दिल्ली फतेह दिवस विशेष–

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

चलते–चलते. . . .

(टीम खोज–विचार की पहेल)

जु लरै दीन के हेत सुरा सोई. . . सुरा सोई॥

गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसानै घाउ॥

खेतु जु माँडिओ सूरमा अब जूझन को दाउ॥

सुरा सो पहचानिऐ जु लरै दिन के हेत॥

पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू ना छाडै खेतु॥

जु लरै दीन के हेत सुरा सो। . . . सुरा सोई ॥

         (अंग क्रमांक 1105)

अर्थात्..वह ही शूरवीर योद्धा है जो दीन दुखियों के हित के लिए युद्ध करता है। जब मन–मस्तिष्क में युद्ध के नगाड़े बजते हैं तो धर्म योद्धा निर्धारित कर वार करता हैं और मैदान–ए–ग़िरफ्तार में युद्ध के लिए ‘संत–सिपाही’ हमेशा तैयार–बर–तैयार रहता हैं। वह ‘संत–सिपाही’ शूरवीर हैं, जो धर्म युद्ध के लिए जूझने को तैयार रहते हैं। शरीर का पुर्जा–पुर्जा कट जाए परंतु आखरी सांस तक मैदान–ए–ग़िरफ्तार में युद्ध करता रहता है।

भक्त कबीर जी द्वारा रचित यह वाणी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में ‘मारू राग’ के अंतर्गत अंकित है। वीर रस से ओत–प्रोत इस ‘सबद’ (पद्य) जैसी रचनाओं से प्रेरित होकर जो ‘संत–सिपाही’, धर्म योद्धा, ‘देश–धर्म’ की रक्षा के लिए और जुल्मों के खिलाफ लड़ते हुए अपना सर्वस्व न्यौछावर करता है, वह शहीद ही फतेह पाता है|

दिल्ली फतेह दिवस अर्थात् कौमी दिवस ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के सिखों के लिए निश्चित ही उनकी ज़मीर की जीत और स्वाभिमान का दिवस है| मुगलों से 900 वर्षों की गुलामी और लगातार जुल्मों को सहने के पश्चात, इस स्वर्णिम दिवस का उदय हुआ था| ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सन् 1783 इस्वी. को ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के योद्धा बाबा बघेल सिंह जी, बाबा जस्सा सिंह जी आहलूवालिया एवं बाबा जस्सा सिंह जी रामगढ़िया के नेतृत्व में सिख सैनिकों ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन कर, उस तत्कालीन समय में मुगल शासक शहंशाह शाह आलम–द्वितीय को बुरी तरह परास्त कर ऐतिहासिक विजय हासिल की थी एवं ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के केसरी निशान साहिब को लाल किले पर आन, बान और शान से लहराकर, दिल्ली के मस्तक पटल पर अपनी जीत की शानदार मोहर लगाई थी|

यदि सिखों के स्वर्णिम–गौरवमयी इतिहास का पुनर्निरीक्षण करें तो स्पष्ट होता है कि ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के सेवादारों ने एक–दो बार नहीं अपितु दिल्ली को 17 बार अपनी शुरवीरता और बाहुबल के दम पर फतेह किया था| ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट है कि दिल्ली को कौन सी तिथियों पर 17 बार सिखों ने अपने आधिपत्य में लिया था?

1. 9 जनवरी सन् 1765 इस्वीं

2. अप्रैल सन् 1766 इस्वीं

3. जनवरी सन् 1770 इस्वीं

4. 18 जनवरी सन् 1774 इस्वीं

5. अक्टूबर सन् 1774 इस्वीं

6. जूलाई सन् 1775 इस्वीं

7. अक्टूबर सन् 1776 इस्वीं

8. मार्च सन् 1778 इस्वीं

9. सितंबर सन् 1778 इस्वीं

10. 23 सितंबर सन् 1778 इस्वीं

11. 26 सितंबर सन् 1778 इस्वीं

12. अक्टूबर सन् 1778 इस्वीं

13. जनवरी सन् 1779 इस्वीं

14. 16 अप्रैल सन् 1781 इस्वीं

15. 11 मार्च सन् 1783 इस्वीं

16. 23 जूलाई सन् 1787 इस्वीं

17. 23 अगस्त सन् 1787 इस्वीं

इस तरह से कुल 17 बार वर्तमान समय की लुटियन की दिल्ली को सिखों ने अपने आधिपत्य में लिया था| उत्तर भारत खासकर सुबा पंजाब में अत्यंत प्रसिद्ध कहावत है कि ‘सिखों के लिए दिल्ली फतेह करना, बिल्ली मारने के जैसा मामूली कार्य है|

