श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में प्रकृति की महिमा

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

चलते–चलते. . . .

(टीम खोज–विचार की पहेल)

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में प्रकृति की महिमा

वर्षा ऋतु के इन सावन–भादो के महीनों में प्रकृति ने धरती को अपनी गोदी में समेट कर चारों और एक हरियाली की चादर फैला दी है। रंग बिरंगे फूल और पत्तियां मानों जैसे इस धरती का श्रृंगार कर रहे है। पक्षियों के कलरव ने एक संगीतमय समां बांध के रखा हुआ है। प्राकृतिक सौंदर्य की यह निराली और मनमोहक छटा निश्चित ही अंतर्मन को आकर्षित कर, इस जीवन यात्रा में एक विशेष ऊर्जा और नव चेतना का निर्माण करती है। ऐसे प्रकृति पूर्ण सुंदर परिवेश को निहारते हैं तो मन ही मन हम उस अकाल पुरख (परमात्मा) का शुक्रिया अदा करते हैं और अनायास ही ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ द्वारा स्वयं के मुखारविंद से उच्चारित उस अकाल पुरख की स्तुति में उच्चारण की हुई आरती के स्वरूप में गुरुवाणी की पंक्तियां जुबान पर आ जाती है, जिसमें उन्होंने सौरमंडल को आधार मानकर उस परमात्मा का यश गायन किया हुआ है। जिसे इस तरह से ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित किया हुआ है

गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती॥

धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती॥

कैसी आरती होइ॥ भव खंडना तेरी आरती॥

अनहता सबद वाजंद भेरी॥ रहाउ॥ (अंग क्रमांक 13)

अर्थात् यदि हमें प्रकृति रूपी परम पिता परमेश्वर की सृष्टि की आरती करनी हो तो गगन (आसमान) एक आरती की थाली है, जिसमें चाँद और सूरज नामक दिये प्रकाशमान है और तारे मोतियों की माला के समान जड़े हुए हैं। इस आरती में चंदन की खुशबू होम सामग्री है और हवा स्वयं चंवर कर रही है। धरती के सभी वनस्पति और फूल परमात्मा को समर्पित हैं। इन दियों से कैसी सुंदर आरती हो रही है? है डर का नाश करने वाले अकाल पुरख (परमात्मा)! यह तेरी सच्चे अर्थों में आराधना है। मंदिर में बजने वाले नगाड़े ही परमात्मा का कीर्तन है। इस शब्द को गुनगुनाते हुए हृदय की भावनाओं को हम प्रकृति के सम्मान में प्रकट करते हैं।

विज्ञान और तकनीकी ज्ञान की मदद से इंसान ने भौतिक सुख–सुविधा से संसार का निर्माण करने में सफलता अर्जित की है। लेकिन क्या यह विकास प्रकृति के अनुकूल है? क्या इस विकास में सुख है? सुख की खोज तो गुरुवाणी के प्रवाह में भीगने से प्राप्त की जा सकती है। धन से दवा प्राप्त होगी लेकिन अच्छा स्वास्थ्य नहीं! धन से वैभव और विलासिता पूर्ण जीवन तो जिया जा सकता है परंतु यदि मन में दुख हैं और अंतःकरण में बेचैनी है तो कुबेर की संपत्ति भी मानव जीवन में सुख और संतोष का आनंद नहीं दे सकती है। विज्ञान और तकनीकी ज्ञान से हमने अफलातून विकास और निर्माण किया है और तो और चंद्रमा पर भी मनुष्य ने अपने चरण–चिन्हों को चिन्हित किया है परंतु अफसोस है कि इस धरती पर मनुष्य को प्रकृति के अनुकूल जीवन जीना नहीं आया। प्रकृति के अनुकूल जीना हम कहां से सीखे? हमारी जीवन शैली में यह संस्कार कहां से मिलेंगे? याद रखें विज्ञान विकास और विनाश दोनों का ही द्योतक है। हमें विज्ञान के विकास से सुविधा तो मिलेगी परंतु यदि हमारा जीवन प्रकृति के अनुकूल होगा तो ही हमें सुख शांति और संतोष का आनंद प्राप्त होगा।

निश्चित ही हमारी जीवन शैली प्रकृति के अनुकूल होनी चाहिए। इस संबंध में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ हमें क्या दिशा निर्देश देते हैं? इस लेख के माध्यम से हम जानने का प्रयत्न करेंगे।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में गुरुवाणी का फरमान है कि—

पवणु गुरु पाणी पिता माता धरति महतु॥

(अंग क्रमांक 8)

अर्थात् पवन गुरु है, पानी पिता है और धरती माता है। दिन और रात दोनों दाई मां है जिसकी गोद में यह संसार खेल रहा है।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की गुरुवाणी हमें दर्शाती है कि—

जिनि जगु सिरजि समाइआ सो साहिबु क़ुदरति जाणोवा॥

(अंग क्रमांक 581)

अर्थात् है गुरु के प्यारों, जिस परमात्मा ने इस जग का निर्माण किया है उस परमात्मा को प्रकृति में बसा हुआ जानना चाहिए। यानी कि वह अकाल पुरख (परमात्मा) इस प्रकृति में समाहित है। यदि हम परमात्मा के स्वरूप के दर्शन प्रकृति में करेंगे तो हम प्रकृति का कभी भी विनाश नहीं करेंगे और प्रकृति प्रेमी हो जाएंगे। प्रकृति में बसने वाले परमात्मा पर हम बलिहार हो जाएंगे। रहरास साहिब जी की वाणी में अंकित है—

बलिहारी क़ुदरति वसिआ॥

तेरा अंतु न जाई लखिआ॥ रहाउ ॥

(अंग क्रमांक 469)

