प्रसंग क्रमांक 28 : श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की जीवन यात्रा से संबंधित ग्राम घुकेवाली का इतिहास।

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 ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ग्राम वल्ले नामक स्थान से मार्गस्थ होकर ग्राम ‘घुकेवाली’ नामक स्थान पर पहुंचे थे। ग्राम ‘घुकेवाली’ अजनाला रोड पर ग्राम कुकड़ावाली और ग्राम फतेहगढ़ चूड़ियां के पास पंजाब में स्थित है। ग्राम ‘घुकेवाली’ ग्राम वल्ले से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान को ग्राम ‘सहंसरी’ की संगत के निवेदन पर ‘श्री गुरु अर्जन देव जी साहिब जी’ ने अपने चरणों चिन्हों से स्पर्श किया था और वहां की संगत को उपदेशित कर उनका उद्धार किया था। इसी स्थान पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ पधारे थे। प्रकृति प्रेमी गुरु जी के दर्शन-दीदार करने हेतु बहुसंख्या में संगत उपस्थित हो रही थी। ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अच्छी तरह से जानते थे कि समय की आवश्यकता क्या है? समय की नजाकत अनुसार गुरु जी संगत से मन्मथ को त्याग कराकर, गुरमत से जुड़ते जा रहे थे।

इस स्थान पर पहुंचकर गुरु जी ने संगत से प्राप्त ‘दसवंद’ (कीरत कमाई का दसवां हिस्सा) की जो माया प्राप्त हुई थी, उस माया से आप जी ने ग्राम के मुखी और  संगत को इस स्थान पर कुएं के निर्माण के लिए वचन किए थे। गुरु जी की उपस्थिति में इस स्थान पर एक कुएं का निर्माण किया गया था। यह बावली साहिब नामक कुआं वर्तमान समय में इस ग्राम में मौजूद है। इस कुएं पर एक ‘शिलालेख’ आज भी मौजूद है, जिस पर लिखा हुआ है ‘टहल कराई गुरु तेग बहादुर जी’। इस स्थान पर गुरु जी ने संगत के सहयोग और प्रमुख स्थानीय सेवादारों से मिलकर अपने स्वयं के कर-कमलों से एक सुंदर बगीचे का निर्माण किया था। वर्तमान समय में इस स्थान पर गुरुद्वारा ‘गुरु का बाग’ सुशोभित है।

इस स्थान पर स्थित सरोवर (अमृत कुंड) के किनारों पर दो गुरुद्वारे सुशोभित है। इन दो गुरुद्वारों में से एक गुरुद्वारा ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ की स्मृति में एवं दूसरा गुरुद्वारा ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की स्मृति में सुशोभित है। प्रथम इस स्थान को ‘गुरु की रौड़’ के नाम से संबोधित किया जाता था। वर्तमान समय में इस स्थान को ‘गुरु का बाग’ नाम से संबोधित किया जाता है। इन गुरुद्वारों को ‘शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह जी’ ने बड़ी जागीरे दान स्वरूप दी थी।

 ब्रिटिश राज में अंग्रेजो के द्वारा ऐसे पिट्ठू तैयार किए गए जो गुरमत के विरोध में उस समय प्रचार करते थे और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया जाता था। धीरे-धीरे ऐसे कुकर्मी और मन्मथ करने वाले महंतों का इस स्थान पर कब्जा हो गया था। इस स्थान से गुरमत सिद्धांतों के विरुद्ध प्रचार किया जाता था। सन् 1921 ई. में स्थापित शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने ‘पंजा साहिब गुरुद्वारे’ के साथ-साथ महंतों के द्वारा काबिज  सभी गुरुद्वारों को धीरे-धीरे समय अनुसार ‘शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी’ के अधीन कर लिया था।