उस तत्कालीन समय में शहंशाह शाह आलम–द्वितीय ने रायसीना हिल्स के रकाबगंज क्षेत्र की 1200 एकड़ ज़मीन सिख जरनैल सरदार बघेल सिंह जी को नजराने के तौर पर भेंट स्वरूप प्रदान की थी| इस संबंध में बादशाह शाह आलम–द्वितीय के द्वारा हस्तलिखित हुकुमनामा जो कि फारसी भाषा में लिखा गया था, वह हुकुमनामा वर्तमान समय में भी दिल्ली के राष्ट्रीय अजायबघर में सुरक्षित है|

उस तत्कालीन समय में दिल्ली के राज कर्ताओं के द्वारा सोने के 7 पत्रों पर जो हुक्मनामे लिख कर दिए गए थे उसका अपना एक अलग इतिहास है| जब बाबा बघेल सिंह जी ने 11 मार्च सन् 1783 ई. पर दिल्ली पर आक्रमण किया और आप जी लाहौर दरवाजा, मीना बाजार और नकारख़ाना से होते हुए दीवान–ए–आम को अपने आधिपत्य में ले लिया था| दीवान-ए-आम वह स्थान है जहां शाहजहां, औरंगज़ेब और बहादुर शाह जैसे बादशाह अपने दरबार सजाते थे| आप जी ने दीवान-ए-आम पर आधिपत्य प्राप्त कर, लाल किले के मुख्य प्रवेश द्वार पर ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के निशान साहिब (केसरी ध्वज) को शान से लहरा दिया था| जिस किले के सामने वाले मैदान पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को शहीद किया था और जिस किले में बाबा बंदा सिंह बहादुर और उनके 740 सिखों को क्रूरता पूर्वक, अत्याचार करके शहीद किया था, वह लाल किला सिखों के क़दमों के तले था और इस लाल किले पर निवास करने वाला मुगल शहंशाह शाह आलम–द्वितीय बंदा सिंह बहादुर के वारिसों से अपनी जान की भीख मांगने को मजबूर था| उस तत्कालीन समय में दीवान-ए-आम में दरबार लगाकर बाबा जस्सा सिंह आहलूवालिया को सुल्तान–ए–कौम के रूप में मनोनीत कर, दिल्ली के तख़्त पर उनकी ताजपोशी की गई थी और दिल्ली पर सिखों का 9 महीने तक लगातार राज रहा था|

जीवन परिचय बाबा बघेल सिंह जी (सन् 1730 ई.– सन् 1802 ई.)

बाबा बघेल सिंह जी एक उत्तम सिख योद्धा और जरनैल थे, आप जी का जन्म ग्राम झबाल कला, ज़िला तरनतारन सूबा पंजाब में एक गुरु सिख परिवार में हुआ था| आप जी के पुरखों ने सन् 1530 ई. के दशक में ही ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ के सानिध्य में आकर सिख धर्म को ग्रहण कर लिया था| आप जी को सन् 1766 ई. में करोड़ सिंहया मिसल का सरदार मनोनीत किया गया था| उस तात्कालीन 18 वीं सदी के महान सेना नायकों में बाबा बघेल सिंह जी का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता था कारण उन्होंने आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली के रक्त–रंजित आक्रमणों का मुंहतोड़ जवाब देकर अपना दबदबा 18 वीं सदी के प्रारंभ तक स्थापित करके रखा था| बाबा बघेल सिंह जी दलेर, नितिवान, महान योद्धा और कूटनीतिक दूरदृष्टि वाले पंथक सेनानी थे| आप जी के नेतृत्व में करोड़ सिंहया मिसल (दल) का गौरवमयी इतिहास था| इस इतिहास के बिना 18 वीं सदी के मध्य भारत का इतिहास अधूरा है| ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी का फरमान है—

जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ||

सिरु धरि तली गली मेरी आउ||

इतु मारगि पैरु धरीजै||

सिरु दीजै काणि न कीजै||

   (अंग क्रमांक 1412)

उपरोक्त अधोरेखित वाणी के अनुसार इस मिसल (दल) ने पूरे उत्तर भारत में अपनी शुरवीरता की पताका को लहरा दिया था| प्रसिद्ध इतिहासकार प्रिंसिपल सतबीर सिंह जी द्वारा रचित इतिहास अनुसार मध्य भारत का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था, जहां पर बाबा बघेल सिंह जी का दबदबा कायम न हुआ हो, जालंधर से लेकर पीलीभीत तक और अंबाला से लेकर अलीगढ़ तक के क्षेत्र में इनका सिक्का चलता था और इनके नाम की तूती बोलती थी| बाबा बघेल सिंह जी के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि दिल्ली फतेह और दिल्ली में स्थित गुरु धामों और गुरु स्थलों के निर्माण (उसारी) में आप जी के द्वारा दिया गया अनमोल योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है|

जब दिल्ली पर बाबा बघेल सिंह जी अपनी 40 हजार की सिख सेना को लेकर 8 मार्च सन् 1783 ई. को यमुना नदी के बरारी घाट को पारकर, दिल्ली पर आक्रमण किया गया तो शहंशाह शाह आलम–द्वितीय सिखों से मुकाबला करने की बजाय, डर के मारे लाल किले में जाकर छुप गया था| उस समय शहंशाह शाह आलम–द्वितीय ने एक तेज संदेशवाहक की मदद से सरधना की शासक बेगम समरू को अपनी मदद के लिए निवेदन किया था| बेगम समरू का जहां मुगल दरबार से अच्छे संबंध थे वहीं उसने बाबा बघेल सिंह जी को अपना भाई माना हुआ था| इस आक्रमण के दौरान सिख सैनिकों ने बड़ी तेजी से दिल्ली पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था उसी समय ऐन मौके पर बाबा जस्सा सिंह जी रामगढ़िया भी अपने सिख सैनिकों के साथ मदद हेतु दिल्ली पहुंच गए थे|

12 मार्च सन् 1783 ई. को बेगम समरू ने दिल्ली पहुंचकर बाबा बघेल सिंह से तीस हजारी नामक स्थान पर पहुंच कर शांति वार्तालाप को प्रारंभ किया था कारण शंहशाह शाह आलम–द्वितीय, सिखों के समक्ष शरणागत हो गये थे, ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी का फरमान है—

जो सरणि आवै तिसु कंठि लावै इहु बिरदु सुआमी संदा||

                 (अंग क्रमांक 544)

