प्रसंग क्रमांक 5: भरतगढ़ की 100 वर्ष पुरातन मंजी साहिब
(सफ़र-ए-पातशाही नौंवीं – शहीदी मार्ग यात्रा)
संगत जी, वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतेह!
पार्श्व-गायन: (पृष्ठभूमि में एक मधुर, कोमल और आध्यात्मिक धुन—मानो गुरु-स्मृति को जागृत करती हुई धीरे-धीरे प्रवाहित हो रही हो।)
गुरु प्यारी साध-संगत जी, कीरतपुर साहिब से भविष्य की यह ऐतिहासिक यात्रा तब प्रारंभ हुई जब धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी संगत और अपने परिवार से मिलकर यह वचन करके निकले- “अब हमारे पीछे किसी ने नहीं आना है।”
वीडियो में अभी आप गुरुद्वारा पातालपुरी साहिब के दिव्य दर्शन कर रहे हैं- वही स्थान जहाँ मृतकों के अंतिम संस्कार के पश्चात फूल प्रवाहित किए जाते हैं। यही वह पावन धरा है जहाँ छवें पातशाह श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी का अंतिम संस्कार हुआ था। उस समय से लेकर आज तक यह स्थल सिख-पंथ में अत्यंत पवित्र और पूजनीय माना जाता है। विश्वभर की संगत यहाँ श्रद्धा-भाव से अपने परिवारजनों की अंतिम रस्में पूर्ण करती है।
कीरतपुर से भरतगढ़ : शहीदी मार्ग की ओर 11 किलोमीटर का सफ़र
कीरतपुर साहिब से 11 किलोमीटर आगे की ओर हम गुरु साहिब के शहीदी मार्ग पर चल रहे हैं। उस समय आज जैसे सुगम, आधुनिक मार्ग नहीं थे- समय बदला, राज बदले, और परिस्थितियाँ भी। हम आज जिस पुल से नहर पार करते हैं, उसके ठीक आगे एक पहाड़ी दिखाई देती है। उस पहाड़ी पर एक छोटा सा गाँव बसा है, जिसे नालागढ़ के राजा ने अपने पुत्र भरत के नाम पर भरतपुर कहा था।
इसके पहले यह स्थान बसोटीवाला नाम से प्रसिद्ध था। यहाँ प्रजापति (कुम्हार) समाज के लोग मिट्टी के बर्तन बनाकर अपना जीवन चलाते थे। संगत के आने-जाने के लिए यहाँ एक सराय भी हुआ करती थी। सिख इतिहास के अनुसार, गुरु-साहिबान के समय से पूर्व ही इस क्षेत्र में सिख धर्म का प्रचार-प्रसार था।
शहीदी मार्ग का प्रथम पड़ाव – 11 जुलाई 1675 ई.
जब श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी श्री आनंदपुर साहिब से शहादत के लिए प्रस्थान करते हैं,
तो कीरतपुर से आगे चलकर इस स्थान—भरतपुर / भरतगढ़ को अपना प्रथम पड़ाव बनाते हैं। यह दिन था- 11 जुलाई सन 1675 ई. और गुरु साहिब पैदल यात्रा कर रहे थे। पूरे 124 दिनों की शहीदी यात्रा का यह पहला दिन और पहली रात गुरु साहिब जी ने इसी इसी स्थान पर बिताई थी।
गुरु-वाणी का दिव्य उच्चारण : निडरता का संदेश
उसी समय गुरु साहिब ने अपने मुखारविंद से
यह वाणी उच्चारित की—
भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन| (अंग क्रमांक: 1427) अर्थात ना डरो और ना डराओ, अर्थात- “किसी को मत डराओ और स्वयं किसी से मत डरो।”
यह वाणी आने वाले खालसा प्रकट दिवस की आध्यात्मिक प्रस्तावना थी। उस समय श्री गुरु गोविंद राय जी (भविष्य के दसवें पातशाह) गुरु गद्दी पर विराजमान थे। श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने संगत को आदेश दिया- “तुम संगत श्री गुरु गोविंद राय जी के साथ रहना- हम शीश देने के लिए जा रहे हैं।” संगत का हृदय भावुक था, पर गुरु साहिब का संकल्प अडिग।
प्रथम रात : भरतगढ़ की पवित्र माटी
इतिहास बताता है- शहीदी मार्ग की पहली रात श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने इसी पवित्र स्थान पर बिताई थी। आज जब आप श्री आनंदपुर साहिब से रोपड़ की ओर हाईवे पर चलते हैं, तो श्री आनंदपुर साहिब से 20–21 किलोमीटर पहले आपको यह पावन गुरुद्वारा अवलोकित होता है। आजकल यहाँ सेवा-सम्भाल बाबा अजीत सिंह जी कर रहे हैं।
