इस प्रस्तुत श्रृंखला के प्रसंग क्रमांक 67 के अंतर्गत ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ साबो की तलवंडी से प्रस्थान कर कोट धरमो नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस कोट धरमो का गुरु जी के इतिहास से क्या संबंध है? इस संपूर्ण इतिहास से संगत (पाठकों) को अवगत करवाया जाएगा।
विगत इतिहास अनुसार ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने साबो की तलवंडी नामक स्थान पर ग्राम वासियों के पानी के प्रबंधन की सुविधा के लिए तालाब को गहरा खुदवाया था। वर्तमान समय में उस स्थान पर सरोवर सहित गुरुद्वारा मंजी साहिब पातशाही नौवीं सुशोभित है।
इस स्थान पर एक सिख भाई जगता जी उपस्थित हुआ, जो कि कोट धरमो नामक स्थान का निवासी था। इस भाई जगता जी ने गुरु जी से निवेदन किया कि समीप के ग्राम कोट धरमो में मेरा निवास स्थान है आप भी मेरे निवास स्थान पर पधार कर हमारे ग्राम की धरती को अपने चरण-चिन्हों से पवित्र करें। गुरु पातशाह जी ने उस के निवेदन को स्वीकार कर, ग्राम कोट धरमो नामक स्थान पर पहुंचे थे।
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने इस ग्राम के बाहर ही अपने डेरे को लगाया था। इस स्थान पर दूर-दराज से संगत दर्शन-दीदार हेतु पहुंचने लगी थी। दीवान सज कर, दीवान में नित्य-प्रतिदिन गुरबाणी का कीर्तन प्रथा अनुसार प्रारंभ हो गया था। जिस स्थान पर अच्छे लोग होते हैं उस स्थान पर बुरे लोग भी होते हैं। संगत में बैठकर अनेक लोगों के जीवन बदल जाते हैं और कुछ लोगों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता है। उस स्थान पर रोज शाम को दीवान लगने लगे थे, इन दीवानों में सोदर का पाठ किया जाता था। गुरु का सिख भाई नत्था रबाबी की ओर से दीवान में प्रतिदिन कीर्तन किया जाता था। गुरु पातशाह जी स्वयं भी कीर्तन करते थे। बड़ी संख्या में संगत जुड़ने लगी थी। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ॰ त्रिलोचन सिंह जी रचित इतिहास अनुसार स्थानीय निवासी चार चोर भी प्रतिदिन दीवान में हाजिरी लगाकर संगत के साथ बैठते थे।
गुरबाणी में अंकित है–
पापु बुरा पापी कउ पिआरा॥
पापि लदे पापे पासारा॥ (अंग क्रमांक 935)
अर्थात्
पाप है तो बुरा परंतु पापी को प्यारा लगता है। क्योंकि गुरबाणी में अंकित है–
करमी आपो आपणी के नेड़ै के दुरि॥
(अंग क्रमांक 8)
अर्थात्
कोई अपने कर्मों के अनुसार गुरु के समीप हो जाता है, तो कोई दूर हो जाता है। जो चोर है वह चोरी करने से बाज नहीं आता, चोर के लिए चोरी करने का स्थान एक जैसा होता है, फिर वह गुरु घर हो, या मंदिर हो, या मस्जिद हो, या कोई भी धार्मिक स्थान हो।
इन चोरों ने मौका देखकर गुरु जी के तबेले से दो घोड़ों चोरी कर लिए थे और उन घोड़ों को लेकर धीरे-धीरे डेरे से दूर चले गये थे। जब सिखों को ज्ञात हुआ कि तबेले में से दो घोड़ों की चोरी हो चुकी है तुरंत सिखों ने अपने घोड़े पर सवार होकर इन चोरों का पीछा किया था। देर रात को पीछा करते-करते सिख सवारों ने इन चोरों को गिरफ्तार कर उनकी मुश्कों को बांधकर उन्हें डेरे में पुनः लाया गया था।
दूसरे दिन दीवान में इन चोरों को गुरु पातशाह जी के सम्मुख उपस्थित किया गया था। विनम्र स्वभाव के गुरु जी ने इन चोरों के साथ नरमी का रुख अख्तियार किया था। जिसे गुरबाणी में ऐसे अंकित किया गया है–
सतिगुरु सभना दा भला मनाइदा तिस दा बुरा किउ होइ॥
(अंग क्रमांक 302)
गुरु जी ने सिखों को वचन किए कि इनके बांधे हुए हाथों को खोल दिया जाए। जब इन चोरों के हाथ खोल दिए गए तो गुरु पातशाह जी ने वचन किए, भाई तुम कैसे इंसान हो? कम से कम गरीबों की गोदड़ीयों को तो बख्श दो। जब तुम्हें इन घोड़ों की इतनी आवश्यकता थी, तो हमें बता देते! कारण यह तो ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ का दर है। इस स्थान पर किसी भी वस्तु का कोई घाटा नहीं है। हम तुम्हें ऐसे ही तुरंत घोड़े दे देते थे। इन्हें चोरी करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
गुरबाणी में अंकित है–
चोर की हामा भरे न कोइ॥
चोरु कीआ चंगा किउ होइ॥ (अंग क्रमांक 662)
गुरु जी के द्वारा विनम्रता पूर्वक किए गए वचनों से इन चोरों के हृदय परिवर्तन हो गए थे। उन्होंने शीश झुकाकर गुरु चरणों को पकड़ लिया था। इन चोरों में से एक चोर को अत्यधिक मनस्ताप हुआ था और उसने निकट ही स्थित एक वृक्ष के छोटे तने को शूल की तरह नुकीला कर, वृक्ष पर चढ़कर इस नुकीले तने पर पेट के बल छलांग लगा दी थी। इस कारण पेड़ का नुकीला तना इस चोर के पेट से आर-पार हो गया था और इस चोर ने आत्महत्या (सूली) कर अपनी जीवन यात्रा का दर्दनाक अंत कर लिया था।
वर्तमान समय में इस स्थान पर गुरुद्वारा सूली सर गुरु जी की स्मृति में सुशोभित है। पुरातन समय में इस स्थान पर वह पेड़ का तना भी मौजूद था परंतु वर्तमान समय में वह पेड़ का तना इस स्थान पर नहीं है। इस गुरुद्वारा साहिब में सरोवर भी सुशोभित है। साथ ही इस गुरुद्वारे में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के शस्त्र भी मौजूद है। इन शास्त्रों में एक पिस्टल भी मौजूद है।