बेगम समरू ने बाबा बघेल सिंह जी के समक्ष अपनी दो मांगों को प्रमुख रूप से रखा था, पहली मांग शंहशाह शाह आलम–द्वितीय एवं उसके परिवार की जान को बक्श दिया जाए एवं लाल किले पर शंहशाह शाह आलम–द्वितीय का अधिकार बरकरार रहें| इस वार्तालाप के लिए सिखों की और से बाबा बघेल सिंह जी को सर्वाधिकार प्राप्त थे| आप जी ने ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी का सम्मान करते हुये, अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और कूटनीतिज्ञ दूरदृष्टि के मद्देनजर सिख कौम को अधिकतम लाभ पहुंचाने हेतु अपनी कुछ शर्तों को रखा और मांग की कि वह सभी स्थान जो गुरुओं के चरण–चिन्हों से चिन्हींत हैं एवं वह सभी स्थान जो सिख इतिहास से संबंधित है, उनको तुरंत सिखों के अधिन कर दिया जाए| साथ ही वह सभी स्थान जो ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की शहादत से जुड़े हुए हैं (गुरुद्वारा शीश गंज साहिब जी, जहां ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को मुगल बादशाह औरंगज़ेब के आदेश पर शहीद किया गया था और गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब जहां गुरु जी की शीश विहीन देह का अंतिम संस्कार किया गया था), इसके अतिरिक्त गुरुद्वारा बांग्ला साहिब जी, गुरुद्वारा बाला प्रीतम साहिब जी, गुरुद्वारा मजनूं का टीला साहिब जी, गुरुद्वारा मोती बाग साहिब जी, गुरुद्वारा माता सुंदरी जी और गुरुद्वारा बाबा बंदा सिंह बहादुर जी की स्थापना का सेहरा भी बाबा बघेल सिंह के कूटनीतिज्ञ दृष्टिकोण को जाता है| इन सभी स्थानों को सिखों के अधिन कर, उन स्थानों पर भवन निर्माण (उसारी) के कार्य को तुरंत प्रारंभ किया जाए| शहर की कोतवाली को भी सिखों को सौंप दी जाए एवं कर के रूप में जो पैसा इकट्ठा होता है उसका 6 आना अर्थात 37.5 % इन सभी गुरुद्वारों और गुरु धामों के निर्माण में खर्च किए जाएं| इन शर्तों से बाबा बघेल सिंह जी ने दर्शा दिया था कि वह किसी प्रकार का राज–पाट नहीं चाहते है अपितु उनका लक्ष्य गुरु घर की सेवा है, गुरुवाणी का फरमान है—

राजु न चाहउ मुकति न चाहउ मनि प्रीति चरन कमलारे||

(अंग क्रमांक 534)

बाबा बघेल सिंह जी द्वारा बनवाए गए गुरुद्वारों का इतिहास–

‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ के महल माता सुंदरी जी और माता साहिब देवी जी की स्मृति में तेलीवाड़ा में गुरुद्वारा साहिब जी का निर्माण|

गुरुद्वारा बंगला साहिब जी, इस स्थान पर ‘श्री गुरु हर कृष्ण साहिब जी’ ने जयपुर के महाराजा जय सिंह के बंगले में निवास किया था|

उस तात्कालीन समय में यमुना नदी के किनारे चार स्मृती स्थल भी बनाए गए थे, इस स्थान पर ‘श्री गुरु हर कृष्ण साहिब जी’ माता सुंदरी जी एवं उनके द्वारा गोद लिए गए पुत्र साहिब सिंह जी, साथ ही माता साहिब कौर जी का अंतिम संस्कार किया गया था| इसी स्थान पर एक सुंदर विलोभनिय गुरुद्वारे का भवन निर्माण (उसारी) भी किया गया था|

गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब जी, इसी स्थान पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की शीश विहीन देह का लक्खी बंजारे द्वारा अंतिम संस्कार किया गया था|

गुरुद्वारा शीश गंज साहिब जी, इस स्थान पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ का शीश कलम कर, शहीद किया गया था|

गुरुद्वारा मजनूं का टीला साहिब जी, इस स्थान पर ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने निवास किया था|

गुरुद्वारा मोती बाग साहिब जी, इस स्थान पर ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ ने निवास किया था|

उपरोक्त वर्णित दिल्ली के सभी ऐतिहासिक गुरुद्वारों का निर्माण (उसारी) 8 महीनों के भीतर स्वयं बाबा बघेल सिंह जी ने अपने निरीक्षण में करवाए थे|