125 वर्ष पुरातन मंजी साहिब – इतिहास की जीवित निशानी
मेरा निवेदन है, संगत जी- केवल गुरुद्वारे के दर्शन कर लौट न जाएँ। इस स्थान में इतिहास के ऐसे मोती छिपे हैं जिन्हें देखना, सुनना और समझना हर सिख का सौभाग्य है। यहाँ के प्रबंधक अत्यंत विनम्र होकर बताते हैं कि- यहाँ 125 वर्ष पुरानी श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की मंजी साहिब आज भी सुरक्षित है। यह स्थान पहले गाँव की ओर से आने वाले मार्ग के समीप था। यहाँ गुरु साहिब के विश्राम की स्मृति आज भी संगत को नतमस्तक कर देती है। आओ, हम सबसे पहले पवित्र गुरुद्वारा साहिब के दर्शन करें।
पार्श्व-गायन: (समय की धूल हटाती हुई एक मार्मिक धुन— जो दर्शक को धीरे-धीरे गुरु-इतिहास की पवित्र गहराइयों में ले जाती है।)
जब हम यह कहते हैं कि कोई गुरुद्वारा साहिब 100, 125 या 150 वर्ष पुरातन है, तो इसका अर्थ केवल समय नहीं- बल्कि उस समय की सरलता, तप, कला, विनम्रता और जीवंत विरासत भी है। पुरातन गुरुद्वारों की वास्तु और आज के विशाल आधुनिक भवनों की बनावट आपस में बिल्कुल मेल नहीं खाती। परंतु, संगत जी, यहाँ की प्रबंधक कमेटी शाबाशी की पात्र है- क्योंकि उन्होंने इस पवित्र स्थान की पुरातन इमारत को जस का तस सुरक्षित रखा है। गुरुद्वारा साहिब भले ही छोटा हो, परंतु सुकून, शांति और गुरु-करुणा यहीं सबसे अधिक अनुभव होती है। आज भी हम पुरातन वास्तु में एक अनोखी आध्यात्मिक ऊष्मा महसूस करते हैं।
आधुनिक गुरुद्वारे संगत की सुविधा के लिए बनते हैं, यह नितांत आवश्यक है परंतु नया निर्माण करते समय कई बार हम भूलवश पुरातन स्थानों को नष्ट कर देते हैं। भरतगढ़ के इस गुरुद्वारे में पुरातन स्थान की श्रेष्ठ देखभाल सचमुच प्रशंसनीय है। यह स्थान लगभग 125 वर्ष पुराना है।
माताजी की श्रद्धा और पुरातन मंजी साहिब का निर्माण
एक श्रद्धावान माताजी, जिनका श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के प्रति अत्यंत अगाध प्रेम और श्रद्धा थी- उन्होंने गाँव के लोगों के साथ मिलकर गुरु-स्मृति में इस मंजी साहिब का निर्माण करवाया था। जब हम गुरुद्वारे के दर्शन करते हैं, तो पुरातन दरवाज़े अपनी प्राचीन शान के साथ अभी भी सुशोभित अवलोकित होते हैं। उस समय लकड़ी की सहायता से दरवाज़े खड़े कर स्थापित किए जाते थे। ये वो ही दरवाज़े आज तक यथावत लगे हुए हैं। आज की तरह चौखट बनाकर दरवाज़ा लगाने की प्रथा तब नहीं थी।
पुरातन बारादरी और 21 फीट ऊँचा छज्जा – वास्तु-कला का अद्भुत नमूना
पुराने समय में जैसे बारादरी का निर्माण होता था, वैसे ही यहाँ भी हवा और प्रकाश के लिए पुरातन बारादरी बनी हुई है। ऊपर दृष्टि उठाने पर अनुभव होता है कि लगभग 20–21 फीट की ऊँचाई पर इस बारादरी की छत स्थापित है। प्राकृतिक रोशनी और हवा के प्रवाह का उत्तम प्रबंध किया गया था, जो इस बात का प्रमाण है कि गुरुद्वारे भले ही साधारण हों, पर गुरु-भक्ति और संगत की सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाता था। भवन कच्चे थे, पर संगत की निष्ठा अत्यंत पक्की थी। सिखों का चरित्र इस्पात जैसा दृढ़ था।
जल-सेवा और पुरातन मंजी साहिब
गुरुद्वारे के परिसर में प्रवेश करते ही एक जल-टंकी अवलोकित होती है, जिससे संगत हाथ पवित्र कर अंदर गुरुद्वारे में प्रवेश करती है। मुख्य हाल में पुरातन मंजी साहिब आज भी सम्मान सहित सुशोभित है।
