सन् 1661 ई. में जब सिख धर्म के सातवें गुरु ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ का अंतिम समय निकट आया तो आप जी ने गुरु पुत्र ‘श्री हरकृष्ण साहिब जी’ को गुरु गद्दी पर विराजमान करने का निर्णय लिया था। अमृतवेले (ब्रह्म मुहूर्त) के समय ‘आसा जी की वार’ के कीर्तन के पश्चात भरे पंडाल में उपस्थित संगत के समक्ष ऊंचे तख़्त पर विराजमान कर ‘बाबा बुड्ढा जी’ के पौत्र भाई ‘गुरदित्ता जी’ के कर-कमलों से गुरता गद्दी की समस्त रस्मों को विधिवत पूर्ण कर गुरता गद्दी के तिलक को ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ के कपाल पर सुशोभित कर गुरुआई की बख्शीश की थी।
प्रसिद्ध सिख धर्म के इतिहासकार प्रोफेसर ‘साहिब सिंह जी’ के अनुसार उस समय ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ की आयु केवल 5 वर्ष 3 महीने की थी। उपस्थित संगत ने नतमस्तक होकर नमस्कार कर आपको गुरु रूप में स्वीकार कर लिया था। बड़े भ्राता गुरु पुत्र राम राय जी को जब यह सूचना मिली कि गुरु गद्दी पर मेरे छोटे भ्राता ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ विराजमान हो चुके हैं तो उन्होंने षड्यंत्र करने प्रारंभ कर दिए थे। उन्होंने अपने इस रचित षड्यंत्र को पूर्ण करने के लिए लगातार दिल्ली की यात्रा कर बादशाह औरंगजेब की मदद लेने का प्रयास किया था परंतु उस समय औरंगजेब कश्मीर की यात्रा पर था।
सन् 1664 ई. में जब औरंगजेब कश्मीर से लौटकर दिल्ली पहुंचा तो गुरु पुत्र राम राय ने औरंगजेब से बड़ा बेटा होने के नाते गुरता गद्दी के हक की मांग रखी थी। इस ‘श्री गुरु नानक साहिब जी’ की गद्दी का केवल मैं ही वारिस हो सकता हूं। इस प्रकार की दबाव पूर्ण मांग बादशाह औरंगजेब के समक्ष प्रस्तुत की थी। औरंगजेब अपनी कुटिल राजनीति में कामयाब हो गया था। वह यही चाहता था कि गुरु गद्दी राम राय जी को ही मिलना चाहिए क्योंकि एहसानमंद राम राय जी औरंगजेब की सभी बातों को मानते थे इससे संपूर्ण सिख जगत में उसका दबदबा और प्रभाव हो जाता।
उस समय ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ की आयु करीब 7 वर्ष की हो चुकी थी। इस छोटी आयु में गुरु जी ने बड़े-बड़े कार्यों को अंजाम दे रहे थे। गुरु जी ने किरतपुर स्थान पर कई अचंभित कार्यों को सहजता से अंजाम दिया था। (इस पुस्तक में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के इतिहास से अवगत करवाया जा रहा है। भविष्य में शीघ्र ही ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ के इतिहास से संगत को अवगत कराया जाएगा)।
औरंगजेब ने उस समय राजा जयसिंह को मध्यस्थ नियुक्त कर ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ को दिल्ली आमंत्रित करने के लिए पत्र द्वारा सूचित किया था। ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ का दिल्ली यात्रा का कोई कार्यक्रम नहीं था परंतु संगत के दर्शन-दीदार करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया था। उस समय दिल्ली में राम राय जी गुरु बनकर स्वयं को प्रस्थापित कर रहे थे और संगत को भी गुमराह किया जा रहा था। गुरु जी की सेवा में उपस्थित सिख संगत के आग्रह पर ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने किरतपुर से दिल्ली की और कूच कर दिया था। पालकी में सवार होकर सहपरिवार अपने 2200 घुड़सवारों की सेना सहित गुरु जी किरतपुर से गुरुद्वारा ‘पंजोखरा साहिब जी’ में पधारे थे। यह गुरुद्वारा साहिब अंबाला नामक शहर के करीब स्थित है।
इस स्थान पर आप जी ने विश्राम करते हुए अहंकारी पंडित लालचंद जी के घमंड को चकनाचूर किया था। इस पंडित लालचंद ने संगत के समक्ष कहा था कि आप जी अपने आप को ‘हरकृष्ण’ कहलवाते हैं तो ‘गीता’ के किन्हीं दो श्लोकों का अर्थ करके दिखाइएगा। उस समय ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने मंदबुद्धि ‘छज्जू झीवर’ नामक व्यक्ति से संपूर्ण गीता के श्लोकों का अर्थ करवाया था और घमंडी लालचंद के घमंड को तोड़ा था।
इस पंडित लाल चंद जी पर गुरु जी की ऐसी कृपा हुई थी कि वो अप्रैल सन् 1699 ई. में ‘खंडे-बाटे’ के अमृत को छक कर लाल सिंह के रूप में सज गया था। इस लाल सिंह ने चमकौर की गड़ी में अपनी महान शहादत दी थी और ‘ छज्जू झीवर’ गुरु जी के आशीर्वाद से धर्म प्रचार-प्रसार के लिए उड़ीसा राज्य में प्रस्थान कर गया था। विशेष ऐतिहासिक तथ्य यह है कि ‘छज्जू झीवर’ के परिवार में से ही भाई ‘साहिब सिंह जी’ को पांच प्यारों में से एक के रूप में सजाया गया था।
