ੴ सतिगुर प्रसादि॥
चलते-चलते. . . .
(टीम खोज-विचार की पहेल)
ज़फ़रनामा: विजय पत्र
‘ज़फ़रनामा’ अर्थात विजय पत्र: यह एक ऐसा पत्र है जो दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ द्वारा औरंगज़ेब को लिखा गया था। ‘ज़फ़रनामा’ एक ऐसा साहित्यिक पत्र है जो हमेशा इतिहास में याद रखा जाएगा। जो कार्य तलवार नहीं कर सकी वह कार्य ‘दशमेश पिता’ ने अपनी कलम से कर के दिखाया था। यह पत्र मूल रूप से फारसी भाषा में रचित है। यह पत्र फारसी भाषा की सर्वोत्कृष्ट रचना माना जाता है। ‘ज़फ़रनामा’ अपने आप में बहुत ही विशाल और अद्भुत रचना है। टीम खोज-विचार का इस लेख के द्वारा संक्षेप में ज़फ़रनामा के सारांश को लिखने का प्रयत्न है।
इस पत्र को ‘दशमेश पिता’ ने चमकौर के युद्ध के पश्चात ‘दिना कंगड़’ के इलाके में स्थित भाई देसा सिंह की चौपाल पर बैठकर लिखा था। इस पत्र को लेकर पंज प्यारे में से एक भाई दया सिंह जी एवं भाई तरन सिंह स्वयं औरंगज़ेब के पास गए थे।
‘ज़फ़रनामा’ में 11 उस्तत हैं। इसके पहले अध्याय में 9 पद्य हैं और आगे के 4 अध्यायों में प्रत्येक 21 पद्यों को लिखा गया है। इस मूल पत्र की रचना स्वयं दशमेश पिता ने अपने कर-कमलों के द्वारा की है। इस पत्र की लिखावट बहुत ही सुंदर है। फारसी भाषा के महान विद्वान साहित्यकार, कवी ‘सय्यद मोहम्मद तामिल’ उन्होंने स्वयं फारसी भाषा में कई महान ग्रंथ और काव्य संग्रहों की रचना की है। ऐसे महान साहित्यकार ने जब ज़फ़रनामा का अध्ययन किया तो टिप्पणी करते हुए कहा कि इस महान रचना के आगे मेरी रचनाएं फीकी है। जबकि महान साहित्यकार ‘सैयद मोहम्मद तामील’ बगदाद के मूल निवासी थे और फारसी उनकी मातृभाषा थी और ‘दशमेश पिता’ के लिए फारसी एक विदेशी भाषा थी। इस पत्र की रचना से ही हम कलम के धनी ‘दशमेश पिता’ की विद्वता को समझने की कोशिश कर सकते हैं।
ज़फ़रनामे की प्रारंभिक रचनाओं के 12 पद्यों में ‘दशमेश पिता’ ने उसे एक अकाल पुरख की आराधना करते हुए ‘उस्तत’ की है। जैसे हम कोई भी पत्र लिखते समय उस परम-पिता-परमेश्वर को याद करते हैं, ठीक उसी तरह इस पत्र को आरंभ किया गया है। ज़फ़रनामा के 13 वें पद से ‘दशमेश पिता जी’ ने औरंगज़ेब को संबोधित कर लिखना प्रारंभ किया है। अपना सरबंस शहीद करवा कर, अपने सभी जान से प्यारे सिंहों को शहीद करवा कर भी दशमेश पिता को अफ़सोस नहीं हुआ था अपितु इन शहीदों पर गुरु जी को ‘अभिमान’ था। ‘दशमेश पिता जी’ को अफ़सोस इस प्रसंग का था कि औरंगज़ेब का मुख्य सेनापति ख्वाजाँ खैबर ख़ान जिसने ‘दशमेश पिता’ को शहीद करने का बीड़ा उठाया था। जब वह चमकौर के युद्ध में गुरु जी के सामने आया और ‘दशमेश पिता जी’ ने जब अपनी कमान पर तीर चढ़ाकर निशाना साधा तो वह भयभीत होकर दीवार के पीछे छुप गया था। इस प्रसंग को ‘दशमेश पिता’ ने ज़फ़रनामे में अंकित कर ख्वाजा खैबर ख़ान जो कि भयभीत होकर दीवार के पीछे छुप गया था, उसे लताड़ा है। गुरु जी ने स्पष्ट किया है कि मैं चाहता तो एक पल में उसको मौत के घाट उतार देता परंतु ऐसे डरपोक सेनापति पर वार करके मैं अपना एक तीर खराब नहीं करना चाहता था। इसलिए मेरी आत्मा ने मुझे इसकी इजाजत नहीं दी थी। काश! तुमने