श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी द्वारा आयोजित धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए यात्रा की पूर्ण तैयारी ‘चक नानकी’ नामक नगर में हो चुकी थी। संगत ने अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) में पाठकर ‘अरदास’ के पश्चात् कड़ाह प्रशादि की देग को उपस्थित श्रद्धालुओं में बांटा गया था। ‘चक नानकी’ नगर कि संगत ने गुरु जी और उनके जत्थे को ‘देशाटन’ के लिए रवाना किया था। प्रसिद्ध साहित्यकार प्रिंसिपल सतबीर सिंह जी के रचित इतिहास अनुसार 3 अक्टूबर सन् 1665 ई. को यह यात्रा आरंभ हो चुकी थी।
‘चक नानकी’ नामक नगर से चलकर इस यात्रा का प्रथम पड़ाव लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर एक स्थान पर हुआ था। इतिहासकार डॉ॰ सुखदेव सिंह जी के अनुसार पुरातन समय में इस स्थान को ‘वसुटी वाला’ नाम से संबोधित किया जाता था, कारण इस स्थान पर वसुटी (बेशर्म की झाड़ियाँ) बहुतायत मैं पाई जाती थी। इस स्थान पर कुम्हारों के आवे (मिट्टी के बर्तन निर्माण के कारखाने) हुआ करते थे। इन कारखानों में कुम्हार मिट्टी के बर्तनों का निर्माण करते थे। वर्षा ऋतु में जब इसी स्थान पर बाढ़ आती थी तो इन कुम्हारों के घर और कारखाने बाढ़ में बह जाते थे। जिस कारण इन कुम्हारों को अत्यंत आर्थिक नुकसान होता था और इसलिये स्थानीय कुम्हार हमेशा चिंता में डूबे रहते थे।
जब गुरु जी ने अपना प्रथम पडाव इसी स्थान पर किया और स्थानीय संगत ने गुरु जी से निवेदन कर अपनी व्यथा बताई और कहा कि हम स्थानीय निवासी बाढ़ के प्रकोप से बहुत दुखी हैं। ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने स्वयं के खजाने से इन स्थानीय नागरिकों को धन मुहैया कराते हुए इस स्थान पर लंगर (भोजन प्रशादि) लगाने के लिए वचन किए थे। स्थानीय नागरिकों को सूचित किया था कि जब भी बाढ़ का प्रकोप हो तो इस स्थान पर ज्यादा से ज्यादा लंगरों का आयोजन करें। इसके साथ ही आसपास की संगत को लंगर आयोजन की प्रेरणा दी जाये।
यह स्थान गुरुद्वारा ‘मंजी साहिब’ भरतगढ़ नामक स्थान पर स्थित है। इस भरतगढ़ नामक स्थान पर गुरु जी के जत्थे का प्रथम पड़ाव पड़ा था। इस स्थान से प्रस्थान कर गुरु जी गुरुद्वारा ‘सदाबरत’ साहिब नामक स्थान पर पहुंचे थे। यह स्थान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस स्थान पर सिख धर्म के छठे, सातवें और आठवें गुरु साहिब जी भी पधारे थे और अपने चरण-चिन्हों से स्पर्शों से कर इस स्थान को पवित्र किया था। इसी स्थान पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ भी पधारे थे। पुरातन समय में इस स्थान पर पांच कुएं पाए जाते थे परंतु वर्तमान समय में इस स्थान पर केवल एक कुआं (बावली साहिब) स्थित है। इस स्थान पर भी गुरु जी ने कुछ समय विश्राम किया था।
गुरुद्वारा ‘सदाबरत साहिब’ से गुरु जी प्रस्थान कर दुगरी नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस श्रृंखला को रचित करने वाले समूह सेवादार जब दुगरी नामक स्थान पर पहुंचे तो रास्ते में घने और सुंदर जंगल से होते हुए इस स्थान पर पहुंचना पड़ता है। इस मनोरम रास्ते से गुजर कर ही आप गुरुद्वारा ‘बोहड़ गढ़ साहिब पातशाही नौवीं’ में पहुंच सकते हैं। इस स्थान पर 400 वर्ष पुराने बहुत ही सघन और पुरातन वृक्ष वर्तमान समय में भी स्थित हैं।
इतिहास में जिक्र आता है कि इस स्थान पर गुरु जी ने गड़ी दोगरी नामक व्यक्ति के निवेदन पर अपना पड़ाव स्थित किया था। उस समय इस स्थान पर स्थानीय निवासी माई भंती का पुत्र किसी भयानक बीमारी से जूझ रहा था। माई भंती भी अपने पुत्र को गुरु जी के समक्ष दर्शन-दीदार के लिए लेकर उपस्थित हुई थी। गुरु जी की असीम कृपा से माई भंती के पुत्र की उत्तम चिकित्सा की गई थी और वह स्वास्थ्य लाभ लेकर ठीक हो गया था। इस स्थान पर गुरु जी ने उपस्थित संगत को उपदेशित करते हुए वचन किये थे कि दुख के समय में आपस में मिलकर एक दूसरे के दुख बांटने चाहिए। सुख के समय में तो सभी हाजिर हो जाते हैं परंतु दुख के समय में एक दूसरे की सांत्वना और दिलासा जरूर करनी चाहिए। दवा के साथ दुआ की भी अत्यंत आवश्यकता होती है। आप सभी संगत ने मिल जुलकर सिक्खी के सिद्धांतों पर पहरा देना चाहिए। दीन-दुखी, दर्द से पीड़ित और जरूरतमंदों की अवश्य सेवा करनी चाहिए। जरूरतमंदों के लिए लंगर का प्रबंध अवश्य करना चाहिए।
इस स्थान पर गुरु जी ने धर्मशाला निर्माण के लिए निर्देश दिए और रोगियों के इलाज के लिए संगत को प्रेरणा प्रदान की थी। इस स्थान पर भाई दोगरी जी की और से 700 बीघा जमीन और माई भंती की और से 70 बीघा जमीन धर्मशाला निर्माण के लिये अर्पीत की गई थी| गुरु जी के प्रस्थान के पश्चात इस स्थान पर संगत के लोक–कल्याण हेतु भलाई के कार्य वर्तमान समय तक निरंतर चल रहे है| इस स्थान पर ही गुरुद्वारा ‘बोहड़ साहिब पातशाही नौवीं’ स्थित है।