‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अपनी धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा के दौरान पूरे परिवार और संगत के साथ हरपालपुर से चलकर ग्राम हसनपुर-कबूलपुर नामक स्थान पर पहुंचे थे। ग्राम हसनपुर-कबुलपुर दो सगे भाइयों के नाम पर आबाद हुआ है। इन दोनों भाइयों का नाम हसन और कबूल था। हसन के नाम पर ग्राम हसनपुर एवं कबूल के नाम पर ग्राम कबूलपुर आबाद है। इन दोनों ग्रामों को एक ही नाम से उच्चारित किया जाता है हसनपुर-कबूलपुर।
गुरु जी ने इस स्थान पर निवास करने वाले एक शेख के साथ कुछ दिन बिताए थे। गुरु जी ने शेख के साथ रहते हुए प्रभु-परमात्मा के दर्शन शास्त्र पर चर्चा कर इस को गुरबाणी की निम्नलिखित पंक्तियों से उपदेशित किया था–
अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे॥
(अंग क्रमांक 1349)
गुरु जी ने शेख को मिलकर अपने वचन किए थे कि–
मुसलमान मोम दिल होये, अंतर की मल दिल ते धोये।
अर्थात मुस्लिम धर्म के अनुयायियों को मोम दिल के समान होना चाहिए। भावार्थ जैसे अग्नि के समीप आने पर मोम पिघल जाता है। ठीक उसी प्रकार किसी के ऊपर जुल्म, दुख और दर्द को होते हुए देखकर इन्हें पिघल जाना चाहिए। इस तरह से मुस्लिम धर्मीय नरम दिल के होने चाहिए।
इस स्थान पर गुरु जी ने तीन दिन तक निवास कर सिख धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। इसके पश्चात दशमेश पिता ‘श्री गुरु गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ भी इस स्थान पर पधारे थे और अपने चरण-चिन्हों के स्पर्श से इस स्थान को पवित्र किया था। वर्तमान समय में इस स्थान पर पातशाही नौवीं और पातशाही दसवीं की स्मृति में गुरुद्वारा साहिब सुशोभित है।
इस गुरद्वारा साहिब में एक पट्टा भी मौजूद है। कई बार इन पट्टों को हम हुकुमनामा समझ लेते हैं परंतु यह पट्टा किसी आम लेखक के द्वारा लिखा गया है। इस पट्टे को संगत ने सम्मान पूर्वक संभाल कर रखा हुआ है।
इस गुरुद्वारा परिसर (हदूद) में एक कुआं भी स्थित है। ग्राम के लोगों ने इस कुएं की उत्तम देखभाल करके उन्होंने इसे संभाला हुआ है। इसके पश्चात गुरु जी ग्राम ननहेड़ी नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस ग्राम ननहेड़ी में गुरु जी का एक सिख पहले से ही धर्म प्रचार-प्रसार कर रहा था। इसके पश्चात गुरु जी का एक फतेहचंद नामक सिख गुरु जी को निवेदन कर अपने स्वयं के ग्राम में लेकर गया था। गुरु जी ने भाई फतेहचंद के ग्राम में भी पहुंचकर सिख धर्म का प्रचार-प्रसार किया था।
आसपास के इलाके की संगत भी गुरु जी से जुड़ गई थी। गुरुजी ने भाई फतेह चंद को इन इलाकों में धर्म प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी दी थी एवं आप जी अपनी अगली यात्रा के लिए प्रस्थान कर गए थे।
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी द्वारा ग्राम ननहेड़ी में सिक्खी का बूटा रोपित हो चुका था। यदि हम इतिहास को दृष्टिक्षेप करें तो लखनौर जाते समय दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ ने भी इस स्थान को अपने चरण-चिन्हों से स्पर्श कर पवित्र किया था। दशमेश पिता अपने कई प्रमुख सिखों के साथ इस स्थान पर पधारे थे। इस स्थान पर बहुसंख्या में सिख आज भी रहते हैं।
इस ग्राम ननहेड़ी में एक घोगा नामक मसंद निवास करता था। जो कि अपने धर्म के मार्ग से भ्रष्ट हो चुका था। इस मसंद ने संगत के साथ आई एक सिख सेवादारनी (महिला सेवादार) को अपने घर में काम करवाने हेतु छुपा कर रख लिया था। जब यह सेवादारनी जत्थे में खोजने पर नहीं मिली तो उसकी खबर दशमेश पिता गुरु जी को दी गई थी। ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ अंतर्यामी थे उन्होंने तुरंत कहा कि इस ग्राम में एक मसंद निवास करता है और वह मसंद कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है, इसका कारण क्या है? सेवादारों को गुरु जी ने वचन कर कहा कि इस मसंद के घर पर जाकर पता लगाओ तो निश्चित ही वह सेवादारनी भी आपको वहां मिलेगी। जब गुरु के सिख मसंद के घर पहुंचे तो वह सेवादारनी को घोगा मसंद के घर से बरामद किया और उसे लेकर गुरु जी के समक्ष उपस्थित हुए थे परंतु मसंद घोगा गुरु जी के सम्मुख नही आया था।
उस समय गुरु जी ने वचन किए थे कि मसंद घोघा की पोल खुल चुकी है। यदि घोगा मसंद हमारे सम्मुख आएगा तो हम उसे माफ कर देंगे परंतु घोगा मसंद नहीं आया था। गुरु जी ने वचन किए थे कि यदि घोगा मसंद संगत के सम्मुख उपस्थित होकर माफी मांग लेगा तो वह निश्चित ही बख्शा जाएगा, नहीं तो भविष्य में धक्के खाएगा।
इस घोगा नामक मसंद ने गुरु जी की एक न सुनी थी। इस ग्राम ननहेड़ी में सुशोभित गुरुद्वारा साहिब के प्रबंधक सरदार गुरबचन सिंह जी और सरदार गुलजार सिंह जी से इतिहास की जानकारी मिली थी। गुरबचन सिंह जी ग्राम के प्रमुख सेवादार और वर्तमान समय में सरपंच भी हैं। इन दोनों सेवादारों ने इस श्रृंखला के रचयिता को घोगा मसंद का निवास स्थान भी दिखाया था। इस निवास स्थान के पीछे वह छोटा कमरा आज भी स्थित है, जिसमें इस घोगा मसंद ने सिख सेवादारनी को छुपा कर रखा हुआ था।
इस ग्राम ननहेड़ी में घोगा मसंद की पीढ़ी आज भी आबाद है। समय की जरूरत है कि इस परिवार की पीढ़ी के लोगों को सिख धर्म की शिक्षा से नवाजा जाए। इन लोगों को समझाने की आवश्यकता है कि मसंद कोई गलत शब्द नहीं है। मसंद शब्द का अर्थ बहुत ही ऊंचा और पवित्र था। कुछ मसंद जो कि धर्म भ्रष्ट हो गए थे उन लोगों के कारण यह मसंद शब्द बदनाम हो गया है। हमारे प्रचारकों के द्वारा इन भूले-भटके लोगों को सम्मान पूर्वक सिख धर्म की शिक्षाएं देकर इन्हें सिख सजाने की आवश्यकता है। इस तरह से जो भूले-भटके सिख उन्हें पुनः सिख धर्म में सम्मान पूर्वक लेकर आने के लिए विशेष प्रयत्न करने होंगे। इस स्थान पर भी भव्य गुरुद्वारा साहिब सुशोभित है।