चार साहिबजादे
सिक्ख धर्म के गुरु साहिबानं ने अपने सिक्खों को जीने के मार्ग की जुगत ही नहीं सिखाई अपितु सर्वप्रथम उन्होंने स्वयं प्रदित शिक्षाओं का अनुसरण भी किया। गुरु साहिबानं ने स्पष्ट किया कि यदि मन आंतरिक और बाहरी तौर पर परिपक्व है तो ही आप आध्यात्मिक विकास की और अग्रसर हो सकते हैं। गुरु साहिबानं के इस दर्शनशास्त्र ने ही आम लोगों में विश्वास पूर्वक चेतना जागृत करने का कार्य किया। उस तात्कालिक समय में लोक – कल्याण के लिए केवल गुरु साहिब ज्ञान ही नहीं दे रहे थे अपितु उनके परिवार के सभी सदस्यों ने भी उनका पूरा साथ दिया था, ऐसी एक बेहतरीन मिसाल हमें करुणा – कलम और कृपाण के धनी दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के पूरे परिवार से प्राप्त होती है। दशम गुरु साहिब के संपूर्ण परिवार ने गुरुमत के उद्देश्य को धारण किया और सामाजिक चेतना को जागृत करने का महान कार्य करते हुए सदैव ही समाज को एक नई आशा की किरण प्रदान की। ऐसा इसलिये भी संभव हो सका कि गुरुमत में आयु की हद्द इस काम में रुकावट बन नहीं सकती, जिसकी जीती – जागती मिसाल साहिबजादों की शहीदी से निरुपित होती है।
साका सरहिंद का इतिहास सिक्ख इतिहास में एक सेवक के विश्वासघात, मुगल शासकों की अमानवीय क्रूरता एवं सिक्खों के त्याग और बलिदान के उच्च संस्कारों की परीक्षा का ज्वलंत इतिहास है। माता गुजरी जी और दोनों छोटे साहिबजादों, साहिबजादा जोरावर सिंघ (जन्म:28 नवंबर सन् 1696 ईस्वी. स्थान: श्री आनंदपुर साहिब जी) और साहिबजादा फतेह सिंघ जी (जन्म:12 दिसंबर सन् 1698 ईस्वी. स्थान: श्री आनंदपुर साहिब जी) को जब गुरुघर का रसोइया गंगू उर्फ गंगाराम अपने घर लाया तो उनके जेवरात, आभूषण, सोने की मोहरें इत्यादि कीमती समान देखकर और सरकारी इनाम के लालच में उसका ईमान डोल गया। उसने मोरिंडा के थानेदार से मुखबिरी कर उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। थानेदार ने उन्हें सरहिंद के नवाब वजीर खान के पास भेज दिया। जहां रात भर उन्हें दिसंबर की भीषण ठंड में एक ठंडे बुर्ज में रखा गया। धैर्य, साहस और समर्पण की मूर्ति माता गुजरी को होनी का पूर्वाभास हो गया था। रात भर उन्होंने साहिबजादों को धर्म और न्याय के लिये धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ और गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ के महान बलिदानों की साखियां सुनाई और उनका मनोबल बढ़ाया। साथ ही किसी भय या ‘लालच में आकर अपने धर्म से विचलित न होने की सीख दी।
अगले दिन दोनों साहिबजादों को नवाब वजीर खान की कचहरी में पेश किया गया। जब दीवान सुच्चानंद ने साहिबजादों से नवाब साहब को झुककर सलाम करने का कहा तो उनका उत्तर था, ‘हमारा शीश केवल अकाल पुरख के अलावा किसी के सामने नहीं झुक सकता! साम, दाम, दंड और भेद के उपायों द्वारा साहिबजादों को धर्म – परिवर्तन कर, इस्लाम कबुल करने के लिये उकसा कर, प्रयत्न किये गये और बडे़ साहिबजादों एवम् गुरु पातशाहा की मृत्यु की गलत सुचनाएं दी गई। सुख – सुविधाओं और ऐशो आराम के प्रलोभन दिये गये। दीवान सुच्चानंद ने नवाब को भड़काया साहिबजादों को बागी के बागी पुत्र कहा। उनके