‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ दिल्ली में राजा जयचंद के बंगले में निवास करते हुए स्थानीय संगत के दर्शन-दीदार कर रहे थे। सन् 1664 ई. में दिल्ली में अचानक से चेचक (चिकन पॉक्स) नामक संक्रमण की बीमारी का प्रादुर्भाव हो गया था। इस संक्रमण से लगभग पूरी दिल्ली के लोग संक्रमित हो गए थे। दिल्ली में इस संक्रमण की बीमारी ने हा-हा कार मचा दी थी। प्रत्येक घर में मौत का तांडव शुरू हो गया था। दिल्ली में पीठासीन बादशाह औरंगजेब ने आम लोगों से मुंह मोड़ लिया था। व्यथित जनता की पुकार सुनने वाला कोई नहीं था परंतु ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के घर की महिमा रहे ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने इस संकट के समय दीन दुखियों की सेवा करते हुए स्वयं का जीवन व्यतीत कर रहे थे।
‘श्री गुरु नानक साहिब जी’ ने भी कोड़ियों की सेवा करके आम जन समुदाय को उपदेशित किया था। जिसे वाणी में इस तरह अंकित किया गया है–
जीउ तपतु है बारो बार
तपि तपि खपै बहुतु बेकार॥
जै तनि बाणी विसरि जाइ॥
जिउ पका रोगी विललाइ॥
(अंग क्रमांक 661)
इसी प्रकार से सिख धर्म के तीसरे ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने भी प्रेमा कौड़ी का इलाज स्वयं के हाथों से किया था। ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ के समय में जब अकाल पड़ा था तो आप जी ने स्वयं लाहौर में जाकर जन समुदाय की सेवा-सुश्रुषा कर लोगों के दुख दूर किए थे। उस समय ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ की आयु ढाई वर्ष की थी। ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ ने तरनतारन नामक स्थान पर कौड़ी खाना बनाकर स्वयं के हाथों से सेवा-सुश्रुषा कर कौडी़यों का इलाज किया था। इसी प्रकार सिख धर्म के सातवें गुरु ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ के द्वारा किरतपुर में संचालित एक बहुत बड़े दवाखाने में दुर्गम रोगों का इलाज जड़ी, बूटियों से किया जाता था।
‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ उपरोक्त सभी इतिहास से अवगत थे और अपने पिता ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ के सानिध्य में रहकर आप उन्हीं के पद चिन्हों पर चलकर समाज की सेवा-सुश्रुषा कर रहे थे।
दिल्ली में जब चेचक का प्रकोप पूरे जोर पर था तो ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने ‘श्री गुरु नानक साहिब जी’ द्वारा स्थापित परंपराओं का पूर्ण रूप से निर्वाह किया था। इस संक्रमण के प्रकोप से चाहे जान चली जाए या शरीर साथ छोड़ दें परंतु दीन-दुखियों की सेवा से आप जी पीछे नहीं हटे थे।
‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने दिल्ली में सेवाएं प्रदान करते हुए आम जन समुदाय को दिलासा प्रदान की और संगत को दर्शन-दीदार भी दिए थे। जिसे इस तरह से इतिहास में अंकित किया गया है–
श्री हरकृष्ण धीआईअै॥
जिस डिठे सभि दुख जाये॥
इसी प्रकार ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में अंकित है–
क्रिपा कटाखृ अवलोकनु कीनो॥
दास का दूखु बिदारिओ॥
(अंग 681)
गुरु जी ने जिस व्यक्ति पर अपनी कृपा दृष्टि की नजर मेहर करी उसके दुख तो वैसे ही तुरंत दूर हो गए थे। दिल्ली की गलियों में संक्रमित बीमारी से लाशों के ढेर लगे हुए थे। त्राहि-त्राहि मची हुई थी ऐसे संकट के समय में जन समुदाय का इलाज आप जी ने स्वयं के कर-कमलों से किया था। स्वयं के दर्शन-दीदार से लोगों के हृदय में ठंडक पहुंचाई थी।
दिल्ली स्थित जिस बंगला साहिब गुरुद्वारे में दर्शनाभिलाषी संगत को जल (अमृत) पान करवाया जाता है। उस स्थान पर आप जी ने स्वच्छ निर्मल जल का एक झरना बनवाया था। समस्त संक्रमित मरीजों को इस झरने के निर्मल जल का सेवन करवाया जाता था। अपनी मेहर दृष्टि से आपने सभी जन समुदाय का इलाज किया था। इस संक्रमण की बीमारी से जो कार्य दिल्ली के बादशाह औरंगजेब से नहीं हो सका था। उन सभी कार्यों को आप जी ने सेवा के रूप में करके दिखाया था।
इस सेवा वृति भाव के कारण चहूँ और ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ की जय-जयकार हो रही थी। इन सेवाओं के माध्यम से आप जी ने सिख समुदाय को राह बताते हुए जान की परवाह न करते हुए सेवाओं के लिए उपदेशित किया था। आप जी ने स्वयं इन सेवाओं में हिस्सा लेकर एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया था।
‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी भी इस रोग के प्रकोप से संक्रमित हो गए थे। अपने संक्रमण की परवाह न करते हुए आप जी ने दिल्ली शहर में अपनी सेवा-सुश्रुषा से काफी हद तक इस रोग पर काबू पा लिया था। आप जी स्वयं भी इस संक्रमण के रोग से बहुत ज्यादा बीमार हो गए थे।
‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने अपनी जीवन यात्रा के अंतिम समय को जानकर भविष्य में दी जाने वाली गुरता गद्दी का निर्णय कर लिया था।