नवंबर सन् 1783 ई. के अंतिम दिनों तक इन सभी गुरु स्थान और गुरु धामों के भवन निर्माण (उसारी) संपूर्ण हो चुकी थी, दिसंबर सन् 1783 ई. को जब बाबा बघेल सिंह पुनः पंजाब की और प्रस्थान करने लगे तो शहंशाह शाह आलम–द्वितीय ने आपसे मिलने की इच्छा प्रकट की थी एवं अपने वजीर को विशेष रूप से निमंत्रित करने हेतु बाबा बघेल सिंह जी के पास भेजा था, बाबा बघेल सिंह जी की इसके पहले शहंशाह शाह अलम–द्वितीय से कभी भी सीधी मुलाकात नहीं हुई थी| जब बाबा बघेल सिंह जी संपूर्ण रूप से शस्त्रबद्ध होकर अपनी ख़ालसाई शान से शहंशाह शाह आलम–द्वितीय को मिलने लाल किले पर जा रहे थे तो दरबारी नकीब ऊंची आवाज में बोलता जा रहा था कि ख़ालसा जिओ का आगमन हो रहा है, उस समय इन सिंहो की आन, बान और शान के आगे मानों सूरज की रोशनी भी फीकी पड़ गई थी| सभी दरबारियों ने बाबा बघेल सिंह जी का सम्मान पूर्वक अभिवादन किया था| रास्ते के मध्य में बाबा बघेल सिंह जी ने हाथी की सवारी छोड़कर, अपने घोड़े पर सवार हुये एवं घोडे़ पर चढ़े–चढ़ाए ही आप जी ने लाल किले के दरबार में प्रवेश किया था| उस समय में आप जी के साथ सरदार दुलचा सिंह जी और सरदार सदा सिंह जी भी पधारे थे| सभी दरबारियों ने कतार बद्ध होकर, आप जी का भव्य स्वागत किया था| बाबा बघेल सिंह जी ने शहंशाह के शाही दरबार में अपनी सिखी मान–मर्यादाओं को बरकरार रखा था| उस समय शहंशाह शाह आलम–द्वितीय की सेना ने आप को सलामी (गार्ड ऑफ ऑनर) प्रदान की थी| शहंशाह ने अपने दोनों हाथ उठाकर बाबा बघेल सिंह जी का सत्कार पूर्वक अभिवादन किया था और अपने समीप ही उन्हें स्थानापन्न किया था| साथ ही पुराने मित्रों की तरह उनका आदर सत्कार किया एवं कहा कि लोगों ने ऐसी अफवाह फैला रखी थी कि सिख लुटेरे होते हैं शहंशाह शाह आलम–द्वितीय, बाबा बघेल सिंह जी और उनके सरदारों की जीवनी से अत्यंत प्रभावित हुआ था उसने अत्यंत आदर सत्कार कर सिखों के प्रति अपनी आस्था को प्रदर्शित किया था| जब बाबा बघेल सिंह जी दरबार से विदा होने लगे तो शंहशाह शाह आलम–द्वितीय ने रु. 5000 कड़ाह प्रसादि के लिए बाबा बघेल सिंह जी के सुपुर्द कर उनकी सम्मान पूर्वक विदाई की थी|

लुटियन की दिल्ली पर राज करने वाले हर राज्य कर्ता को हमेशा सिखों के स्वर्णिम इतिहास को ध्यान में रखना चाहिए याद रखें, सिखों के लिए दिल्ली फतेह करना, बिल्ली मारने के जैसा मामूली कार्य है, इस कहावत का इतिहास स्वयं गवाह है|

इस दिल्ली फतेह दिवस (कौमी दिवस) 11 मार्च पर बाबा बघेल सिंह जी, बाबा जस्सा सिंह जी अहलूवालिया, बाबा जस्सा सिंह जी रामगढ़िया और ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के ख़ालसाई सेवादारों को विनम्र अभिवादन!

इस इतिहास को पुनर्लेखन कर प्रकाशित करने में यदि कोई त्रुटि हो जाती है तो गुरु महाराज के अंजान बच्चे समझकर बक्शना जी। ‘संगत बक्शनहार है’।

भुलण अंदरि सभु को अभुलु गुरु करतारु ||

(अंग क्रमांक 61)

अर्थात् सभी ग़लती करने वाले है, केवल गुरु और सृष्टि की सर्जना करने वाला ही अचूक है।

वाहिगुरु जी का ख़ालसा , वाहिगुरु जी की फतेह॥

नोट 1. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

साभार लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज–विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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गुरमत साहित्य के कोहिनूर: ज्ञानी ज्ञान सिंह जी

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