जीवन को मुगल सल्तनत के लिये भावी खतरा बताया और उन्हें सजा – ए – मौत देने का सुझाव दिया परंतु काजी का सुझाव था कि इस्लाम में बच्चों को सजा की अनुमति नहीं हैं, तब नवाब वजीरखान ने साहिबजादों को निर्णय लेने के लिये समय दिया। दो दिन तक पुनः भय और प्रलोभन द्वारा साहिबजादों के धर्म – परिवर्तन का प्रयास किया गया, परंतु वे रंचमात्र भी भयभीत नहीं हुये थे कारण जगत् माता गुजरी जी ने आपको गुरुवाणी का निम्न फर्मान अच्छी तरह से दृढ़ करवा दिया था, गुरु वाणी का फर्मान है:-
प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै॥ जिसु प्रभु राखै तिसु नाही दूख॥
(अंग क्रमांक 293)
अर्थात् प्रभु की कृपा से ही जीव की मुक्ती होती है। जिसकी प्रभु – परमेश्वर रक्षा करता है उसे कोई दुख नही लगता है।
अंततः क्रूर नवाब ने काजी के सुझाव पर दोनों साहिबजादों को जीवित दीवार में चुनवा देने का अमानवीय एवं क्रूरतम आदेश दिया। इस सरहिंद की कचहरी में उस तात्कालीक समय में मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान भी उपस्थित थे और उन्होनें उस समय में वजीर खान को ऐसी नीच हरकत करने के लिये बहुत लताड़ा था और इस सजा का डटकर विरोध किया था, जबकि नवाब के दोनों सगे भाई नाहर खान और खीजर खान चमकौर के युद्ध में सिक्खों के हाथों से मारे गये थे। नवाब शेर मोहम्मद खान ने जो वचन सरहिंद की कचहरी में कहे थे, वह निम्नलिखित है:-
वैर गुरु दे संग तुमारा, इन मासुमों ने किआ बिगाड़ा॥ शीरखोर मत बालक मारो, ना हक जुलम करो नबारो॥
वजीर खान ने एक ना सुनी और दीवार में जीवित चुनते समय जहां उन्हें इस्लाम स्वीकार कराने के प्रयास किए गए वहां दोनों साहिबजादे वाहिगुरु के नाम का जाप करते रहे। दीवार के कंधों तक आने पर दीवार गिर गई, तब तक दोनों साहिबजादे बेहोश हो चुके थे। बाद में कुरान के विरुद्ध वजीर खान के आदेश पर जल्लाद साशल बेग व बाशल बेग द्वारा साहिबजादों के गले रेत दिए गये।(शहीदी: २६ दिसंबर सन् १७०५ ईस्वी.) साहिबजादों की शहादत का दुःखद समाचर माता गुजरी जी के लिये ह्रदयविदारक सिद्ध हुआ और उन्होने उस अकाल पुरख का ध्यान कर, अपने प्राण त्याग कर ब्रह्मलीन (अकाल चलाना) हो गई।
अमर शहादत के इस पवित्र स्थल पर सुशोभित है ‘गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब’ जी। जगत माता गुजरी जी और साहिबजादों के अंतिम संस्कार की घटना भी उल्लेखनीय है। गुरुदेव के एक श्रद्धालु दीवान टोडरमल को अंतिम संस्कार के लिये इस शर्त पर अनुमति दी गई कि वे आवश्यक जमीन के क्षेत्रफल के बराबर सोने की मोहरें खड़ी कर (बिछाकर नहीं) उसका मूल्य चुकाएंगे। अंतिम संस्कार स्थल पर सुशोभित है, ‘गुरुद्वारा श्री जोती (ज्योति) सरूप (स्वरूप) साहिब।
बडे़ साहिबजादों का इतिहास:-
सरसा नदी के तट पर हुए छलपूर्वक युद्ध के समय गुरु परिवार बिछड़ गया। गुरु पातशाहा जी दो ज्येष्ठ साहिबजादों, साहिबजादा अजीत सिंघ जी (जन्म:11 फरवरी सन् 1687, स्थान: पाउंटा साहिब जी, हिमाचल प्रदेश) और साहिबजादा जुझांर सिंघ जी (जन्म:14 मार्च सन् 1691 ईस्वी., स्थान: श्री आनंदपुर साहिब जी) और पंज प्यारों सहित मात्र 40 सिक्खों के साथ चमकौर की कच्ची गढ़ी में पहुंचे। कच्ची गढ़ी में मोर्चाबंदी की गई, शत्रुओं की 10 लाख की विशाल सशस्त्र संगठित सेना उनका पीछा करती हुई चमकौर पहुंची और गढ़ी को चारों दिशाओं से घेर लिया।
