प्रसंग क्रमांक 53: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की धर्म प्रचार-प्रसार के समय ग्राम नौलखा का इतिहास।

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‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अपने पूरे परिवार और प्रमुख सिखों सहित धर्म प्रचार-प्रसार की यात्राएं निरंतर कर रहे थे। इस यात्रा के तहत गुरु जी पटियाला शहर के समीप नौलखा नामक स्थान पर पहुंचे थे। जब गुरु जी इस ग्राम में पधारे तो आसपास के इलाके की संगत श्रद्धा-भावना से आपके सम्मुख उपस्थित होती थी और गुरु जी सभी संगत को नाम-वाणी से जोड़ते थे।

सैफाबाद के आसपास के इलाके में गुरु जी लगातार भ्रमण कर रहे थे। आसपास की संगत भली-भांति जान चुकी थी कि गुरु जी इस इलाके में है और संगत को वहमों और भ्रमों से दूर कर प्रभु-परमेश्वर के नाम वाणी से जोड़ते थे। जब गुरु जी इस ग्राम में नौलखा में पधारे थे तो आसपास के संगत उनके दर्शन-दीदार करने उपस्थित होती थी। रोज दीवान सजते थे। संगत को नाम-वाणी से उपदेशित कर नाम-वाणी से जोड़ा जाता था।

इस ग्राम में लखी नामक बंजारा जो कि गुरु जी का सेवक था। उसका वलद (बैल) अचानक खो गया था। उस लखी बंजारे ने गुरु जी के चरणों में अरदास कर अपने खोए हुए वलद (बैल) की पुनः प्राप्ति की मांग की थी एवं कहा कि यदि मेरा बैल मुझे प्राप्त हुआ तो ही मैं अपने जीवन के बचे हुए कार्य को आसानी से कर सकता हूं। गुरु जी की कृपा से लखी बंजारे को उसका बैल पुनः प्राप्त हो गया था।

लक्खी बंजारा अपने खोए हुए बैल के साथ गुरु जी के दर्शनों को उपस्थित हुआ था एवं उसने अपने स्वयं के पास उपलब्ध उस समय की मुद्रा के नौ टके गुरु जी के सम्मुख भेंट स्वरूप रख दिए थे। गुरु जी ने भेंट स्वरूप प्राप्त हुए नौ टके संगत में बांट दिए थे।

लखी बंजारे के मन में ख्याल आया कि मेरे पास केवल नौ टके मुद्रा थी। शायद इस कारण से गुरु जी ने इस राशि को आम संगत में वितरित कर दी। यदि मैं गुरु जी को और ज्यादा टके भेंट स्वरूप दूंगा तो गुरु जी निश्चित ही उस राशि को स्वयं के पास रख लेंगे। लखी बंजारे के मन की बात को गुरु जी ने जान लिया था, गुरु जी तो अंतर्यामी थे।

घट घट के अंतर की जानत॥

भले बुरे की पीर पछानत॥

(कबयो बाच बेनती)

गुरबाणी की पंक्तियों के अनुसार गुरु जी ने लखी बंजारे के मन की बात को भांप लिया था। गुरु जी ने लखी बंजारे को अपने सामने बुलाकर वचन किये कि भाई क्या बात है? आप किस सोच विचार में हो? लखी बंजारे ने उत्तर दिया कि पातशाह जी आज केवल मेरे पास नौ टके ही मौजूद थे पर मैं मेहनत मजदूरी करके और टके जमा कर आपको भेंट स्वरूप अर्पित करूंगा।

‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने उस लखी बंजारे को अपने समीप बैठा लिया था और गुरु जी ने वचन किये कि भाई लखी तेरा एक-एक टका हमारे लिए एक-एक  लाख के समान है। हमारे लिए तो भेंट स्वरूप प्राप्त हुए नौ टके, नौ लाख के समान है। श्रद्धा और विश्वास के साथ गुरु जी को अर्पित एक कौड़ी भी मंजूर है। ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने वचन कर लखी बंजारे को समझाया कि भाई गुरु नानक जी का घर तो दात देने वाला है।