अर्थात् है प्रकृति (क़ुदरत) में बसने वाले परमात्मा मैं तुझ पर बलिहारी जाता हूं, तुझ पर सदके जाता हूं। इसलिए गुरुवाणी के आदर्श पर चलने वाले व्यक्तियों की जीवन शैली प्रकृति के अनुकूल होती है।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी दिशा निर्धारित करती है कि—

सोई कुचीलु क़ुदरति नही जानै॥

(अंग क्रमांक 1151)

अर्थात् वह मनुष्य कुचिल (मलिन) है जो परमात्मा के स्वरूप को प्रकृति में नहीं देखता है। अर्थात् उसके मन में कहीं ना कहीं विद्वेष होता ही है, ऐसे मनुष्य अपने विचारों की गंदगी से प्रकृति को नष्ट करते हैं। यदि हमारे विचार सकारात्मक और स्वस्थ होंगे तो ही हम एक सामर्थ्यवान समाज का निर्माण कर सकेंगे।

गुरुवाणी पढ़ने, समझने और गुरुवाणी को प्रेम करने वाले व्यक्ति को साक्षात परमात्मा के दर्शनों की प्राप्ति प्रकृति से होती है। ऐसे व्यक्ति हर एक प्राणी में परमात्मा के स्वरूप को देखते हैं। ऐसे व्यक्ति कभी भी प्रकृति का विनाश नहीं करते एवं ना ही मनुष्यों से नफरत करते हैं।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी का फरमान है कि—

ੴ सतिगुर प्रसादि॥

पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ॥

जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ॥

भूली मालनी है एउ॥

सतिगुरु जागता है देउ॥ रहाउ ॥

ब्रहमु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ॥

तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ॥

पाख़ान गढि कै मूरति कीनी् दे कै छाती पाउ॥

जे एह मुरति साची है तउ गड़हणहारे खाउ॥

भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु॥

भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु॥

मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि॥

कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ॥

(अंग क्रमांक 479)

अर्थात् परमात्मा केवल एक है, जो सच्चे गुरु की दया से प्राप्त होता है। है मालन तू बाग के पत्ते तोड़ती है परंतु क्या तू जानती है कि हर पत्ते में जान होती है? जिस पत्थर रूपी परमात्मा को पूजने के लिए तू पत्ते तोड़ती है, वह तो बेजान है। है मालन! यह तेरी ग़लती है। सच्चे गुरु तो जीते–जागते हुए प्रभु है। ब्रह्मा पत्तों में है, विष्णु पेड़ की टहनियों में है और शिव फूलों में है। इन तीनों ही देवताओं को तू जाहिर तौर पर तोड़कर किस की सेवा कमा रही है? पत्थर को घड़ने वाला कारीगर तो मूर्ति की छाती पर पैर रखकर उसे घड़ता है। यदि यह पत्थर का देवता सच्चा है तो उसके घड़ने वाले को भी ख़ाना चाहिए। चावल, दाल, लापसी मालपुए और पंजीरी का प्रसाद तो इन्हें पूजने वाले पुजारी ही उसका आनंद मानते है। इस पत्थर की मूर्ति के मुंह में तो राख पड़ती है। है मालन! तुम गलतफहमी में जी रही हो, संसार ग़लतफहमी में है परंतु मैं गुमराह नहीं हूं। कबीर जी कहते हैं कि, उस अकाल पूरख (परमात्मा) ने अपनी रहमत को बख्शीश कर मुझे इन कर्मकांडों से बचा लिया है।

‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी दिशा निर्धारित करती है कि—

अवलि अलह नूरु उपाइआ क़ुदरति के सभ बंदे॥

एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे॥

(अंग क्रमांक 1349)

अर्थात वह ऊर्जा जो अति सूक्ष्म तेजोमय, निर्विकार, निर्गुण, सतत है और अनंत ब्रह्मांड को अपने में समेटे हुए हैं। किसी भी तंत्र में उसके लिये एक सिरे से उसमें समाहित होती है और एक या ज्यादा सिरों से निष्कासित होती है। जिस एक नूर से सृष्टि की उत्पत्ति हुई वह हीं प्रभु–परमेश्वर और अल्लाह है। हम सभी उसी के बंदे हैं। इसलिए हम अलग–अलग कैसे हो सकते हैं? इस सृष्टि के निर्माता ने तो प्राकृतिक रूप से हमें एक जैसा बनाया है।

हमें इस जीवन में उस प्रभु–परमात्मा से प्रेम करना चाहिए, उसकी बनाई प्रकृति और उसके बनाए बंदों से प्रेम करें। गुरुवाणी के कारण ही हम उस प्रभु–परमेश्वर के अस्तित्व को प्रकृति में देख सकते हैं। गुरुवाणी के कारण ही हमारे मन से घृणा, क्रोध, अहंकार और द्वेष दूर हो जाते हैं। हम केवल अहिंसा, प्रेम और सत्य के मार्ग पर चलने लगते हैं।

यदि हम एक अच्छे सकारात्मक समाज का निर्माण करना है तो हमें ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी आत्मसात करना ही होगी तो ही हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकेंगे जो प्रकृति का श्रृंगार कर प्यार, दया और सच के मार्ग पर चलने वाला होगा। हमें मनुष्य ही नहीं अपितु पेड़, पौधे, फूल, पक्षी, पशु, पहाड़, नदी, हवा और पानी से भी प्यार करना होगा क्योंकि परमात्मा स्वयं अपनी गवाही इनमें प्रस्तुत करता है।

नोट— 1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

3. उपरोक्त लेख ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के प्रथम प्रकाश पर्व (16 सितंबर 2023) को समर्पित है।

साभार— लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज–विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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