गुरु जी पंजोखरा शहर से होते हुए दिल्ली पहुंचे थे। उस समय मध्यस्थ राजा जयचंद ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ की परीक्षा लेना चाहता था और जब गुरु जी जयचंद के महल में प्रवेश कर रहे थे तो राजा जयचंद ने अपनी रानियों के वस्त्र दासियों को परिधान करें एवं दासियों के वस्त्र रानियों को परिधान कर दिये थे। जब गुरु जी ने महल में प्रवेश कर दासियों के वस्त्र में रानियों को देखा तो जो वचन उच्चारण किये थे उसे इतिहास में इस तरह से अंकित किया गया है–
महाराज की तु पटरानी ।
कहां कपट करबे बिध ठानी॥
अर्थात ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने राजा जयचंद और रानियों को संबोधित करते हुए कहा कि आप को कपट करने की क्या आवश्यकता थी?
‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने दिल्ली में राजा जयसिंह के बंगले में अपना निवास स्थान रखा था। उसी स्थान पर संगत भेंट देकर दर्शन-दीदार करने आती थी। इस स्थान पर जब औरंगजेब उनसे मिलने आया तो ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ उसके मुंह नहीं लगे थे। इतिहास में विभिन्न इतिहासकारों द्वारा अंकित किया गया है कि औरंगजेब आधी घड़ी से लेकर लगभग तीन घड़ी (आधुनिक गणितीय गणना के अनुसार एक घड़ी का समय लगभग 24 मिनट के बराबर होता है) समय तक दरवाजे के बाहर ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ से मिलने का इंतजार करता रहा परंतु 7 वर्ष की आयु के गुरु जी ने इस हिंदुस्तान के बादशाह से ना मिलते हुए उसे वापस भेज दिया था।
उस वक्त ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ ने अपने पिता ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ के वचन जो इस तरह से इतिहास में अंकित है–
नैंह मलेश को दरशन देहैं।
नैंह मलेश को दरशन लैं॥
इन उदबोधित वचनों को पूरा करते हुए बादशाह औरंगजेब से मुलाकात नहीं की थी।
सन् 1661 ई. में ऐतिहासिक तथ्यों को देखा जाए तो जब श्री गुरु हर राय साहिब जी’ ज्योति-ज्योत समाये थे तो उस समय भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उत्तर दिशा की और प्रस्थान कर गए थे।
सन् 1661 ई. के समय में जब हम ऐतिहासिक ग्रंथों को संदर्भित करेंगे एवं विभिन्न विद्वान इतिहासकारों को जब हम पढ़कर समझने की कोशिश करेंगे तो उस समय जब ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ ज्योति-ज्योत समाये थे तो भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ धर्म प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर यात्राएं कर रहे थे। आप जी उत्तर भारत के लखनऊ, कानपुर और बनारस नामक शहरों में धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।
जब भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अपनी इन यात्राओं को समाप्त कर वापस दिल्ली पहुंचे तो आप जी ने दिल्ली स्थित गुरु घर के श्रद्धालु भाई ‘कल्याणा जी’ के निवास स्थान पर निवास किया था। गुरु घर के सेवक भाई कल्याणा जी का निवास वह स्थान है जहां पर सिख धर्म के छठे गुरु ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ जब ग्वालियर के किले से वापसी की यात्रा करते समय इसी स्थान भाई ‘कल्याणा जी’ के निवास स्थान पर ही आप जी ने विश्राम किया था।
इस निवास स्थान पर 21 मार्च सन् 1664 ई. से लेकर 23 मार्च सन् 1664 ई. तक 3 दिनों तक ‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ और भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की मुलाकात होने का इतिहास में ब्यौरा मिलता है।
‘श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी’ और भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की दिल्ली स्थित मुलाकात के जो ऐतिहासिक स्रोत हैं वो ‘गुरु की साखीआं’ में साखी क्रमांक 21 में अंकित है। प्रिंसिपल सतबीर सिंह जी रचित ‘अष्टम बलबीरा’ नामक पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक 108 में भी इस मुलाकात का स्त्रोत प्राप्त होता है। इसी प्रकार से ‘जीवन गाथा श्री हरकृष्ण जी’ के पृष्ठ क्रमांक 12 (सिख मिशनरी कालेज) में भी इस मुलाकात का जिक्र किया गया है।