 यह गुरुद्वारा भी ‘शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी’ के अधीन आ चुका था परंतु ब्रिटिश राज में अंग्रेजों के सहयोग से ‘गुरु का बाग’ और जमीन का मालिकाना हक पर महंतों का कब्जा था। इस स्थान पर 8 अक्टूबर सन् 1922 ई. में एक बहुत बड़ी घटना हुई थी। पांच सिख गुरु के लंगर (भोजन प्रसादी) के लिए जलाने हेतु लकड़ी एकत्रित करने जब ‘गुरु का बाग’ पहुंचे तो कब्जा धारी महंत सुंदर दास ने इन सिखों पर चोरी का झूठा इल्जाम लगा दिया था और वर्तमान सरकार की सहायता से इन पांच सिखों को गिरफ्तार कर लिया गया था। इन गिरफ्तार सिखों पर प्रत्येक को रूपये 50000 का जुर्माना और 6 महीने की सजा के अंतर्गत जेल में बंद कर दिया गया था।

उस समय सभी अकालियों ने एकजुट होकर 12 अगस्त सन् 1922 ई. को एक मोर्चा आरंभ किया था और मांग की थी कि गिरफ्तार सिखों को तुरंत रिहा किया जाए। यह मोर्चा एक जत्थे के रूप में ‘श्री अकाल तख़्त साहिब’ से अरदास कर प्रारंभ होता था और ‘गुरु का बाग’ पहुंचता था। इस मोर्चे में शामिल सभी सिखों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था।

उस समय सिखों ने अपनी एकता का अद्भुत प्रदर्शन किया था। गिरफ्तार पांच सिखों की गिरफ्तारी के विरोध में प्रत्येक दिन हिम्मत ना हारते हुए एक जत्था मोर्चा लेकर ‘श्री अकाल  तख़्त साहिब’ से अहिंसा के मार्ग का अनुसरण कर ‘गुरु का बाग’ नामक स्थान पर पहुंचता था।

इस मोर्चे में शामिल सिखों को ब्रिटिश हुक्मरानों के आदेश पर मारपीट कर बुरी तरह से जख्मी किया जाता था और सभी को जेल में बंद कर दिया जाता था। साथ ही गिरफ्तार कर कहीं दूर ले जाकर छोड़ दिया जाता था।

सिखों ने हिम्मत ना हारते हुए प्रत्येक दिन मोर्चे का आयोजन किया था। प्रत्येक दिन सिख एकत्रित होकर ‘श्री अकाल तख़्त साहिब’ से अरदास (प्रार्थना) कर मोर्चा आरंभ करते थे और मोर्चे में शामिल सिख ‘गुरु का बाग’ पहुंचकर अपनी गिरफ्तारियां देते थे। उस समय कोई भी सिख पीछे नहीं हटा था। अंत में सिखों  की एकता और एक दूसरे पर मर-मिटने की चाहत को देखते हुए, पंथिक शक्ति की इस एकजुटता के सामने ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा था।

17 नवंबर सन् 1922 ई. को इन मोर्चों को समाप्त कर दिया गया था। खालसा की जीत हुई थी और महंत सुंदर दास से जमीन का पुनः कब्जा लेकर सिखों के अधीन जमीन का कब्जा दिया गया था। जिन सिखों को गिरफ्तार कर जेल में बंद किया था अंत में उन सभी सिखों की ब्रिटिश सरकार को रिहाई करनी पड़ी थी। लगभग 5600 के करीब सिखों को जेल में बंद किया गया था। इन जेल में बंद सिखों के साथ 35 मेंबर (सदस्य) ‘शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी’ के भी थे। 839 सिख इस  मोर्चाबंदी और गिरफ्तारी में गंभीर रूप से जख्मी हुए थे।

 गुरद्वारा ‘गुरु का बाग’ के लिए एकजुटता से लड़ते हुए सभी सिखों ने निश्चय कर अपनी जीत की थी। वर्तमान समय में गुरुद्वारा ‘गुरु का बाग’ चढ़दी कला में है।  इस स्थान को ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने अपने चरण-चिन्हों से स्पर्श कर पवित्र किया था। उसी स्थान पर गुरु जी के कर-कमलों से सुंदर बाग का निर्माण किया गया था।

प्रसंग क्रमांक 29 : श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की जीवन यात्रा से संबंधित उनके पैतृक (जद्दी) ग्राम का इतिहास।

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