पालकी और तख़्त – मर्यादा का मूल सिद्धांत
डॉ. खोजी जी ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण निवेदन किया- आज हम गुरुद्वारों में सुंदर, आधुनिक पालकियाँ देखने को मिलती हैं। लेकिन ध्यान रखना चाहिए- पालकी ‘सवारी’ का साधन है। तख़्त ‘गुरु का आसन’ है। श्री अकाल तख़्त साहिब में जब श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का स्वरूप पालकी में आता है, तो वह तख़्त पर विराजमान होता है। वापसी पर भी स्वरूप पालकी में लौटता है। अर्थात- पालकी केवल आवागमन के लिए है। गुरु का सिंहासन तख़्त है। आज कई स्थानों पर हम आधुनिक पालकियों में ही प्रकाश कर देते हैं- यह परंपरा और मर्यादा के अनुरूप नहीं। गुरु साहिब तख़्त पर विराजते हैं, पालकी पर नहीं।
भरतगढ़ की पुरातन मंजी साहिब – दो स्थानों पर प्रकाश
यहाँ मंजी साहिब के अंदर तख़्त पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी विराजमान हैं। गुरु का प्रकाश दो स्थानों पर किया जाता है-
- मुख्य बड़े गुरुद्वारा साहिब में,
- पुरातन मंजी साहिब में।
बाबा अजीत सिंह जी की अथक सेवाओं और बड़ी मेहर से इस स्थान की महिमा और संरचना दोनों सुरक्षित हैं।
बाबा अजीत सिंह ‘हंसावली’ – मल्ल अखाड़ों की जिंदा परंपरा
एक और अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा- जिन बाबा अजीत सिंह हंसावली वाले महापुरुष को पूरी संगत श्रद्धा से जानती है, उनका मूल नगर भी यही है। श्री गुरु नानक देव साहिब जी के समय से, और विशेषत: श्री गुरु अंगद देव जी तथा श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी के काल से सिख पंथ में मल्ल-विद्या (कुश्ती अखाड़े) एक जीवंत परंपरा रही है। महाराजा रणजीत सिंह जी के समय में इन्हीं अखाड़ों ने हरि सिंह नलवा जैसे महावीर तैयार किए। आज यह कला विलुप्ति की ओर है, पर यहाँ- बाबा अजीत सिंह जी हर वर्ष मेला स्वरूप मल्ल-अखाड़ा प्रतियोगिताएँ आयोजित कर इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। दास (डॉ. खोजी) स्वयं इन अखाड़ों की कुश्तियाँ देखने के लिए यहाँ हाज़िर होते है।
भरतगढ़ की यह मंजी साहिब—
- पुरातन वास्तुकला की जीवंत मिसाल है,
- गुरु-स्मृति की तपती धूप में खिला हुआ शीतल कमल है,
- और सिख मर्यादा का अलौकिक केंद्र है।
यह स्थान केवल एक गुरुद्वारा नहीं- बल्कि गुरु-इतिहास, परंपरा, मर्यादा और विरासत का
अतुलनीय संगम है।
पार्श्व-गायन: (धीमे, कोमल और आध्यात्मिक स्वर—मानो इतिहास की परतों पर जमी धूल को धीरे-धीरे हटाते हुए हमें उस कालखंड में पहुँचा रहे हों।)
पहले यह नगर बसुटीवाला नाम से प्रसिद्ध था। पश्चात नालागढ़ के राजा ने अपने पुत्र भरत के नाम पर इसे भरतपुर कहा। और आगे चलकर यहाँ स्थित प्राचीन किले के आधार पर इसका नाम पड़ा- भरतगढ़।
इस स्थान के सेवादार बाबा जी, जो इस स्थल के इतिहास के पारखी हैं, बताते हैं कि—
यह धरा धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के चरण-चिह्नों से आलोकित है। जब श्री गुरु तेग बहादुर महाराज जी श्री आनंदपुर साहिब से दिल्ली शीश देने हेतु प्रयाण कर रहे थे, तो कीरतपुर साहिब से उन्होंने संगत को वापस कर दिया था, और अपनी शहीदी मार्ग की प्रथम रात यहीं भरतगढ़ में बिताई थी। भरतगढ़ जिला रोपड़ का वह ऐतिहासिक पड़ाव है जिसे गुरु साहिब की उपस्थिति ने अमर कर दिया।
पुरातन कुआँ और अंग्रेजी राज का निर्णय
