प्रसंग क्रमांक 3 : भावी श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की अद्भुत बाल लीलाओं से परिपूर्ण जीवन यात्रा।

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‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ का प्रकाश 1 अप्रैल सन् 1621 ई. दिन रविवार को हुआ था और पिता श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी  के द्वारा आपका नामकरण ‘तेग बहादुर’ के नाम से किया गया था। कई ऐतिहासिक ग्रंथों और संदर्भों में आप जी को ‘त्यागमल’  कहकर भी संबोधित किया गया है परंतु बचपन से ही आपका नाम ‘तेग बहादुर साहिब’ रख दिया था। यदि हम सिख धर्म के दस गुरु ‘श्री गुरु नानक देव जी’ से दसवें ‘श्री गुरु गोविंद सिंह  जी’ के नामों पर गौर करें तो केवल ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’  का नाम ही फारसी भाषा में रखा गया था।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’  की वाणी में अंकित है–

जा तुधु भावै तेग वगावहि सिर मुंडी कटि जावहि ॥

 (अंग क्रमांक 145)

 अर्थात् तेग का अर्थ होता है कृपाण, खड्ग।

“देग, तेग जग में दो चले” अर्थात् आप जी तेग के साथ-साथ अत्यंत बहादुर भी होंगे।

आप जी को बचपन में पूरे परिवार की और से अत्यंत लाड़-प्यार मिला था। आप जी की बड़ी बहन ‘बीबी वीरो’ आप जी को अत्यंत प्यार कर पालने में खिलाती थी। बड़े आश्चर्य की बात है कि आप जी ने बाल्यावस्था में कभी भी रोकर ‘दूध पीने’  की मांग नहीं की थी।

एक दिन ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ अपने तख़्त पर विराजमान होकर संगत को उपदेश कर रहे थे तो उस समय आप जी अपनी बाल लीलाओं से सभी को मोह लेते हैं और खेलते-खेलते गुरु जी की गोद में जाकर बैठ जाते हैं। उस समय बाल ‘तेग बहादुर साहिब जी’ ने गुरु जी के पीरी वाले ‘गातरे’ को कसकर पकड़ लिया था। (कृपाण को संजो  कर रखने वाले कपड़े से बने  हुए पट्टे को ‘गातरा’ शब्द से संबोधित करते हैं)। जब गुरु जी ने आप जी के हाथ से गातरा छुड़ाने का प्रयत्न किया तो आप जी ने उसे और कसकर पकड़ लिया था। उस समय ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’  ने भाव विभोर होकर कहा था कि पुत्तर जी अभी समय नहीं आया है, जब समय आएगा तब आपको ‘देग’ चलानी भी पड़ेगी और खानी भी पड़ेगी।

माता नानकी जी की कोख से दो बालक बाबा अटल जी और तेग बहादुर साहिब जी ने जन्म लिया था। तेग बहादुर साहिब जी और बाबा अटल जी का आपस में बहुत स्नेह था और आप दोनों भाई हमेशा साथ में रहकर संगत करते थे। गुरु जी के अन्य पुत्र भी संगत करते थे परंतु तेग बहादुर साहिब जी सजे हुए दीवान में सबसे पीछे ‘विस्मय रंग’ में रंग कर हमेशा शीश झुकाकर विनम्रता से दीवान की समाप्ति तक बैठते थे। आप जी का स्वभाव एकदम गरीब था और आप जी ‘एकांत प्रिय’ थे। माता नानकी की जी ने ‘श्री गुरु  हरगोविंद पातशाह जी’ से वार्तालाप करते हुए इस बात की चिंता जताई थी कि ‘ तेग बहादुर जी’ स्वभाव से कुछ अलग हैं। ‘तेग बहादुर जी’ के भाई बाबा गुरदित्ता जी,भाई अनि राय जी और भाई सूरजमल संगत से मेलजोल कर सेवाएं करते थे परंतु ‘तेग बहादुर जी’ का स्वभाव अपने सभी भाइयों से अलग था। एकांत प्रिय ‘तेग बहादुर जी’  संगत से, मसंदों से और सेवादारों से ज्यादा घुलते-मिलते नहीं थे। ‘पंथ प्रकाश’ नामक ग्रंथ में अंकित है–

कहि बोलहि बहु धारहि मौन जग बिवहार न जानहि कौन ॥

 अर्थात एकांत प्रिय ‘तेग बहादुर साहिब जी’ यदि किसी से वार्तालाप नहीं करेंगे और मेलजोल नहीं रखेंगे तो सांसारिक जीवन में इनकी जान-पहचान कैसे होगी?