किसी शूरवीर सूरमा को मुझ से युद्ध करने के लिए भेजा होता? पाठकों की जानकारी के लिए, तीरकमान में से कमान की शक्ति को उसकी डोरी के दबाव से नापा जाता है। आधुनिक समय में विश्व ओलंपिक में जो तीरंदाजी के मुकाबले होते हैं उसमें अधिकतम 190 पौंडस के दबाव (प्रेशर) से कमान को विश्व के सर्वोच्च, सर्वोत्तम खिलाड़ी खींचते हैं परंतु ‘दशमेश पिता’ के जो तीर-कमान को ऐतिहासिक धरोहर के रूप में संभाल कर रखा गया है। उसके अध्ययन से पता चला कि इस कमान की डोरी खिंचाई का दबाव (प्रेशर) 496 पौंड़स से भी अधिक है। इससे ‘दशमेश पिता’ के बाहुबल का अंदाजा लगाया जा सकता है।
चमकौर के युद्ध में लाखों की सेना से ‘दशमेश पिता’ और उनके 40 योद्धाओं का सामना हुआ था। जिसे ज़फ़रनामे में इस तरह अंकित किया गया है—
गर सिनहां के कारे कुनद चहुल लर॥
बाद दै लेख आऐद बरो बैखबर॥
अर्थात औरंगज़ेब जब तेरी धोखा देने वाली लाखों की डरपोक फ़ौज ने चारों और से घेर लिया था तो मेरे 40 सिंह क्या करते?
इसी तरह से ज़फ़रनामे में अंकित है—
बरगे मरज बेसुमार बतगे मगज शाहकोश आमदम॥
अर्थात् औरंगज़ेब तेरी काली वर्दीधारी फ़ौज ने इतना विशाल घेरा डाल दिया जैसे लाखों की संख्या में मधुमक्खियों ने छत पर पर घेरा डाला होता है। अर्थात इस युद्ध में दुश्मन बहुसंख्या में था। इसी तरह से एक और ऐतिहासिक प्रसंग में चमकौर की गढ़ी के घेरे का वर्णन इस तरह से किया जाता है कि दुश्मन के सैनिक यदि एक-एक मुट्ठी, मिट्टी भी गढ़ी के ऊपर डालते तो गढ़ी को मिट्टी में दबा देते थे।
जफरनामे के 89 से 94 पद्यों के मध्य ‘दशमेश पिता जी’ ने औरंगज़ेब की तारीफ भी की है। यह पद्य वाकई सच्चाई का विश्लेषण है। औरंगज़ेब में कई खूबियां भी थी जिसे ज़फ़रनामा में अंकित किया गया है—
चाकब रकेब असत चलाक असत॥
हुसनल जमाल असत रौशन ज़मीर॥
ख़ुदाबंद मुलक असत साहेब अमीर॥
अर्थात् औरंगज़ेब तुम एक बहुत ही बहादुर योद्धा हो, तुम एक अच्छे शानदार घुड़सवार भी हो, तुम बचपन से ही गरीबों को दान करने वाले हो, ‘दशमेश पिता’ ने फरमाया है कि औरंगज़ेब तुम देखने में सुंदर भी बहुत हो, वैसे भी औरंगज़ेब की मां मुमताज की खूबसूरती दुनिया में प्रसिद्ध है। साथ ही औरंगज़ेब बहुत ही विद्वान था। वह ‘कैलीग्राफी’ विधि से बहुत ही सुंदर कुरान शरीफ लिखा करता था। औरंगज़ेब की हस्तलिखित कुरान शरीफ आज भी मक्का-मदीना और हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर रखी हुई है। साथ ही ‘दशमेश पिता’ ने उसके राजपाठ करने की नेतृत्व कला को भी सराहा है।
औरंगज़ेब ने अपने राज्य में शराबबंदी और वेश्यावृत्ति पर रोक लगाई थी। साथ ही सभी व्यक्तिगत खर्चे औरंगज़ेब स्वयं की कमाई से करता था। राज्य के खजाने के पैसे को कभी भी स्वयं के लिए खर्च नहीं करता था। औरंगज़ेब कमाई करने के लिए मुस्लिम टोपी बनाकर बेचता था।
