प्रसंग क्रमांक 19 : गुरु श्री हरकृष्ण साहिब जी का ज्योति-ज्योत समाने का इतिहास।

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सन् 1664 ई. में जो दिल्ली में भयानक चेचक (चिकन पॉक्स)  नामक रोग का संक्रमण हुआ था तो उस समय ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने दिल्ली में निवास करते हुए स्वयं के दर्शन-दीदार देकर चेचक के रोगियों का सफलतापूर्वक इलाज किया था। स्वयं के अवासिय बंगले में गुरु जी ने अपने कर-कमलों से निर्मल जल (अमृत) के एक चश्में  का निर्माण भी किया एवं इस चश्में के निर्मल जल (अमृत) को रोगियों को छका कर (पिला कर) चेचक के रोगियों को रोग से सफलतापूर्वक मुक्त किया था।

 इस संक्रमण के रोग से गुरुजी स्वयं भी संक्रमित हो गए थे। अपनी रोगावस्था में आप जी ने अपने तख़्त पर विराजमान हो गए थे। आप जी बुरी तरह से चेचक के संक्रमण से ग्रसित हो गए थे। इस समय में भी बादशाह औरंगजेब आपसे मुलाकात करना चाहता था परंतु आप जी ने मिलने से साफ इंकार कर दिया था एवं  ज्योति-ज्योत समाने के पांच दिन पूर्व ही अपनी माता जी को आप जी ने जो वचन उद्गारित किए थे वो इस तरह से है–

हमरा तुरकन सौ मेल ना होइ।

जो हर भावै होवै सोइ।

पांच दिवस इम बितत भइआ।

अब हम परम धाम को जावै।

तन तज जोति जोत समावै।

(संदर्भित ग्रंथ: महिमा प्रकाश)

जब गुरु जी ने वचन उद्गारित किये की अब हमने ज्योति-ज्योत समा जाना है तो दिल्ली की संगत और सिखों के मन को आघात पहुंचा था। उस अंतिम समय में निकटवर्ती सिखों ने एकत्र होकर गुरु जी से निवेदन कर कहा कि गुरु पातशाह जी आप जी यह क्या भाणा वरता रहे हो? उपस्थित सिखों में से एक सिख ने विनम्रता पूर्वक निवेदन किया कि पातशाह जी आप के पश्चात हम किसके सहारे जीवन यात्रा करेंगे?

 अर्थात् भविष्य में हमारे गुरु कौन होंगे?

 इन प्रश्नों के फलस्वरूप ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने गुरुयायी (गुरता गद्दी) की विधि की समस्त सामग्रियों को मंगवाया था और उस समय जो घटित हुआ उसका उल्लेख भट वही रचित ‘भट वही भादसों थानेसर’ नामक ग्रंथ में इस तरह अंकित है–

‘गुरु हरि कृष्ण जी महला अठमां’

बेटा गुरु हर राय जी का।

संमत सत्रां सो इकीस।

मासे सुदी चउदस।

बुधवार के देहु।

दीवान दरगाह मल के बचन कीआं।

गुरआई की सामग्री ले आउ।

हुकम पाए दीवान जी लै आए।

सतिगुरां इस हाथ छुहाए।

तीन दफां द‍ाई भुजा हिलाए।

धीमी आवाज से कहा :

इसे बकाला नगरी ले जाना।

पांच पैसे नलीएर।

बाबा तेग बहादुर आगै राख।

हमारी तरफ से मसतक टेक देना।

इन वचनों से स्पष्ट हो चुका था कि बाबा कौन है? इस रोगावस्था में गुरु जी उठ नहीं सकते थे। इसलिए आप जी ने लेटे-लेटे ही गुुरुयायी की थाली पर अपने दाहिने हाथ से तीन बार परिक्रमा करते हुए अपने वचनों से उपस्थित सिखों को उद्गारित कर कहा–

बाबा बसहि बकाले।

बनि गुरु संगति सकल समाले।

एवं वचन कर इंगित किया ‘बाबा-बकाले’ !

