22 नवंबर सन् 1664 ई. को ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ‘बाबा-बकाला’ नामक स्थान से प्रस्थान कर गए थे। इस यात्रा में आप जी अपने काफिले के साथ ग्राम ‘कालेके’ नामक स्थान पर पहुंचे थे। आप जी इस स्थान से प्रस्थान करते हुए ग्राम ‘तसरिका’ नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस ‘तसरिका’ ग्राम में गुरु जी की स्मृति में कोई भी गुरु स्थान मौजूद नहीं है। प्रसिद्ध इतिहासकार आदरणीय प्रिंसिपल कोड़ा सिंह रचित इतिहास में अंकित है कि गुरु जी की स्मृति में पहले स्थानीय संगत ने एक विद्यालय का निर्माण किया था। इस विद्यालय को जी.टी.वी. खालसा हाई स्कूल से के नाम से संबोधित किया जाता था।
इस ग्राम में ‘गुरु पंथ खालसा’ के प्रचारक भाई बूटा सिंह जी निवास करते हैं, उनसे वार्तालाप करने के पश्चात ज्ञात हुआ कि वो भी इसे इतिहास से अनभिज्ञ हैं कि गुरु जी ने इस मार्ग से ही अमृतसर की और प्रस्थान किया था। इस ग्राम में स्थित विद्यालय वर्तमान समय में आम सरकारी विद्यालयों में शामिल हो चुका है। इस स्थान पर इतिहास को अधिक खोजने की आवश्यकता है। गुरु जी इस ग्राम से प्रस्थान करते हुए मार्ग में पड़ने वाले ‘लेहल’ नामक ग्राम से मार्गस्थ हुए अपने काफिले सहित धन्य-धन्य ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ की नगरी ‘अमृतसर दरबार साहिब’ में पहुंचे थे।
22 नवंबर सन् 1664 ई. के दिवस जब गुरु जी अमृतसर पहुंचे थे तो इतिहासकार भाई सरूप सिंह जी ने जिसे इस तरह से अंकित किया है–
‘बाबा बकाला’ ग्राम से चल सने-सने मगर मास की पूरनमासी (पूर्णिमा) को गुरु राम दास की नगरी गुरु चक में आए पहुंचे’।
गुरु की साखियां (पृष्ठ क्रमांक 68 साखी क्रमांक 21) में भी 22 नवंबर की तारीख को ही लिखा गया है। प्रिंसिपल सतबीर सिंह जी रचित ‘इति जिनकरी’ में भी पृष्ठ क्रमांक 56 में भी 22 नवंबर की तारीख ही अंकित है। साथ ही प्रसिद्ध इतिहासकार प्रिंसिपल जोध सिंह जी, प्रिंसिपल फौजा सिंह जी, प्रिंसिपल सतबीर सिंह जी और डॉ° त्रिलोचन सिंह जी भी इस 22 नवंबर की तारीख से सहमत दिखाई पड़ते हैं।
अमृतसर में शाम को जब गुरु जी का मक्खन शाह लुबाना के साथ दरबार साहिब की दर्शनी ड्योढ़ी (प्रवेश द्वार) पर आगमन हुआ तो दरबार साहिब के प्रवेश द्वारों को मसंदों के द्वारा सांकलों की सहायता से बंद कर दिया गया था। उस समय दरबार साहिब पर हरि जी का कब्जा था। इस हरि जी ने भी स्वयं को गुरु घोषित कर दिया था। जब ‘बाबा बकाले’ में झूठे गुरु अपनी-अपनी मंजी (आसन) लगाकर बैठे थे तो हरि जी भी उनमें से एक था।
जब गुरु जी को गुरता गद्दी प्राप्त हो गई तो हरि जी ‘बाबा-बकाला’ से दरबार साहिब पुनः लौट आया था। हरि जी इस बात से भयभीत था कि यदि गुरु जी ने दरबार साहिब में प्रवेश कर लिया तो मुझसे दरबार साहिब का कब्जा चला जाएगा। हरि जी ने षड्यंत्र कर दर्शनी ड्योढ़ी (प्रवेश द्वार) के दरवाजों को बंद कर गुरु जी का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया था।
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने सरोवर में स्नान किया और बाहर से दरबार साहिब के दर्शन कर दर्शनी ड्योढ़ी के समीप बेर के पेड़ के चारों और बने हुए चबूतरे पर आप भी आसीन हो गए थे।
हरि जी कौन था? ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ का बड़ा भ्राता पृथ्वी चंद जिसने हमेशा गुरु घर से वैर रखा था। पृथ्वी चंद ने ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ को बचपन में जान से मारने की भी कोशिश की थी और ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ पर आक्रमण भी करवाया था परंतु इन सभी षड्यंत्रों का पर्दाफाश हुआ था और वह गुरु स्थान हासिल नहीं कर पाया था। पृथ्वी चंद की सोच थी कि ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ को आगे कोई औलाद नहीं है इसलिए इनके पश्चात गुरु गद्दी मेरे पुत्र मेहरबान को ही मिलेगी। मेहरबान गुरु गद्दी की लालसा में ‘कवीसरी’ (लोक भाषाओं में रचित पद्य रचनाएं) करने लगा था और झूठी वाणीयों की रचना भी करने लगा था। भविष्य में उसे गुरता गद्दी के स्वप्न दिखलाई पड़ते थे। जब ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ का प्रकाश हुआ तो मेहरबान के स्वप्न चकनाचूर हो गए थे। ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ के पश्चात गुरु गद्दी ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ को प्राप्त हुई थी। उस समय से मेहरबान के दिल में कपट था। उसे लालसा थी कि ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ के पश्चात मुझे ही गुरु गद्दी मिले।
इस कपटी मेहरबान का पुत्र हरि जी था, जो कि पृथ्वी चंद का पौत्र था। हरि जी स्वयं गुरु के रूप में दरबार साहिब में आसीन था क्योंकि इतिहास अनुसार ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ करतारपुर साहिब प्रस्थान कर गए थे पश्चाताप आप जी किरतपुर साहिब चले गए थे। तभी से हरि जी का दरबार साहिब पर कब्जा था और तो और झूठी वाणीयों की रचना कर उसने अपने आप को गुरु घोषित कर दिया था।
जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ दरबार साहिब पहुंचे थे तो हरि जी भयभीत था कि कहीं मेरा कब्जा ना चला जाए? हरि जी ने दर्शनी ड्योढ़ी के द्वार को बंद करवा दिया था। हरि जी वहां से दूर भाग कर अपने ग्राम ‘हेहर’ नामक स्थान पर चला गया था।
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ बेर के पेड़ के चारों और बने चबूतरे पर आसीन हुए थे और कुछ समय पश्चात आप जी अपने गंतव्य स्थान की और काफिले सहित प्रस्थान कर गए थे।
भाई मक्खन शाह लुबाना ने गुरु जी से निवेदन किया कि यदि आप आदेश करें तो मैं इन सभी दोषियों को सबक सिखा दूंगा परंतु गुरु जी ने वचन उच्चारित किए कि यह अपने कर्मों के फलों का स्वयं ही भुगतान करेंगे।
जिस स्थान पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ आसीन हुए थे वर्तमान समय में ‘श्री अकाल तख़्त’ के समीप यह गुरुद्वारा ‘थड़ा साहिब’ स्थित है। वह बेरी का पेड़ भी वर्तमान समय में स्थित है जहां गुरु जी आसीन हुए थे। जब भी आप दरबार साहिब जाएं तो उस स्थान पर नतमस्तक होकर नमस्कार करें।