को 12 जुलाई को यहाँ गिरफ्तार कर लिया गया था, तो “आगरा में गिरफ्तारी” कैसे संभव है? स्थानीय बुज़ुर्ग इस पर एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण रखते हैं- श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी को एक नहीं, बल्कि तीन स्थानों पर गिरफ्तार किया गया था। यह स्थान पहली गिरफ्तारी से संबधित माना जाता है। बुज़ुर्ग बताते हैं कि उस समय भाई मति दास जी उसी गाँव के किसी घर में स्थित कुएँ से पानी लेने गए थे। वहीं से रंगड़ लोगों को ज्ञात हुआ कि गुरु पातशाह जी इस गाँव में पधारे हुए हैं।
पुरातन कुएँ का रहस्य
मलकपुर रंगड़ा का वह पुराना कुआँ आज विलुप्त है। जब संगत और अनेक बुज़ुर्गों से जानकारी ली गई, तो सभी ने एक स्वर में कहा- “पुरातन कुआँ अब विलुप्त हो चुका है।” इस गाँव में आज लगभग 12 कुएँ मौजूद हैं, परंतु कहा जाता है कि उनमें से कोई भी गुरु काल का नहीं है एक अन्य बुज़ुर्ग बताते हैं कि- पहले यहाँ आबादी नहीं थी। गाँव दूसरी ओर बसा था। बाद के 100 वर्षों में यह क्षेत्र आबाद हुआ। यहाँ उस समय हिंदुओं और मुसलमानों की मिश्रित बस्तियाँ थीं तथा आज भी गाँव में चार पुरानी मस्जिद हैं।
इतिहासकारों का मत- क्यों इसे अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता?
अधिकांश विद्वान इतिहासकार यह मान्यता स्वीकार नहीं करते कि गुरु साहिब की पहली गिरफ्तारी मलकपुर रंगड़ा में हुई थी। इसका कारण यह है कि प्रमाणित इतिहास के अनुसार- गुरु साहिब पटियाला गए, बहादुरगढ़ में चौमासा बिताया फिर धमतान पहुँचे, खड़कपुर गए और फिर आगरा भी गए। यदि गिरफ्तारी मलकपुर रंगड़ा में ही अंतिम रूप से हो गई होती, तो यह संपूर्ण शहीदी मार्ग- धमतान से लेकर आगरा तक—इतिहास में लुप्त हो जाता, जो संभव नहीं।
स्थानीय बुज़ुर्ग की एक मार्मिक बात
एक बुज़ुर्ग के शब्द आज भी कानों में गूँजते हैं- “इतिहास न पूरा सच होता है, न पूरा झूठ। इतिहास तो इतिहास होता है, हम केवल वही कह सकते हैं जो लिखा मिला और वही जो हमारे पूर्वजों ने हमें बताया।”
इतिहास की यही दोहरी परंपरा- लिखित स्रोत और मौखिक परंपरा- मिलकर इस स्थल को विशेष महत्व प्रदान करती है।
मलकपुर रंगड़ा : गिरफ्तारी, इतिहास-विवाद और रोपड़ की कोठरी
डॉ. खोजी बताते हैं कि- “जब मैं पहले यहाँ आया था, तब यह गुरुद्वारा ‘श्री गुरु सिंह सभा’ के नाम से जाना जाता था; परंतु इतिहास का अध्ययन आरंभ होते ही संगत की भावना के अनुरूप इस स्थान का नामकरण बदलकर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी गुरुद्वारा’ कर दिया गया।” स्थानीय बुजुर्गों के अनुसार 18 अप्रैल, गुरु साहिब के प्रथम प्रकाश दिवस पर श्री अखंड पाठ रखा गया और उसी पावन अवसर पर गुरुद्वारे का नामकरण औपचारिक रूप से गुरु तेग बहादुर साहिब जी के नाम से कर दिया गया।
गिरफ्तारी को लेकर विभिन्न ऐतिहासिक मत
इस विषय पर विद्वानों की राय भिन्न-भिन्न है। विशेषकर महान इतिहासकार डॉ. गंडा सिंह के लिखित विवरण तथा भट्ट-वहियों के स्रोतों के अनुसार- श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी को आगरा से गिरफ्तार किया गया था और 11 नवंबर को दिल्ली में शहीद किया गया। दूसरी ओर, स्थानीय बुज़ुर्गों का मत है कि- आगरा में गिरफ्तारी बाद में हुई थी। गुरु साहिब को पहले यहाँ, मलकपुर रंगड़ा में गिरफ्तार कर एक-दो दिन बाद छोड़ दिया गया था।
