‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के इतिहास से संबंधित ग्राम रुड़े के कला के इतिहास से इस प्रसंग में संगत (पाठकों) को अवगत करवाया जाएगा। जब इस श्रृंखला को रचित करने वाली टीम इस ग्राम रूड़े के कला में पहुंची और स्थानीय लोगों से जानना चाहा कि गुरु जी के इतिहास से संबंधित इस ग्राम में गुरु जी की स्मृति में कोई स्थान है क्या? आश्चर्य है कि ग्राम के बाहरी इलाके में निवास करने वाले स्थानीय ग्रामीण इस इतिहास से अनभिज्ञ थे। कई लोगों से पूछताछ की गई तो ज्ञात हुआ कि ग्राम के भीतर पुरातन गुरुद्वारा साहिब गुरु जी की स्मृति में सुशोभित है।
जब गुरुद्वारा साहिब में पहुंचे तो बाहर एक ड्योढ़ी का निर्माण किया हुआ था। गुरुद्वारा साहिब जी की इमारत आकर्षक और विलोभनीय है। हमारी टीम को इस गुरुद्वारा साहिब के अध्यक्ष और मुख्य ग्रंथी साहिब जी को भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। उनसे जानने की कोशिश की गई कि इस स्थान पर कोई पुरानी ढ़ाव (बावड़ी) या कोई पुरातन किला मौजूद था क्या? कारण ऐतिहासिक ग्रंथों और संदर्भित स्रोतों से इसे संदर्भित किया गया है। इस स्थान पर कोई किला मौजूद नहीं है परंतु इस स्थान पर एक पुरातन छोटा टीला जरूर स्थित है। उस टीले के समीप ही वर्तमान समय में गुरुद्वारा साहिब जी का निर्माण किया गया है। ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की स्मृति में इस स्थान पर सुशोभित गुरुद्वारा साहिब जी को गुरुद्वारा गुरुसर साहिब जी पातशाही नौवीं के नाम से संबोधित किया जाता है।
इसी स्थान से चलकर गुरु पातशाह जी ग्राम केलों नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस ग्राम केलों के बाहरी इलाके में एक गुरुद्वारा गुरु जी की स्मृति में सुशोभित है। इस स्थान से संबंधित गुरु जी के इतिहास के संबंध में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। इस गुरुद्वारा साहिब जी का संचालन शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी अमृतसर के अधीन है। इस गुरुद्वारा साहिब के मुख्य ग्रंथी साहिब जी से ज्ञात हुआ कि इस स्थान पर एक पुरातन किला भी मौजूद था। इस थेह (टीले) पर पुरातन समय में एक नगर बसा हुआ था। वर्तमान समय में इस स्थान पर हड्डियां और पुराने टूटे हुए घड़े मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पुरातन ग्राम किसी कारणों से उजड़ गया। वर्तमान समय में इस ग्राम केलों में गुरु जी की स्मृति में गुरुद्वारा साहिब जी पातशाही नौवीं सुशोभित है।
इस ग्राम से चलकर गुरु जी ग्राम ढ़िलवा नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस ग्राम ढ़िलवा में गुरु पातशाह जी की स्मृति में अति विशाल गुरुद्वारा साहिब जी सुशोभित है। इस गुरुद्वारा साहिब जी का संचालन भी शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी अमृतसर के अधीन है। इस गुरुद्वारा साहिब जी के नाम से इस ग्राम में बहुत जमीन-जायदाद भी स्थित हैं। कारण ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ मालवा प्रांत की यात्रा करते समय कुछ महीनों तक इस स्थान पर निवास किया था। गुरु जी ने इस स्थान पर धर्म प्रचार-प्रसार के साथ लोक-कल्याण के भी अनेक कार्यों को संपन्न किया था। जब गुरु जी को ज्ञात हुआ कि इस ग्राम में दूध का उत्पादन बहुत कम मात्रा में होता है तो उन्होंने इसका कारण जानना चाहा, तो ज्ञात हुआ कि इस पूरे इलाके में पानी की बहुत कमी है। इस कारण से खेती-बाड़ी ज्यादा नहीं होती और दूध का उत्पादन भी कम मात्रा में होता है।
