‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अपने सिखों और परिवार के साथ धर्म प्रचार-प्रसार की यात्रा करते हुए ग्राम जहांगीर नामक स्थान पर पहुंचे थे। जब गुरु जी यहां पधारे थे तो उस समय यह ग्राम जहांगीर पूर्ण रूप से आबाद नहीं हुआ था। जब गुरु जी इस स्थान में पहुंचे तो पास ही एक जमींदार अपनी जमीन पर कुआं खोद रहा था जैसे ही जमींदार को ज्ञात हुआ कि संगत के साथ गुरु पातशाह जी उनके ग्राम में पधारे हैं तो वह खुशी के मारे भागते हुए गुरु जी के दर्शन-दीदार करने पहुंच गया था। खोदी हुई मिट्टी से लथपथ कपड़ों के साथ ही यह गुरु जी का सेवादार उनके सम्मुख उपस्थित हुआ था।
गुरु पातशाह जी ने इस सेवादार को बहुत ही स्नेह और प्रेम से अपने समीप बिठाया था। जब गुरु जी का इस सेवादार से वार्तालाप प्रारंभ हुआ तो उसने गुरु जी को जानकारी देते हुए कहा कि मैं पास ही के ग्राम केहरों का निवासी हूं और मेरा नाम खुन्ना है। इस समय मैं अपने खेतों में खेती करने हेतु पानी की कमी के कारण कुएं को खोदकर गहरा कर रहा हूं। ताकि खेती के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध हो सके। गुरु पातशाह जी इस सेवादार की विनम्रता और इंसानियत के जज्बे को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए थे और इस सेवादार को सिख सजाकर इस इलाके के प्रचारक के रूप में मनोनीत किया था। साथ ही गुरु जी ने स्वयं इस ग्राम में एक कुआं भी बनवा कर दिया था।
वर्तमान समय में भी इस ग्राम जहांगीर में गुरु जी द्वारा स्थापित किया हुआ कुआं मौजूद है और ग्रामवासी इस पानी का दैनिक कार्यों के लिए उपयोग भी करते हैं। स्थानीय ग्रामवासियों ने इस कुएं को पक्का बनाकर परिसर में एक सुंदर बगीचा लगाकर इस धरोहर को उत्तम स्थिति में संभाल कर रखा है।
ग्राम की चौपाल पर बैठे बुजुर्गों से ज्ञात हुआ कि गुरु जी के समय यह ग्राम आबाद नहीं हुआ था। उनके जाने के पश्चात ग्राम आबाद हुआ और सन् 1869 ई. में एक मुस्लिम फकीर जहांगीर के नाम से इस ग्राम का नामकरण हुआ था। ग्राम के प्रवेश द्वार पर ही पुरातन कुआं स्थित है। ग्राम के बाहरी इलाके में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की स्मृति में भव्य गुरुद्वारा साहिब पातशाही नौवीं सुशोभित है। गुरुद्वारा परिसर में एक जंड (बड़) का वृक्ष भी स्थित है।
इस ग्राम जहांगीर से चलकर गुरु जी बबनपुर नामक ग्राम में पहुंचे थे। इस ग्राम बबनपुर में भी ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की स्मृति में भव्य गुरुद्वारा साहिब पातशाही नौवीं सुशोभित है। इस गुरुद्वारा परिसर में एक सरोवर भी स्थित है इस सरोवर के निर्माण कार्य की सेवा मलेरकोटला के नवाब इफ्तिखार खान के द्वारा करवाई गई थी।
इस ग्राम बबनपुर से चलकर गुरु जी ग्राम राजौमाजरा नामक स्थान पर पहुंचे थे। यह ग्राम राजौमाजरा रंगड़ मुसलमानों का ग्राम है। रंगड़ उन राजपूतों को कहा जाता है जो इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेते थे। ऐसे मुसलमानों को रंगड़ कहकर संबोधित किया जाता था। इन रंगड़ों के परिवार में से ही एक माई रज्जो थी, इस माई रज्जो के नाम से ही इस गांव का नामकरण राजौमाजरा हुआ था।
जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अपने सेवादारों के साथ ग्राम के समीप डेरा डालने लगे तो स्थानीय ग्रामवासियों ने उपस्थित होकर गुरु जी से थोड़ी और दूर डेरा डालने का निवेदन किया था कारण इस ग्राम में बहुसंख्या में रंगड़ निवास करते थे और स्थानीय ग्रामवासी हुक्के का सेवन बहुतायत में करते थे। जिसके कारण पूरे ग्राम में हुक्के का धुआं अधिक मात्रा में हो जाता था।
वर्तमान समय में जिस स्थान पर गुरु जी की स्मृति में गुरुद्वारा साहिब जी पातशाही नौवीं सुशोभित है उसी स्थान पर अपना डेरा गुरु जी ने डाला था। गुरु जी ने धर्म का प्रचार-प्रसार कर इस ग्राम के ग्राम वासियों को नाम-वाणी से जुड़ा था और हुक्का पीने से वर्जित कर इन ग्राम वालों को जीवन जीने का सही मार्ग दिखाया था। वर्तमान समय में जिस स्थान पर गुरु जी ठहरे थे उस स्थान पर एक अति विशाल जंड (बड़) का वृक्ष मौजूद है। उस समय जो स्वच्छ पानी की छपड़ी (जल स्त्रोत) थी, उसे सरोवर में तब्दील कर दिया है। इस ग्राम राजौमाजरा में वर्तमान समय में एक अति विशाल भव्य, विलोभनीय गुरुद्वारा साहिब पातशाही नौवीं सुशोभित है।