 अर्थात् हमारे पश्चात गुरता गद्दी के अधिकारी ‘बाबा-बकाला’ नामक स्थान पर होंगे।

अपने अंतिम समय में गुरु जी ने अपनी शयनावस्था में ही गुरुवाणी के इन श्लोकों का उच्चारण किया था–

जो तुधु भावै साई भलीकार।

तु सदा सलामत निरंकार।

(अंग क्रमांक 3)

इन गुरुवाणी के श्लोकों को उद्गारित करते  हुए आप जी ज्योति-ज्योत समा गये थे।

जोती जोति रली संपुरनु थीआ राम।

(अंग क्रमांक 846)

 ‘बाबा बकाले’ नामक स्थान पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर जी को गुरता गद्दी प्रदान करने हेतु पुरातन स्त्रोत ग्रंथ ‘भाई केसर सिंह जी वंशावली नामा’ में इस तरह अंकित है–

वकत चलाणे सिखां कीती अरदास।

गरिब नवाज संगत छंड्डी किस पास।

उस वकत बचन कीता बाबा बकालें ।

 इसी संदर्भ में पुरातन ग्रंथ ‘गुर बिलास पातशाही दसवीं’  ग्रंथ के रचयिता क्रित  सुखा सिंह जी ने इसे इस तरह से अंकित किया है–

संगत कही प्रभु जंग नाथा।

बाबा सही बकाले आहै।

जो कहि करि सतगुरु बच आदि निज।

सुख भीतर गये समाए।

गुरु जी ने जीवन यात्रा के इस अंतिम समय में उपस्थित सभी संगत के दर्शन-दीदार देकर अपनी माता कृष्ण कौर जी (जो माता सुलखनी जी के नाम से भी भी परिचित थी) की गोद में अपना शीश रखकर देह त्याग कर दिया था।

  ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी के दिल्ली स्थित निवास स्थान पर वर्तमान समय में गुरुद्वारा बंगला साहिब सुशोभित है। गुरु जी द्वारा स्थापित हुआ चश्मा  जिसके निर्मल जल (अमृत) से चेचक के रोगियों का इलाज हुआ था। उस चश्में  के निर्मल जल को वर्तमान समय में उपस्थित दर्शनाभिलाषी संगत को छकाया (पिलाया) जाता है।

 जिस स्थान पर ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ का अंतिम संस्कार किया गया था उस स्थान पर गुरुद्वारा ‘बाला साहिब’ सुशोभित है (‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ को संगत प्रेम पूर्वक ‘बाला प्रीतम’ के नाम से भी संबोधित करती है)।

प्रसंग क्रमांक 20 : श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की गुरता गद्दी का इतिहास।

विगत प्रसंगों के इतिहास अनुसार ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ राजा जयचंद के निमंत्रण पर दिल्ली पहुंचकर दिल्ली में चेचक से पीड़ित रोगियों की सेवा-सुश्रुषा कर आप जी ने उनका इलाज भी किया था। आम जन समुदाय को दर्शन-दीदार देकर आप जी आम समुदाय के दुखों को भी दूर कर रहे थे। जब बादशाह औरंगजेब आप जी से मिलने आया और विभिन्न इतिहासकारों के अनुसार आधी घड़ी से लेकर तीन घड़ी तक (आधुनिक गणितीय गणना अनुसार लगभग 24 मिनट की एक घड़ी होती है) तक गुरु जी से मिलने के लिए दरवाजे पर इंतजार कर रहा था परंतु आपने अपने पिता  ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ के वचन अनुसार–

नैंह मलेश को दरशन देहैं।

नैंह मलेश के दरशन लेहैं ॥

अर्थात् हम औरंगजेब के मुंह नही लगेंगे और आप जी ने औरंगजेब से मिलने से इनकार कर दिया था।

 ऐतिहासिक संदर्भों के अनुसार इन दिनों में 21, 22 और 23 मार्च सन् 1664 ई. को ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ और भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की भाई कल्याणा जी के निवास स्थान पर मुलाकात का जिक्र भी आता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह मुलाकात राजा जयचंद के बंगले में हुई थी। ‘श्री गुरु  हरकृष्ण साहिब जी’ के ज्योति-ज्योत समाने से नौ दिवस पूर्व इस मुलाकात का जिक्र भाई कल्याणा जी के निवास स्थान पर आता है। इस मुलाकात में विचारों का क्या आदान-प्रदान हुआ? इस संबंध में  इतिहास मौन है परंतु इस मुलाकात की बहुत बड़ी अहमियत थी। उस समय ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ‘देशाटन’ कर रहे थे।

 इस मुलाकात के पश्चात भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ बाबा-बकाला नामक स्थान के लिये रवाना हो गए थे। इसके पश्चात 30 मार्च सन् 1664 ई.को ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने गुरुयायी (गुरता गद्दी) की रस्म (मर्यादा) की सभी सामग्रियों को मंगवा कर उन्हें थाली में सजाकर अपने हाथ से थाली को तीन बार परिक्रमा कर, बाबा-बकाला’ शब्द का आप जी ने उच्चारण किया था और आप जी अपनी माता जी की गोद में शीश रखकर सुख से ज्योति-ज्योत समा गए थे।