गुरु पातशाह जी ने स्थानीय संगत के सहयोग से इस स्थान पर कई कुओं का निर्माण करवाया था। ‘दसवंद’ (किरत कमाई का दसवां हिस्सा) की माया से पशुधन के रूप में 100 गायों को भी खरीद कर स्थानीय संगत को भेंट स्वरूप में इस पशु धन को प्रदान किया था। गुरु जी ने स्थानीय संगत को वचन किए कि इस सुविधा से तुम ज्यादा से ज्यादा व्यवसाय करो और व्यवसाय को बढ़ावा दो। इस इतिहास को संदर्भित करते हुए यह बात बनावट लगती है कि गुरु जी ने 101 गायों को दान किया था। जब हम गुरबाणी का अध्ययन करते हैं तो गुरबाणी के अनुसार यह दान की बात सच नहीं लगती है लेकिन यह सच है कि लोक-कल्याण और लोगों के जीवन में सुधार लाने के लिए गुरु जी ने अनेक उपक्रमों को अंजाम दिया था। साथ ही बहुत धन भी खर्च किया था। गुरु जी ने ‘अकली किचे दान’ वाली प्रथा को आगे बढ़ाया था। जहां-जहां धन की आवश्यकता थी, वहां-वहां गुरु जी ने धन मुहैया करवाया था।
इस ग्राम ढ़िलवा में गुरु पातशाह जी ने निवास कर धर्म का प्रचार-प्रसार भी किया था। इस स्थान के निकट ही एक और ग्राम दुलमिकी नामक स्थान पर एक गुरुद्वारा साहिब जी और सुशोभित है। गुरु जी की स्मृति में सुशोभित इस गुरुद्वारा साहिब जी को गुरुद्वारा दुलम सर साहिब जी पातशाही नौवीं के नाम से संबोधित किया जाता है। इस स्थान पर भी एक छोटी सी ढ़ाव (बावड़ी) मौजूद थी। इस स्थान पर भी जल संकट होने के कारण गुरु जी ने एक कुएं का निर्माण करवाया था। इस गुरुद्वारा दुलम सर के समीप खेतों के मध्य एक और गुरुद्वारा दातनसर साहिब जी भी सुशोभित है। इस स्थान का इतिहास भी ज्ञात करने से पता चला कि ग्राम मोड़ का निवासी भाई दुल्लों गुरु पातशाह जी की प्रतिदिन दूध की सेवा कर हाजिरी लगाता था। साथ ही उपस्थित संगत में भी दूध बांटने की सेवा करता था। गुरु जी ने भाई दुल्लों जी की सेवा से प्रसन्न होकर उसे एक दस्तार (सर पर बांधने वाला पवित्र का कपड़ा) की भेंट की थी।
जब भाई दुल्लों जी इस दस्तार को घर लेकर गया तो उसकी पत्नी ने उससे पूछा कि तुम प्रतिदिन दूध लेकर कहां जाते हो? तो उस भाई दुल्लों जी ने बताया कि मैं दूध लेकर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की सेवा में उपस्थित होता हूं। इसलिए गुरु जी ने प्रसन्न होकर मुझे यह दस्तार भेंट की है। गुरु जी के द्वारा भेंट की हुई दस्तार बहुमूल्य थी। भाई दुल्लों की पत्नी ने वह दस्तार भाई दुल्लों से छीनकर ग्राम के मरासी (एक प्रकार के मुस्लिम जो गाने-बजाने का कार्य कर भांड़ों की तरह मसखरापन कर लोगों को प्रसन्न करते है) को भेंट कर दी थी। भाई दुल्लों की पत्नी ने नाराज होकर भाई दुल्लों से वचन किए थे कि तुम दूध की सेवा करने जाते हो या साधुओं को लूटने जाते हो!
जब दूसरे दिन भाई दुल्लों जी गुरु जी की सेवा में उपस्थित हुए तो उनके सर पर वह दस्तार नहीं थी तो गुरु जी ने भाई दुल्लों जी को वचन कर पूछा कि हमारी भेंट की हुई दस्तार कहां पर है? भाई दुल्लों जी ने जवाब दिया कि उस दस्तार को तो मेरी पत्नी ने मेरे से छीन कर ग्राम के मिरासी को भेंट कर दी। गुरु जी ने वचन किए कि भाई दुल्लों जी हम तो तुम्हें दुल्लों का पति बनाना चाहते थे। हमने तो तुम्हें बख्शीश स्वरूप दस्तार प्रदान की थी परंतु तुम तो दुल्लों के दुल्लों ही रह गए।
उपरोक्त इतिहास किसी भी ऐतिहासिक पुस्तकों और संदर्भ ग्रंथों में नहीं मिलता है। इस गुरुद्वारा दातनसर साहिब जी में बड़ी संख्या में नौजवान उपस्थित होकर सेवा कर रहे थे। इस स्थान पर पुरातन एक करीर का वृक्ष भी स्थित है। ग्राम दुलमिकी में गुरुद्वारा दुलमसर साहिब और समीप ही खेतों के मध्य गुरुद्वारा दातनसर साहिब जी पातशाही नौवीं, गुरु जी की स्मृति में सुशोभित है।