प्रसंग क्रमांक 24: गुरता गद्दी के पश्चात श्री गुरु तेग बहादर साहिब जी का प्रथम अमृतसर प्रयाण का इतिहास।

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11 अगस्त सन् 1664 ई. के दिवस ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को गुरता गद्दी का तिलक सुशोभित किया गया था। दो महीने पश्चात 9 अक्टूबर सन् 1664 ई. के दिवस भाई मक्खन शाह लुबाना के द्वारा सच्चे गुरु की खोज के पश्चात गुरु लादो रे! गुरु लादो रे! ऐसी घोषणा दी गई थी। 9 अक्टूबर से लेकर 22 नवंबर तक 43 दिनों तक ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने  संगत को दर्शन-दीदार देकर उनका उद्धार किया था और गुरु पातशाह जी ‘बाबा-बकाला’ की धरती को भाग्य लगा रहे थे।

 गुरु जी ने उपस्थित संगत के बीच इच्छा जाहिर कर उन स्थानों पर, उन गुरुधाम पर जाना चाहिए जहां मसंदों ने मनमानी कर आप स्वयं ही गुरु के रूप में आसीन हो गए थे। जिसके कारण संगत भ्रमित होकर गुमराह हो रही थी। इन भ्रमित  संगत को सही ज्ञान देने के लिए ऐसे स्थानों पर जाना आवश्यक हो गया था।

 गुरु जी ने अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) में अपने परिवार के साथ एवं भाई मक्खन शाह लुबाना का परिवार साथ ही 500 सैनिकों के सैन्य बल सहित उपस्थित संगत के साथ यात्रा की तैयारी प्रारंभ कर दी थी। घोड़ों को तैयार किया गया था। ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने स्वयं अपनी घोड़ी को तैयार किया था; रथों को सजा कर तैयार किया गया था। इस पूरे काफिले ने 22 नवंबर सन् 1664 ई. को ‘बाबा-बकाला’ नामक स्थान से अमृतसर की ओर प्रस्थान किया था।

 जब काफिला लगभग आठ किलोमीटर आगे आया तो गुरु जी की मेहर दृष्टि एक ऐसे बालक पर पड़ी थी, जो अपने खेतों की रखवाली कर रहा था परंतु वह पक्षियों को उड़ाने की बजाय मिट्टी के बर्तनों में अनाज के दाने डालकर इन पक्षियों को दाना चुगा रहा था। साथ ही मिट्टी के बर्तनों में पक्षियों के लिए पीने का पानी का इंतजाम भी कर रहा था।

सारे नजारे देखकर सिख संगत बहुत हैरान हुई थी। गुरु जी ने  विशेष स्नेह से उस बालक को अपने पास बुलाया था। गुरु जी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए उस बालक से कहा कि इस तरह तो तुम्हारी सारी फसल पक्षियों के द्वारा दाना चुग कर समाप्त कर दी जायेगी। तुम्हें इन पक्षियों को उड़ाना चाहिए परंतु तुम तो स्वयं ही इन पक्षियों को दाना चुगाने का इंतजाम कर रहे हो! साथ ही तुमने इन पक्षियों के पीने के लिए पानी का भी इंतजाम किया है।

 उस बालक ने गुरु जी को नतमस्तक होकर नमस्कार किया था एवं उत्तर दिया गुरु जी मैं अपने बचपन से ही ‘गुरमुखों’ की संगत करता रहा हूं। मैंने बचपन में एक विद्वान गुरमुख से गुरुवाणी की इन पंक्तियों को सुनकर ग्रहण किया है–

सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई।

(अंग क्रमांक 2)

ददा दाता एकु है सभ कऊ देवनहार।

देंदे तोटि ना आवई अगनत भरे भंडार॥

(अंग क्रमांक 257)

अर्थात गुरु पातशाह जी देने वाला तो वह दाता है। मैं कौन हूं? गुरु जी जब देने वाला वह है तो वह उजाड़ने वाला हो नहीं सकता। इन पक्षियों का भी तो पेट है तो गुरु पातशाह जी इस वाणी के अनुसार मैं कभी इन पक्षियों को दाना चुगने से मना नहीं करता हूं। मैं स्वयं ही उनके दाने-पानी का इंतजाम कर देता हूं। इससे मेरी फसल भी खराब नहीं होती है और उनका पेट भी भर जाता है। इससे मुझे भी अभूतपूर्व शांति मिलती है।

 गुरु जी उस बालक के भोलेपन से बहुत प्रभावित हुए थे और उस बालक पर ऐसी कृपा-दृष्टि हुई कि उस बालक ने अपने परिवार को कह दिया कि अब मैं ‘गुरु जोगा’ हो गया हूँ और परिवार की आज्ञा लेकर उसने अपनी जीवन यात्रा गुरु जी की सेवा में आरंभ कर दी थी। इस बालक का नाम था ‘नारू जी’।

भाई नारू जी अपनी पूरी आयु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की सेवा में समर्पित रहा था। ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की शहीदी के पश्चात भाई नारु ने सन् 1699 की बैसाखी के शुभ अवसर पर ‘खंडे-बाटे’ का अमृत छककर (अमृत पान) कर, भाई नाहर सिंह के रूप में सज गया था।

 दशम पिता ‘श्री गुरु गोविंदसिंह साहिब जी’ ने जब सन् 1704 ई. में आनंदपुर साहिब के किले से प्रस्थान किया तो भाई नारू सिंह गुरु परिवार की रक्षा करते हुए एक साए की तरह साथ में था। जब सरसा नदी की बाढ़ में गुरु परिवार और सिख बिछड़ गए थे तो भाई नारु सिंह जी भी इस बाढ़ के प्रवाह में बिछुड़ गया था।

जब भाई नारु सिंह जी को पता लगा कि दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ दमदमा साहिब में हैं तो भाई नारू सिंह जी तुरंत ही गुरु जी की सेवा में दमदमा साहिब नामक स्थान पर हाजिर हो गया था।

 भाई नारू सिंह इसके पश्चात अपने स्वयं के नगर ‘कालेके’ नामक स्थान पर भी आता-जाता रहता था। वर्तमान समय में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की स्मृति में और भाई नारु सिंह जी की स्मृति में उनके पैतृक नगर ‘कालेके’ में गुरुद्वारा ‘चोला साहिब’ सुशोभित है। इस गुरुद्वारा साहिब में दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ का चोला भी सुशोभित है। साथ ही ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी साहिब रचित एक हुकुमनामा भी यहां पर सुशोभित है। इस ऐतिहासिक हुकुमनामा पर गुरु जी ने स्वयं अपने तीर से हस्ताक्षर किए थे। इसी स्थान पर भाई तारु सिंह जी द्वारा स्वयं चित्रित ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ महाराज की तस्वीर भी सुशोभित है।

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