जोती जोति रली संपूरनु थीआ राम॥

(अंग 846)

दिल्ली से सब कुछ समेट कर गुरुयायी की रस्मों (मर्यादाओं) की सभी वस्तुएं भाई द्वारकादास जी के पुत्र भाई दरगाह मल जी और भाई कल्याणा जी के पास सुरक्षित थी। भाई कल्याणा जी जो कि उस समय गुरु घर के मुंशी के रूप में महान सेवाएं प्रदान कर रहे थे।

दिल्ली के सभी कार्यों को समेटकर गुरुयायी की रस्मों (मर्यादाओं) की सभी सामग्रियों को लेकर ‘बाबा-बकाले’ नामक स्थान पर पहुंचने के लिए बहुत समय व्यतीत हो गया था। उस समय मसंदों के द्वारा दूर-दराज के इलाकों तक सभी सिखों  को ज्ञात हो चुका था कि ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ज्योति-ज्योत समा गये हैं । अपने अंतिम समय में आप जी ने भविष्य के गुरु कौन होंगे? इस प्रश्न का उत्तर ‘बाबा-बकाले’ शब्द से इंगित किया था।

अवसरवादी धीरमल को इस समय गुरु बनकर संगत में भ्रम फैलाने का मौका मिल गया था। धीरमल ने अपनी मंजी (आसन) लगाकर अपने मसंदों के द्वारा स्वयं को गुरु घोषित कर दिया था। दूसरी और गुरु पुत्र राम राय भी इस ‘गुरु गद्दी’ पर अपना हक जता रहे थे। दोनों ही मिलकर अपने मसंदों के द्वारा संगत के बीच भ्रम फैला कर अपने आप को गुरु घोषित कर चुके थे परंतु सच्चे गुरु की खोज नहीं हो पा रही थी। उस समय ‘बाबा बकाला’ नामक स्थान पर एक कुटिल चाल के तहत ऐसे कई ढोंगी गुरु मंजी (आसन) लगाकर अपना दावा ‘गुरु गद्दी’ पेश कर थे।

 उस समय धीरमल ‘गुरु गद्दी’ का प्रबल दावेदार था कारण ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के बड़े पुत्र बाबा गुरदित्ता जी का वह बड़ा पुत्र था और ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ का बड़ा भ्राता था। सन् 1604 ई. में जो ‘श्री आदि ग्रंथ साहिब जी’ की बीड़ का प्रथम प्रकाश ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ ने किया था। वह बीड़ (ग्रंथ)  उस समय धीरमल के अधीन थी। करतारपुर में स्थित इस बीड़ (ग्रंथ) के कारण वह स्वयं गुरु होने का दावा कर रहा था।

 दूसरी और माता नानकी जी को इस संबंध में पूरी जानकारी थी। ‘श्री गुरु  हरगोविंद साहिब जी’ ने माता नानकी जी को वचन किए थे कि ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की गद्दी तुम्हारे घर जरूर आएगी। माता नानकी जी को दिल्ली से सिखों  का संदेश प्राप्त हो चुका था कि हम गुरुयायी की वस्तुएं लेकर ‘बाबा बकाला’ नामक स्थान पर पहुंच रहे हैं।

 11 अगस्त सन् 1664 ई. की अमावस्या के दिन मसंदों के द्वारा भेजे गए न्योते  से दूर-दराज के सभी प्रमुख सिख माता नानकी जी का न्योता स्वीकार कर ‘बाबा बकाला’ नामक स्थान पर एकत्र हो चुके थे। इस मौके पर ‘बाबा बुड्ढा जी’ के वंशजों को भी आमंत्रित किया गया था। भाई गुरदित्ता जी को प्रमुख  रूप से ‘गुरता गद्दी’ की रस्म अदा करने के लिए रमदास नामक स्थान से आमंत्रित किया गया था।   किरतपुर से सूरजमल के पुत्र दीपचंद जी और नंद चंद जी को भी आमंत्रित किया गया था। अमृतसर से ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ के पूर्ण सिख भाई गढ़िया जी को भी आमंत्रित किया गया था। खंड़ूर साहिब से ‘श्री गुरु अंगद देव साहिब जी’ के पौत्रों को भी आमंत्रित किया गया था।