विरासत में प्राप्त हुए इस ग्राम के इतिहास को जब ग्राम के बुजुर्गों से प्रकाश डालने के लिए कहा तो ज्ञात हुआ कि इस ग्राम का मोहड़ी गड्ड (नींव का पत्थर) गुरु जी ने स्वयं के कर-कमलों से रखा था। उस नौ टके से नौ लाख के इतिहास के कारण इस ग्राम को नौलखा के नाम से संबोधित किया जाने लगा। इस ग्राम में गुरु जी की स्मृति में भव्य गुरद्वारा साहिब सुशोभित है, इस गुरुद्वारे को नौलखा साहिब जी पातशाही नौवीं के नाम से संबोधित किया जाता है।

संगत जी हम सभी गुरु के दर पर भेंट लेकर जाते हैं परंतु सच्ची भेंट क्या है? गुरुबाणी के अनुसार बहुत ज्यादा माया जो गुरु के सम्मुख रखेगा वह मंजूर होगी तो ऐसा नहीं है। हम रोज नितनेम में पाठ करते हैं कि गुरु जी के सम्मुख हमें क्या रखना चाहिए? गुरुबाणी अनुसार–

फेरि कि अगै रखीऐ जितु दिसै दरबारु॥

मुहौ कि बोलणु बोलीऐ जितु सुणि धरे पिआरु॥

अंम्रित वेला सचु नाउ वडिआई वीचारु॥

करमी आवै कपडा़ नदरी मोखु दुआरु॥

नानक एवै जाणिऐ सभु आपे सचिआरु॥

          (अंग क्रमांक 2)

अर्थात् हम गुरु के सम्मुख ऐसा कौन सा नजराना रखें? ऐसी कौन सी भेंट अर्पित करें? जिससे उसके सच्चे दरबार के दर्शन हो, हमारे मुख से ऐसे कौन से बोल बोलने चाहिए? जिसे सुनकर प्रभु-परमात्मा हमें प्यार करें।

गुरु जी फरमाते हैं कि वह समय जिसका कभी नाश नहीं होता है अर्थात ब्रह्म मुहूर्त में उस प्रभु-परमेश्वर का सिमरन कर उसकी सिफत (गुणगान) करनी चाहिए। कारण यह शरीर रूपी कपड़ा हमें उसकी कृपा दृष्टि के कारण ही प्राप्त हुआ है। जब हम पर प्रभु-परमेश्वर की कृपा दृष्टि होगी तो हमें मोक्ष का द्वार प्राप्त होगा और सारा कुछ प्रभु-परमेश्वर आप स्वयं हैं।

भावार्थ है कि हमें जो आत्मिक आनंद का मार्ग प्राप्त होगा, यही उस प्रभु-परमेश्वर की प्रेम रूपी भेंट है।  हमारे द्वारा की जाने वाली उसकी प्रशंसा और विचार ही सबसे बड़ी भेंट है। वाहिगुरु जी इन भेटों से ही आनंदित होते हैं। जो भौतिक भेंट वस्तुएं हम उस परमेश्वर के समक्ष अर्पित कर रहे हैं, वह सभी वस्तुएं तो उसके द्वारा ही हमें प्रदान की गई है। अर्थात् प्रभु-परमेश्वर केवल उसके गुणगान और उसके नाम स्मरण करने से ही खुश होता है। हमें जीवन में ज्यादा से ज्यादा नाम रूपी भेंट अर्थात ज्यादा से ज्यादा गुरबाणी का अध्ययन करना चाहिए। प्रभु परमेश्वर के विचारों का मनन करना चाहिए। अपना बहुमूल्य समय वाहिगुरु जी के चरणों में अर्पित करें। यह प्रभु-परमेश्वर को मान्य असली भेंट है। वाहिगुरु जी की कृपा दृष्टि रही तो नौ टक्के से नौ लाख होते हुए देर नहीं लगती है।

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