प्रसंग क्रमांक 30 : श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की जीवन यात्रा से संबंधित खेमकरण नगर का इतिहास।

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 ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ तरनतारन, खंड़ूर साहिब से चलकर ग्राम खेमकरण नामक स्थान पर पहुंचे थे। खेमकरण नगर राय  बहादुर  बिधि चंद के पुत्र खेमकरण ने बसाया था। वर्तमान समय में भी खेमकरण स्थित हवेली के कुछ अवशेष इस स्थान पर शेष है। यह ऐतिहासिक हवेली की धरोहर गुरुद्वारा चैन साहिब के निकट स्थित है। पूर्व में यह इलाका पाकिस्तान के जिले कसूर से संलग्न था। पश्चात देश की सरहदों का विभाजन हुआ तो यह इलाका पंजाब राज्य के अंतर्गत आ गया था। वर्तमान समय में यह स्थान तहसील पट्टी जिला तरनतारन ग्राम खेमकरण में स्थित है। यह स्थान अमृतसर से 64 किलोमीटर और चौपाल नामक शहर से 42 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

 इस ग्राम खेमकरण का एक सिख भाई मूलचंद जी का सुपुत्र रघुपति राय ने  ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को निवेदन कर गुरु जी को अपने नगर में सम्मान पूर्वक लेकर आया था। गुरु जी के आगमन पर बहुसंख्या में संगत जुड़ने लगी थी। इस स्थान के स्थानीय निवासी भाई चैन जी और भाई धिंगाणा जी गुरु चरणों में सेवा के लिए उपस्थित हुए थे। ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने जब भाई चैन जी को मिलने के लिए आमंत्रित किया तो उनका दाडा़ (दाढ़ी) के केस इतने लंबे थे कि जब भाई चैन जी गुरु जी के दर्शन-दीदार करने आए तो कुछ सिखों ने उनके दाढ़ी के केशों को अपने हाथों में संभाल कर रखा था कारण उनके दाढ़ी के केस जमीन पर नहीं लगने चाहिए। भाई चैन जी की स्मृति में गुरुद्वारा चैन साहिब ऐतिहासिक खेमकरण की हवेली के समीप स्थित है। इस गुरुद्वारे की बनावट शैली पाकिस्तान में निर्मित गुरुद्वारों से हूबहू मिलती जुलती है। पाकिस्तान स्थित वह गुरुद्वारे जो पंथ से बिछड़ गए हैं, उनकी बनावट शैली इस गुरुद्वारा चैन साहिब की बनावट से शैली के बिल्कुल समान है।

वर्तमान समय में इस स्थान पर एक भव्य, विशाल गुरुद्वारे का निर्माण भी किया जा रहा है। इतिहासकार आदरणीय भगवान सिंह जी ‘खोजी’ ने इस श्रृंखला के माध्यम से गुरुद्वारे के प्रबंधकों से निवेदन है कि पुरातन गुरुद्वारे साहिब की भी ऐतिहासिक धरोहर के रूप में सेवा-संभाल की जानी चाहिए।

इस स्थान पर एक गुर सिख भाई धिंगाणा जी ने गुरु जी से निवेदन किया था कि है सच्चे पातशाह जी जब तक मेरी श्वास चलती है तब तक मेरे से किसी के लिए कुछ बुरा ना हो, मैं अपने जीवन की आखिरी श्वास तक प्रभु की बंदगी करना कर चाहता हूं। आप भी मुझ पर कृपा करें जब मैं अपने श्वास को छोड़ो तो आप भी मुझे दर्शन देने अवश्य पधारें।

  ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने इस प्रकार से वचन किए भाई धिंगाणा जी कोई पता नहीं–

 कहा बिसासा इस भाँडे का इतनकु लागे ठनका॥

              (अंग क्रमांक 1253)

अर्थात् भाई धिंगाणा जी कोई पता नहीं कि हम तेरे से पहले ही श्वास को छोड़कर चले जाएं। भाई धिंगाणा जी ने पुनः निवेदन कर कहा कि पातशाह जी मेरा एक निवेदन परवाण करना कि जब आप भी अपने श्वासों का त्याग करें तो इतनी कृपा करना कि उस समय मैं भी अपनी श्वासों को त्याग दो क्योंकि मैं आप जी का विछोड़ा  सहन नहीं कर सकता हूं।

इतिहास गवाह है जब ग्यारह  वर्षों के पश्चात ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने दिल्ली के चांदनी चौक में धर्म की रक्षा के लिए अपना शीश कटा कर ‘शहीद’ हुए थे तो उसी समय इस स्थान पर जहां भाई धिंगाणा जी निवास करते थे। भाई धिंगाणा जी चादर ओढ़ कर लेट गए थे और उसी समय उन्होंने अपना शरीर त्याग कर दिया था। उस समय स्थानीय संगत को ज्ञात हो गया था कि ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने भी अपना शरीर त्याग दिया है।

 वर्तमान समय में इस ग्राम खेमकरण में भाई चैन जी की स्मृति में गुरुद्वारा ‘चैन साहिब’ सुशोभित है और इस स्थान पर खेतों के मध्य गुरुद्वारा ‘धिंगाणा साहिब’ भी सुशोभित है। जिस स्थान पर गुरु जी विराजमान हुए थे उस स्थान पर गुरुद्वारा ‘गुरुसर साहिब’ सुशोभित है। इस स्थान पर गुर सिख रघुपति राय जी ने गुरु जी को यात्रा करने हेतु भेंट स्वरूप घोड़ी भी अर्पित की थी। इस स्थान पर गुरु जी ने स्थानीय संगत को नाम-वाणी से जुड़ा था।

प्रसंग क्रमांक 31: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की जीवन यात्रा से संबंधित भैणी नगर का इतिहास।

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