 ‘श्री गुरु हरगोबिन्द पातशाह जी’ ने माता नानकी जी से कहा था कि यह बालक, आम बालक नहीं है। इसकी रुचि दूसरे बालकों से एकदम अलग होगी। आप जी माता नानकी से कहते हैं कि आगे किस को कौन पहचानेगा? आप जी चिंता मत करो भविष्य में इसके गृह में एक ऐसा तेजस्वी पुत्र जन्म लेगा, जिसके संबंध में गुरु जी ने अपने मुखारविंद से उच्चारित किया–

“इसको पुत्तर होये बलवंड तेज प्रचंड खलखंड़”।।

अर्थात् एक ऐसा योद्धा पुत्र जन्म ले लेगा जो दुनिया में ‘श्री गुरु नानक साहिब जी’ की इस फुलवारी में चांद चार लगा देगा। 

सन् 1625 ई. में आप जी के बड़े भ्राता भाई गुरदित्ता जी के ‘परिणय बंधन’ का आयोजन किया गया था। उस समय इस चार वर्ष की आयु में आप जी के ‘त्याग मूर्ति’ स्वभाव के दर्शन होते हैं। इस ‘परिणय बंधन’ में जब बारात का आयोजन हुआ था तो ‘तेग बहादुर जी’ को सुंदर परिधान और आभूषणों से सुशोभित किया गया था। पूरी बारात सज के ‘गुरु के महल’ से थोड़ी दूर पहुंची हो तो चार वर्ष की आयु के ‘तेग बहादुर जी’ ने एक निर्धन बालक को देखा जो अत्यंत गरीब और वस्त्र हीन था। ठंड के इस समय में ‘तेग बहादुर जी’  ने उस बालक से पूछा कि बारात के साथ चलते हुए आपने सुंदर वस्त्र क्यों परिधान नहीं किए हैं? उस गरीब बालक में हाथ जोड़कर अश्रूपूरित आंखों से उत्तर दिया कि मेरा और मेरी मां का भी दिल करता है कि मैं सुंदर वस्त्र परिधान करें परंतु हमारे पास तो दो वक्त खाने के लिए रोटी भी उपलब्ध नहीं है, तो आप ही बताएं मैं अपने तन पर सुंदर वस्त्रों को कैसे परिधान करूं? तेग बहादुर साहिब जी उस गरीब बालक की व्यथा सुनकर वहीं खड़े हो गए एवं ‘भाव विभोर’ होकर आप जी ने अपने सुंदर परिधान और आभूषणों को उतारकर बालक को पहना दिए।

उस समय सारा परिवार ‘परिणय बंधन’ की खुशी के रंग में डूबा हुआ था परंतु तेग बहादुर जी एक निर्धन-निर्वस्त्र बालक के तन को अपने वस्त्रों से ढक कर खुशी मना रहे थे।

बाल ‘तेग बहादुर साहिब जी’ का रुतबा बहुत ही ऊंचा था। एक दिन एक महिला अपने छोटे बच्चे को लेकर आई और कहने लगी कि यह आपका बाल सखा है, आप ही इसे समझाएं कि यह ज्यादा गुड ना खाया करें।  बाल ‘तेग बहादुर’ ने उत्तर दिया की माता जी आप मेरे पास इस मेरे बाल सखा को अगले हफ्ते लेकर आना और जब अगले हफ्ते वो  माता अपने बच्चे को लेकर ‘तेग बहादुर जी’ के पास गई और कहने लगी कि यह अभी भी बहुत गुड खाता है, आप इसे समझाएं कि ज्यादा गुड़ खाना अच्छी बात नहीं होती है। ‘तेग बहादुर जी’ ने उस बाल सखा को कहा कि आप ज्यादा गुड मत खाया करो तो माता बोल पड़ी कि इस एक वाक्य को बोलने के लिए आपने मुझे पूरे एक हफ्ते का इंतजार क्यों करवाया? बाल तेग बहादुर जी ने उत्तर दिया कि माता जी एक हफ्ते पहले उस दिन मैंने आप ही गुड़ खाया हुआ था। इसलिए मैं उस दिन मैं  मेरे बाल सखा को कैसे मना कर सकता था? ‘श्री गुरु तेग बहादुर जी’ अपने वचनों के पक्के थे। प्रत्येक शब्द को तोल-मोल कर बोलते थे। 

नोट–1. ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ मीरी और पीरी ऐसी दो कृपाण धारण करते थे। इन कृपाणों को ‘भक्ति-शक्ति’ या ‘संत-सिपाही’ की उपमा से भी मंडित किया जाता था।

प्रसंग क्रमांक 4 : श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी द्वारा ग्रहण की शिक्षाओं का इतिहास।

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