धन्य-धन्य गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ अपनी धर्म प्रचार प्रसार यात्रा हेतु ग्राम अली शेर नामक स्थान पर पहुंचे थे। वर्तमान समय में अली शेर नामक ग्राम में गुरु जी की स्मृति में दो गुरुद्वारे साहिब जी सुशोभित हैं। ग्राम के बाहरी इलाके में इस स्थान पर भव्य गुरुद्वारे का निर्माण चल रहा है। इस स्थान पर एक वन का वृक्ष भी मौजूद है। हमारी जानकारी के अनुसार वन विभाग को इस वृक्ष के नाम से ही जाना जाता है। धन्य-धन्य गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ में बारह माह तुखारी में भी इसका उल्लेख किया गया है। जिसे इस तरह से अंकित किया गया है:-
बन फूले मंझ बारि मै पिरु धरि बाहुडै़॥
(अंग क्रमांक ११०८)
इस वृक्ष में पीला नामक फल लगता है। साथ ही इस वृक्ष का बहुमूल्य उपयोग चिकित्सा विज्ञान में भी किया जाता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इसके उपयोग से पेट के अंदर की सूजन समाप्त हो जाती है। यदि हम इसकी छाल का दातुन बनाकर उपयोग करें तो यह मसूड़ों की सूजन को भी समाप्त कर देता है। पंजाब में इस वृक्ष से जोड़ कर एक कहावत अत्यंत प्रचलित है जिसे इस प्रकार से कहा जाता है कि:-
कि तेरे की हुण वन वधणंगे॥
भावार्थ जो वन का वृक्ष है वो ऊपर की और नहीं बढ़ता है। हमेशा नीचे की और झुका हुआ रहता है। इस वन के वृक्ष को पंजाबी सभ्याचार में लोकगीत के माध्यम से गाया भी जाता है। सुबा पंजाब के मालवा प्रांत के मीठा मेवा के रूप में भी इसे निरूपित किया गया है। साथ ही गुरु जी के काफिले के साथ बहुसंख्या में ऊंट और घोड़े भी थे। यदि इस वन नामक वृक्ष के पत्तों को ऊंटों को खिला दिया जाए तो वो कई प्रकार के रोगों से रोग मुक्त भी हो जाते हैं। रसायन विज्ञान के अनुसार इस वृक्ष में सोडियम बाई कार्बोनेट, कैलशियम ऑक्साइड, सोडियम क्लोराइड के साथ और भी कई तरहां के रसायन पाए जाते हैं। यदि इस वृक्ष के पत्तों को घोड़ों को खिलाया जाए तो उनकी पाचन शक्ति मजबूत हो जाती है। यदि इन पत्तों की मलहम बनाकर जख्मों पर लगाया जाए तो वो भी ठीक हो जाते हैं। यह महत्वपूर्ण जानकारी देना इसलिए भी आवश्यक था कि लोगों ने मनमतीयों के कहने में आकर इस वृक्ष की पूजा करना प्रारंभ कर दी है। इस वृक्ष की देखभाल इसलिए भी की जाती है कि चिकित्सा विज्ञान में इसके चिकित्सीय गुण अत्यंत महत्वपूर्ण है। दुख की बात है यह मूल्यवान वृक्ष सुबा पंजाब से धीरे-धीरे अलिप्त होता जा रहा है।
यदि हम धन्य – धन्य गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ से संबंधित इतिहास और स्त्रोतों को संज्ञान में ले तो इस इतिहास में जिन – जिन वृक्षों का उल्लेख होगा, उनके सभी गुणों और तथ्यों को भी हम इस श्रृंखला के माध्यम से उजागर करने का प्रयत्न करेंगे। इस श्रृंखला में विशेष रूप से इन तथ्यों की जानकारी इसलिए भी प्रदान की जा रही है कि पंजाब के बाहर या विदेशों में रहने वाले हमारे पाठकों (संगतों) को इन वृक्षों की बहुमूल्य जानकारी मिल सकें।
अपनी धर्म प्रचार – प्रसार यात्रा के दरमियान गुरु जी इस वन के वृक्ष के नीचे ही विराजमान हुए थे और उनके घोड़ों को भी इसी वृक्ष से बांधा गया था। उस समय इस स्थान पर दूर – दूर तक छांव नही थी। गुरु जी ने कुछ समय इस वृक्ष की छांव में विश्राम किया था और अपनी भविष्य की यात्रा के लिए प्रस्थान कर गए थे। वर्तमान समय में भी वन का वृक्ष इस स्थान पर मौजूद है और साथ ही गुरुद्वारा साहिब के भवन का निर्माण कार्य भी इस स्थान पर चल रहा है। इस स्थान पर गुरु जी पहले भी आ चुके थे, पहली बार जब गुरु जी इस स्थान पर आए थे तो उनकी स्मृति में एक टिब्बा (टीला) बनाया गया था। वर्तमान समय में भी इस टिब्बा वाले स्थान पर गुरुद्वारा साहिब सुशोभित है। साथ ही इस स्थान पर पुरातन करीर का वृक्ष भी मौजूद है। यह करीर का वृक्ष उष्ण इलाकों में पाया जाता है। इस वृक्ष का सिक्ख इतिहास के साथ गहरा संबंध है। जिसका उल्लेख भविष्य में आने वाले प्रसंगों में किया जाएगा। इस करीर के वृक्ष की लकड़ी को कभी भी दीमक नहीं लगती है। इसके औषधीय गुणों से जड़ों का बुखार और गठिया के रोगियों का सफलतापूर्वक इलाज किया जाता है। इस वृक्ष मैं पत्ते नहीं पाए जाते हैं। इस वृक्ष में केवल कांटे ही होते हैं, इस वृक्ष में लगने वाले फल ‘डेले’ कहलाते हैं। इन फलों का उपयोग सुबा पंजाब के लोग अचार बनाने के रूप में भी करते हैं। पंजाब में ‘डेले’ का अचार बहुत प्रसिद्ध है। उस समय का यह पुरातन करीर का वृक्ष वर्तमान समय में भी अली शेर नामक ग्राम में मौजूद है। कई गुरुद्वारों और गुरु धामों में यह वृक्ष वर्तमान समय में भी मौजूद है।
इस इतिहास की तरहां ही जिन – जिन स्थानों को गुरु जी ने अपने चरण – कमलों से स्पर्श किया है, उस स्थान की निशानियां को, उस समय के पुरातन वृक्षों को, उस स्थान पर वर्तमान समय में क्या अवशेष शेष रह गए हैं? वो सभी ऐतिहासिक जानकारियां इस श्रृंखला के माध्यम से संगतों (पाठकों) को अवगत करवाई जाती रहेंगी। उन भूले – बिसरे सभी ऐतिहासिक तथ्यों का पुनः उल्लेख इस श्रृंखला के प्रसंगों में किया जाएगा। जिन तथ्यों को हमने अपने से दूर कर दिया है।
इस श्रृंखला के प्रसंग क्रमांक ७७ में गुरु जी की भविष्य की यात्रा में ग्राम रल्ला, ग्राम जोगा और ग्राम भोपाल के इतिहास से संगतों (पाठकों) को रू – बरू करवाया जाएगा।