यह विश्व के इतिहास का एकमात्र ऐतिहासिक अभूतपूर्व युद्ध था। जिसमें एक और दस लाख की विशाल सेना थी और दूसरी और मात्र 40 सैनिक मुगलों ने तीन दिशाओं से आक्रमण किया। गुरु पातशाहा जी ने भी तीनों दिशाओं में तीरों की घनघोर बारिश कर दी थी। उन्होंने काफी समय तक अपने अचूक तीरों से शत्रु सेना को गढ़ी से दूर रखने का सफल प्रयास किया। पर सीमित संख्या के तीर जब समाप्त हुए तो शत्रुओं की सेना गढ़ी के दरवाजे तक पहुंच गई। गुरुदेव के निर्देश पर पांच – पांच खालसा सैनिक ‘बोले सो निहाल: सत श्री अकाल’! का जयघोष कर बारी – बारी से गढ़ी से बाहर आते रहे और यथासंभव अत्यंत वीरता का प्रदर्शन कर, शत्रु सेना का भारी नुकासान कर वीरगति को प्राप्त होते रहे। सिक्खों ने गुरु पातशाहा जी से साहिबजादों के साथ रात के अंधेरे में गढ़ी से बाहर सुरक्षित निकल जाने का निवेदन किया, पर गुरु पातशाहा जी ने कहा कि आप सभी मेरे पुत्र हैं! उन्होंने पहले 17 वर्ष के ज्येष्ठ साहिबजादे अजीत सिंघ को युद्ध के लिये स्वयं तैयार किया और आशीर्वाद देकर पांच सिक्खों के साथ रणभूमि में भेजा। रणभूमि में बाबा अजीत सिंघ अपने शौर्य और युद्ध कौशल का अद्भुत परिचय देते हुए शहीद हुये। फिर मात्र 13 वर्ष की किशोर अवस्था के साहिबजादे जुझार सिंघ ने अपने भाई की वीरता से उत्साहित होकर रणभूमि में जाने की आज्ञा मांगी कारण इन दोनों ज्येष्ट साहिबजादों ने गुरबाणी के निम्न फर्मान् को अपनी अंतरआत्मा में निहित कर लिया था, गुरुबाणी का फर्मान् है-
जिन निरभउ जिन हरि निरभउ धिआइआ जी तिन का भउ सभु गवासी॥
(अंग क्रमांक ११)
अर्थात् जिन्होनें भय से मुक्त होकर उस अभय स्वरुप अकाल पुरख का ध्यान किया है, उनके जीवन का समस्त जन्म – मरण का भय वह प्रभु – परमेश्वर समाप्त कर देता है और गुरु पिता का आशीर्वाद लेकर पांच सिक्खों के साथ साहिबजादा जुझार सिंघ जी ने युद्धभूमि में शत्रुओं का जमकर प्रतिकार कर शत्रु सेना के दांत खट्टे कर दिये। एक जुझारु योद्धा की तरह साहिबजादा जुझार सिंघ भी वीरगति को प्राप्त हुये।(शहीदी: २६ दिसंबर सन् १७०५ ईस्वी.) दोनों साहिबजादों की शहादत पर गुरु पातशाहा न दुखी हुये और न उदास! पंचम गुरु शहीदों के सरताज गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ की रचित बाणी ‘तेरा कीआ मीठा लागै॥ हरि नामु पदारथु नानकु माँगै॥ का स्मरण कर उन्होंने अकाल पुरख का शुकराना किया और कहा, “दोनों साहिबजादे सिक्खी सिद्क में पूरे उतरे हैं और परिक्षा में पास हुये”।
चमकौर का युद्ध इसलिए भी असामान्य है कि १० लाख की विशाल सेना का प्रतिकार मात्र गुरु के ४० जांबाज सिक्खों द्वारा किया गया। यह गुरु पातशाहा जी के एक कुशल रणनितीज्ञ सेनानायक होने का भी प्रमाण है। गुरु पातशाहा जी की प्रसिद्ध जोशिली वाणी ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं तबै गोबिंद सिंघ नाम कहाऊं’ चमकौर के ऐतिहासिक युद्ध में ही प्रमाणित हुई।
“गुरु पंथ खालसा” के इन महान शहीद चार साहिबजादों को सादर नमन!