यहाँ एक बहुत पुराना कुआँ भी स्थित है। यह कब बना? किसने बनवाया? इसके संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं। इतना अवश्य है कि यह कुआँ गुरु-काल के प्रतिष्ठित जल-स्थलों में से एक माना जाता है। अंग्रेजों के शासन-काल में यहाँ एक धर्मशाला भी थी। आपसी विवाद के किसी कारणवश यह मामला न्यायालय पहुँचा। अंग्रेज अधिकारियों ने गहराई से जांच की और अंततः यह स्थान सिखों को सुपुर्द कर दिया। इसके बाद गुरुद्वारे का पुनर्निर्माण आरंभ हुआ। पुराना स्थान-गुरुद्वारा मंजी साहिब- श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के दौर से ही विद्यमान है।
आज बाबा अजीत सिंह जी हंसापुरी वालों के नेतृत्व में मुख्य गुरुद्वारा और पुरातन मंजी साहिब—
दोनों स्थानों की सेवा अत्यंत प्रेम और मर्यादा से की जा रही है। यहाँ गुरु का लंगर चौबीसों घंटे चलता रहता है।
भारतगढ़ किला – नवाब कपूर सिंह जी की विरासत
अब प्रश्न उठता है- इस किले का इतिहास क्या है? सिखों से इसका क्या संबंध है? और यह स्थान भरतगढ़ क्यों कहलाया?
संगत जी, भारतगढ़ का यह किला नवाब कपूर सिंह जी के समय का है- जिनकी पीढ़ी आज भी इसी किले में निवास कर रही है। किला अत्यंत पुरातन, विशाल और इतिहास-संलग्न है। इसी धरती पर संत बाबा अजीत सिंह जी हंसावली वाले का भी जन्म हुआ था। पश्चात वे हंसावली पहुँचे, पर उनकी आध्यात्मिक विरासत का आधार यही भरतगढ़ है।
गुरु-कृपा का यह प्रभाव है कि इस स्थान पर निरंतर, अविरल गुरु का लंगर चलता है। इस धरा पर श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की अपार मेहर है। अरदास है कि यह स्थान सदा चढ़दी कला में रहे। यहाँ स्थित पुरातन कुएँ के बारे में आज तक कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती। परंतु यह इस बात का संकेत अवश्य है— कि जहाँ गुरु का घर होता था, वहाँ जल का यह सतत साधन भी सदा रहता था।
शहीदी मार्ग की प्रथम रात भरतगढ़ की अमर स्मृति
संगत जी, अब इस पवित्र गुरुद्वारा साहिब को नमन करके हम अपनी अगली यात्रा की ओर बढ़ते हैं। आपसे विनम्र निवेदन है- जब भी आप श्री आनंदपुर साहिब जाएँ, भरतगढ़ अवश्य रुकें। मुख्य गुरुद्वारे के पीछे स्थित गुरुद्वारा मंजी साहिब के दर्शन करें- यहीं वह स्थान है जहाँ
- धर्म की रक्षा हेतु,
- सकल सृष्टि पर ढापी चादर बनने की वेला में,
- अपने परिवार और सुपुत्र को छोड़कर,
- अपने शीश की आहुति के संकल्प के साथ धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी
ने अपनी शहीदी मार्ग की पहली रात बिताई थी।
यह स्थान केवल एक स्मृति नहीं- यह मानवता की रक्षा के महा-संकल्प का प्रथम अध्याय है।यहीं इतिहास के पृष्ठों को यह भाग विराम देता है। और हम आगे मिलेंगे—प्रसंग के अगले खंड में…
सेवाभाव पर आधारित निवेदन
साध-संगत जी, इस इतिहास की खोज में, इन पावन राहों पर चलकर प्रामाणिक तथ्यों को इकट्ठा कर आप तक पहुँचाने में अत्यंत खर्च और निरंतर सेवा लगती है। आपका सहयोग-आपका साथ- हमारे लिए अनमोल है। जो संगत सेवा करना चाहती है, वह निम्न नंबर पर सेवा राशि भेंट कर सकती है—
📞 97819 13113
ताकि श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के इस पूर्ण शहीदी मार्ग का इतिहास शब्द-दर-शब्द, स्थान-दर-स्थान आप तक पहुँचाया जा सके।
आपका अपना वीर- इतिहासकार डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’
वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!
पार्श्व-गायन: (धीमी तानों में तपस्या का निचोड़ छिपा है- स्वर आगे बढ़ते कदमों जैसे।)