 गुरु की साखियां नामक ग्रंथ की साखी क्रमांक 19 में पृष्ठ क्रमांक 66 में अंकित है कि भाई मनिआं जी को भी विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था (पश्चात भाई मनिआं जी खंडे-बाटे का अमृत पान कर भाई मनी सिंह के रूप में सज गए थे। और आप जी को दरबार साहिब जी के ‘हेड ग्रंथी’ के रूप में भी मनोनीत किया गया था)।

उस समय सभी निकटवर्ती सिख ‘माता नानकी जी’ के निवास स्थान पर लगातार एकत्रित हो रहे थे। ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ 30 मार्च सन् 1664 ई. के दिवस ज्योति-ज्योत समाये थे। इसके पश्चात गुरता गद्दी की रस्म (मर्यादा) 11 अगस्त सन् 1664 ई. के दिवस आयोजित की गई थी। ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की भविष्य की ज्योत की घोषणा तो पहला ही हो चुकी थी परंतु गुरता गद्दी की रस्म 4 महीने 11 दिनों पश्चात आयोजित की गई थी।

 गुरता गद्दी की रस्मों (मर्यादाओं) को निभाने के लिए ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ के पुत्र बाबा मोहरी जी और उनके पुत्र भाई अरजनीमल जी और उनके भी पुत्र भाई द्वारकादास जी और उनके भी पुत्र भाई दरगाह मलजी इस तरह से पांच पीढ़ियों के द्वारा एकत्रित गुरुयायी की सामग्रियों को भाई गुरदित्ता जी के स्वाधीन कर दी गई थी। अर्थात जो सेवा ‘बाबा बुड्ढा जी’ से प्रारंभ हुई थी उसी परिवार की अगली पीढ़ियों के द्वारा ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को अमृत वेले  (ब्रह्म मुहूर्त) में गुरआई के तिलक को ‘आसा दी वार जी’ के कीर्तन के उपरांत भरे दीवान में अर्पित किया गया था। उपस्थित सभी संगत ने नतमस्तक होकर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को गुरु रूप में स्वीकार कर खुशियां मनाई परंतु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’  ने वचन करते हुए संगत को सहजता से रहने के उपदेश देकर धीरज से रहने का संदेश दिया था।

 इन रस्मों (मर्यादाओं) को विधिवत पूर्ण कर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को गुरता गद्दी का अधिकारी नियुक्त किया गया था। गुरता गद्दी के दिवस गुरु जी की आयु 43 वर्ष की हो चुकी थी।

जिस स्थान पर गुरता गद्दी का आयोजन हुआ था उसी स्थान पर भाई मेहरा जी का निवास था। वर्तमान समय में उस स्थान पर गुरुद्वारा ‘बाबा बकाला’ साहिब स्थित है।

‘बाबा बकाला’ नामक स्थान में जो गुरु गद्दी के झूठे दावेदार मंजी (आसन) लगाकर बैठे थे उनमें से कुछ तो उस स्थान से रवाना हो चुके थे परंतु धीरमल जी अभी भी गुरु गद्दी की प्रबल दावेदारी पेश कर रहे थे क्योंकि श्री आदि ग्रंथ जी की बीड़ स्वयं उनके अधीन होने के कारण उन्होंने बहुत भ्रम फैलाकर संगत को गुमराह कर रखा था।

इस कारण संगत भ्रमित होकर दुविधा में थी। धीरमल के मसंद संगत को व्यक्तिगत रूप से मिलकर धीरमल की गुरुयायी का दावा पेश कर रहे थे।

 उस समय में कुछ ही दिनों में दिवाली का त्यौहार आने वाला था। गुरु घर में दिवाली और बैसाखी के त्यौहार पर जोड़ मेलों का आयोजन किया जाता है और इस दिन विशेष पर दूर-दराज के इलाकों से संगत गुरु घर में एकत्रित होती है। इस दिवाली के इंतजार में धीरमल ‘बाबा बकाला’ में ही मंजी (आसन) डालकर बैठा था और षड्यंत्र कर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को जान से मारने की साजिश कर रहा था।

इन सभी ऐतिहासिक घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में एक बड़ा मोड़ आता है और गुरता गद्दी के दो महीने पश्चात 8 अक्टूबर सन् 1664 ई. को उस समय का सबसे बड़ा व्यापारी मक्खन शाह लुबाना 500 सिपाहियों के भारी-भरकम लश्कर सहित ‘बाबा बकाला’ में पहुंचकर उसने अपनी छावनी को स्थापित किया था।

प्रसंग क्रमांक 20 : श्री गुरु तेग बहादर साहिब जी की गुरता गद्दी का इतिहास।

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