ज़फ़रनामा में ‘दशमेश पिता’ ने औरंगज़ेब को बुरी तरह से लताड़ा भी है। ज़फ़रनामे में गुरु जी ने औरंगज़ेब को उसकी धार्मिक कट्टरता के लिए बुरी तरह से लताड़ते हुए सीख देने का प्रयत्न किया है। इस धार्मिक कट्टरता के कारण ही तु जालिम और हत्यारा है। इसी कट्टरवादी रवैया से तुमने इस्लाम को भी कलंकित किया है। ‘दशमेश पिता’ ने इस पत्र में अंकित किया है कि ना ही तुझे कुरान शरीफ पर यकीन है और न ही इस्लाम धर्म पर यकीन है। औरंगज़ेब केवल सुन्नी मुसलमानों को ही मुसलमान मानता था। उसने हिंदू, सिख, शिया मुसलमान, खोजा मुसलमान और गोहिरा मुसलमानों पर भी बेइंतहा जुल्म किए थे।
औरंगज़ेब ने अपना राजपाट बनाकर रखने के लिए अपने भाइयों को, अपने भतीजे को, अपने भांजे को और अपने जीजाओं का भी क़त्ल करवा दिया था और अपने पिता जहांगीर को लाल किले में क़ैद कर दिया था। वहां पर उसे केवल आधा प्याला पानी पीने के लिए दिया जाता था, जहांगीर अपनी क़ैद में हमेशा कुछ ना कुछ लिखता रहता था। एक बार जहांगीर ने अपने पीने के पानी की स्याही बना ली और जून की तपती दोपहर में पीने को और पानी मांगा तो औरंगज़ेब ने उत्तर दिया था कि तुम्हें केवल आधा प्याला पानी ही मिलेगा जिससे तुम चाहो तो अपने तन की प्यास बुझा लो या अपने मन की, आधे प्याले से ज़्याद पानी नहीं मिलेगा।
गुरु जी ने ज़फ़रनामा में अंकित किया है कि औरंगज़ेब मैं तुम से युद्ध नहीं करना चाहता था परंतु तुमने मजलूमों के ऊपर जुल्म की हद पार कर दी, तो मुझे मजबूरी में हथियार उठाने पड़े। औरंगज़ेब की दिनचर्या ही ऐसी थी कि जब तक वह सवा लाख ‘जेनउ’ हिंदुओं की उतारकर उन्हें मुसलमान नहीं बना देता, तब तक वह पानी का घूंट भी नहीं पीता था। पूरे भारतवर्ष में इस तानाशाह के शासन में किसी की भी हिम्मत नहीं होती थी कि वह ऊंची आवाज में बात कर सके। औरंगज़ेब अपनी धार्मिक कट्टरवादी सोच के कारण जुल्मों का बेताज बादशाह बन गया था। उसे लगता था कि मैं ही इस्लाम का सबसे बड़ा रक्षक हूँ। औरंगज़ेब की सभी ग़लतियों का कच्चा चिट्ठा ज़फ़रनामे में अंकित किया हुआ है।
इस ज़फ़रनामे को मिलने के बाद औरंगज़ेब ने लगातार कई बार इस ज़फ़रनामे को पढ़ा और उसे अत्यंत आत्मग्लानि हुई थी। जब इस पत्र की चर्चा आम जनता में हुई तो आम जनता ने भी औरंगज़ेब की करतूतों को बुरी तरह से लताड़ा था। कई इस्लाम के विद्वानों ने भी औरंगज़ेब को उस समय लताड़ा था और कहा था कि तुम्हारा मकसद गुरु जी को ग़िरफ्तार करना था परंतु छोटे-छोटे साहिबज़ादे को शहीद कर तुम ने इस्लाम धर्म को कलंकित किया है। साथ ही इन बेमतलब के युद्धों में लाखों सैनिक मरवा दिए। जब चारों और से औरंगज़ेब को लताड़ा जाने लगा तो वह आत्मग्लानि से पीड़ित होकर बीमार रहने लगा और कुछ ही समय में औरंगज़ेब की महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिसे अब ‘संभाजीनगर’ कहकर संबोधित जाता है, में उसकी मृत्यु हो गई। औरंगज़ेब का पूरा परिवार और उसके बच्चे भी उससे बहुत दुखी थे। उसकी मृत्यु के बाद इनमें से कोई भी उसकी क़ब्र पर मिट्टी डालने भी नहीं आया था।
कलम के धनी दशमेश पिता और उनकी सर्वोत्तम रचना ज़फ़रनामे को सादर नमन!
नोट 1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है एवं लेखों में प्रकाशित चित्र काल्पनिक है।
2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।
साभार— लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।
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