यह भी जनमानस में प्रचलित रहा है कि- जब गुरु साहिब यहाँ से आगे बढ़े, तब रोपड़ के फ़ौजदार ने उन्हें दो दिन तक हिरासत में रखा और फिर आगे जाने दिया।
चार महीने की गिरफ्तारी और ऐतिहासिक प्रश्न
इतिहास में प्रचलित चार महीने की कैद का वर्णन यदि अक्षरशः मान लिया जाए, तो कई ऐतिहासिक स्थल अपने आप खारिज हो जाते हैं। क्योंकि- 11 जुलाई 1675 ई. को गुरु साहिब चलकर निकले और 11 नवंबर 1675 ई. को शहीद हो गए।
इन 124 दिनों के विस्तृत मार्ग में- धमतान साहिब, खड़कपुर, आगरा तथा कई अन्य गाँव-शहर स्पष्ट रूप से उल्लेखित हैं। यदि पहली ही गिरफ्तारी मलकपुर रंगड़ा को मान ली जाए तो- पूरा 124 दिनों का ऐतिहासिक शहीदी मार्ग ही समाप्त हो जाएगा। इसीलिए यह विषय अत्यंत गंभीर ऐतिहासिक पुनर्विचार की माँग करता है।
साइन बोर्ड पर अंकित विवरण : 12 जुलाई 1675 ई.
गुरुद्वारे के प्रांगण में लगे बोर्ड पर लिखित है- 12 जुलाई 1675 ई. को श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी, भाई मति दास जी, भाई सती दास जी तथा भाई दयाल जी को यहाँ से गिरफ्तार कर ‘रोपड़’ ले जाया गया। वहाँ की कोतवाली में इन्हें रखा गया। इसके बाद अब्दुल अज़ीज़ और दिलावर ख़ान द्वारा 13–14 जुलाई को एक फ़रमान जारी हुआ और गुरू साहिब को बस्सी पठाना की जेल में भेज दिया गया।
हम वर्तमान समय में उस उसी जेल के ऊपर खड़े हैं। पीछे प्राचीन बुर्ज दिखाई देते हैं- एक बूर्ज काल की मार झेल न सका, ढह चुका है; दूसरा अभी भी इतिहास की चौकसी में खड़ा है। मुख्य द्वार समय के थपेड़ों से जर्जर दिखता है, परन्तु एक-एक पत्थर मानो इतिहास की पुकार बन चुका है।
जेल का विस्तृत अवलोकन-आगे
संगत जी, अब हम इस जेल के प्रत्येक भाग का अवलोकन करेंगे। हमारे साथ सरदार जतिंदर पाल सिंह जी हैं, जो इस इतिहास को समझने और पहचानने में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान कर रहे हैं। इस अवलोकन के पश्चात हम इस स्थल से जुड़े शेष ऐतिहासिक तथ्यों पर भी प्रकाश डालेंगे।
आइए, चलते हैं इस जेल की यात्रा पर- इतिहास के पृष्ठों को यहाँ विराम देते हैं और संगत जी, आपसे मुलाकात होगी श्रृंखला के अगले भाग में…
संगत जी से विनम्र निवेदन
इतिहास की खोज, स्थलों का अवलोकन, मार्ग-यात्राएँ और विस्तृत दस्तावेज़ीकरण—इन सबमें बहुत बड़ा व्यय आता है। यदि आप इस गुरुवर-कथानक को, यह शहीदी मार्ग प्रसंग को और आगे आने वाले सभी ऐतिहासिक प्रयासों को अपना सहयोग देना चाहें, तो- मोबाइल क्रमांक- 97819 13113 पर संपर्क करें। आपका अमूल्य सहयोग गुरु साहिब की महिमा और इस इतिहास की सच्चाई को जन-जन तक पहुँचाने में अत्यंत सहायक होगा।
आपका अपना वीर- इतिहासकार, डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’
पार्श्व गायन:
(गुरु-चरित की गरिमा को रेखांकित करती गंभीर, आध्यात्मिक धुन वातावरण में गूँज रही है।)
संगत जी, वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतेह!