सन् 1593-94 ई. के अंतर्गत सिख धर्म के पांचवे गुरु ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने टाहली (शीशम) के पेड़ का एक मजबूत खूंटा (थंम) को गाड़ के स्वयं के कर-कमलों से करतारपुर नगर की नींव को रखा था। इस नवनिर्मित नगर में निवास हेतु नवीन भवनों का निर्माण किया गया था। जिस स्थान पर आप जी ने टाहली (शीशम) के पेड़ का मजबूत खूंटा (थंम) गाडा था (उस स्थान पर भव्य-दिव्य, आलीशान गुरुद्वारा थंम साहिब स्थित है)।
करतारपुर नाम के दो शहर है। प्रथम करतारपुर सिख धर्म के पहले गुरु ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के कर-कमलों से निर्मित हुआ था, जो विभाजन के पश्चात पाकिस्तान में स्थित है। दूसरा करतारपुर शहर अमृतसर शहर से 65 किलोमीटर और जालंधर शहर से केवल 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जब हम दिल्ली से अमृतसर सड़क के द्वारा परिवहन करते हैं तो करतारपुर शहर जालंधर शहर से लगभग 15 किलोमीटर आगे के रास्ते पर स्थित है। उस स्थान को ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ ने स्वयं बसाया था।
सिख धर्म के छठे गुरु ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने अपने जीवन के तीसरे युद्ध (जो कि ‘महिराज’ के युद्ध के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है) के पश्चात आप जी सपरिवार इस करतारपुर शहर में निवास करने लगे थे। इस शहर को ‘सिख धर्म प्रचार केंद्र’ के रूप में भी विकसित किया गया था। इस नगर में आप जी ने अपने निवास के लिये भव्य ‘शीश महल’ का निर्माण भी किया था। इस ‘शीश महल’ के कुछ अवशेष आज भी इस स्थान पर एक ‘ऐतिहासिक धरोहर’ के रूप में शेष हैं। जिस हवेली में ‘श्री गुरु हर गोविंद साहिब जी’ निवास करते थे; वो हवेली धीरमल्ली परिवार के अधीन है।
इस स्थान पर निवास करते हुए ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने अपने पुत्र ‘सूरजमल’ का ‘परिणय बंधन’ श्री प्रेमचंद जी सिल्ली की सुपुत्री बीबी खेम कौर जी संग किया था। इस ‘परिणय बंधन’ में भावी ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने सुंदर दस्तार सजाकर ‘कलगी’ को सुशोभित किया था। आप जी सुंदर वस्त्र और शस्त्रों से सजे हुए थे। आप जी की मनमोहक छवि ने उपस्थित सभी मेहमानों को लुभाया था। इस ‘परिणय बंधन’ के अवसर पर ही भाई लालचंद जी ने जब भावी ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की मनमोहक छवि के दर्शन किए और मन ही मन विचार कर धारणा बना ली कि मेरी सुपुत्री का परिणय बंधन भावी ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ से हो जाए तो मेरा और मेरी सुपुत्री का जीवन सफल हो जाएगा।
भाई लालचंद जी का परिवार ‘लखनौर’ नामक स्थान पर निवास करता था। आपके भाई कृपाल चंद जी एवं भाई मेहर चंद जी नामक दो सुपुत्र थे एवं एक सुपुत्री बीबी गुजरी जी थी। जब करतारपुर शहर का निर्माण हुआ तो भाई लालचंद जी अपने सुपुत्र कृपाल चंद जी के साथ इस नये शहर में बस गए थे।
भाई लालचंद जी की पत्नी ‘माता बिशन कौर जी’ अपनी सुपुत्री बीबी ‘गुजरी जी’ के साथ ‘माता नानकी जी’ की सेवा में अक्सर उपस्थित होती थी। ‘माता बिशन कौर जी’ ने अपने मन की इच्छा को ‘माता नानकी जी’ के समक्ष प्रकट किया था। ‘माता नानकी जी’ के द्वारा इस रिश्ते का प्रस्ताव ‘श्री गुरु हर गोविंद साहिब जी’ के समक्ष आया था। आपसी सलाह मशवरे से खुशी-खुशी इस रिश्ते को अंजाम देते हुए स्वीकार कर लिया गया था।
भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की आयु 11 वर्ष की थी और उसी समय इनके ‘परिणय बंधन’ की परिवार ने उत्साह के साथ तैयारियों को प्रारंभ कर दिया था पूरे हर्षोल्लास के साथ सभी रिश्तेदारों को करतारपुर में आयोजित इस ‘परिणय बंधन’ की सूचना दे दी गई थी। इस ‘परिणय बंधन’ के लिए आमंत्रित रिश्तेदारों का नगर आगमन पर भव्य स्वागत किया गया था। इस ‘परिणय बंधन’ में सिख धर्म के तीसरे ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ के परिवार से ‘बाबा सुंदर जी’ परिवार सहित पधारे थे (बाबा सुंदर जी रचित वाणीयों को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित किया गया है)।
दीना कांगड़ नामक स्थान से राय जोध जी भी अपने परिवार सहित पधारे थे (राय जोध जी ने गुरुसर के युद्ध में ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ को अत्यंत महत्वपूर्ण मदद की थी)। साथ ही दूर-दराज से सिख संगत और रिश्तेदार भी बहुसंख्या में इस ‘परिणय बंधन’ में शामिल होने के लिए पधार गए थे।
इस शुभ अवसर पर पूरे नगर को दीप मालाओं से सजाया गया था और विभिन्न प्रकार के पकवानों को बनाया गया था। ‘परिणय बंधन’ की इस शुभ बेला के अवसर पर अमृतवेले (ब्रह्म मुहूर्त) में उपस्थित संगत के द्वारा गुरबाणी के पाठ किए गए थे, साथ ही ‘आसा की वार’ का कीर्तन किया गया था।
तत्पश्चात पूरी आन,बान और शान से बारात शीश महल से प्रारंभ हुई थी। सभी बारातियों ने अति सुंदर वस्त्र धारण किए हुए थे। बारात पूरी शानो-शौकत से रबाबीयों वाली गली से होते हुए भाई लालचंद जी के निवास स्थान पर पहुंची थी (वर्तमान समय में इस स्थान पर भव्य गुरुद्वारा साहिब स्थित है)।
बारात की मिलनी की रस्म के उपरांत भाई लालचंद जी जब ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के चरणों में विनम्रता पूर्वक नमस्कार कर रहे थे तो गुरु जी ने भाई लालचंद जी को गले लगाते हुए कहा कि आपका स्थान तो मेरे हृदय में है।
सजे हुए पंडालों में गुरुवाणी का प्रकाश किया गया था। ‘बाबा बुड्ढा जी’ के सुपुत्र भाई भाना जी की और से एवं उपस्थित रबाबीयों की और से आनंद कारज (परिणय बंधन) की रस्म को संपन्न किया गया था।
जब यह ‘परिणय बंधन’ संपन्न हुआ तो भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की आयु 11 वर्ष की थी एवं बीबी ‘गुजरी जी’ की आयु 13 वर्ष की थी (बीबी गुजरी जी को सिख संगत सम्मान पूर्वक ‘माता गुजरी जी’ के नाम से संबोधित करती हैं)। ‘बीबी गुजरी जी’ आयु में भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर जी’ से दो वर्ष बड़ी थी।
‘परिणय बंधन’ की संपन्नता के पश्चात वर-वधू की सुंदर छवि ने उपस्थित संगत का मनमोह लिया था। इतिहास में अंकित है–
कहै तेग बहादुर जोरी।
बिध रची रुचर रुच बौरी।।
उपस्थित संगत की और से बधाईयों को अर्पित किया गया था। जब बारात की विदाई हो रही थी तो भाई लालचंद जी विनम्रता पूर्वक हाथ जोड़कर ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के सम्मुख उपस्थित होकर कहने लगे, जिसे इतिहास में इस तरह से अंकित किया गया है–
नहि सरयो कुछ ढिंग मौरे।।
अर्थात् गुरु पातशाह जी मुझ गरीब से वो सेवा नहीं हो सकी जिसके आप हकदार हैं। मेरे गरीब के पास आपको भेंट करने के लिए कुछ भी नहीं है। मेरे गरीब के पास अपनी बेटी को देने के लिए भी कुछ नहीं है। ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने भाई लालचंद जी को उत्तर दिया–
जिन तनुजा अरपण कीनो।
किआ पाछै तिन रख लीनो।।
अर्थात् भाई लालचंद जिसने अपने दिल का टुकड़ा,आपने अपनी बेटी ही अर्पित कर दी है। तत्पश्चात पीछे से शेष देने के लिये क्या रह गया?
अत्यंत उत्साह पूर्वक, सादगी से भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ का ‘परिणय बंधन’ संपन्न हुआ था।
भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ नववधू ‘बीबी गुजरी जी’ के साथ अपने ‘शीश महल’ में संगत की बधाईयों को ग्रहण कर पुनः पधार गए थे।