ੴ सतिगुर प्रसादि॥
(अद्वितीय सिख इतिहास/गुरबाणी और सिख इतिहास/(टीम खोज–विचार की पहेल)
गुरुवाणी और कर्मकांड: एक विवेचना-(भाग–1)
संपूर्ण विश्व में सिख धर्म को सबसे आधुनिक धर्म माना जाता है। सिखों ने विश्व में अपनी सेवा, सिमरन, त्याग, इंसानियत और देश भक्ति के जज्बे से अपनी एक अलग विशेष पहचान ‘विश्व पटल’ पर निर्माण की है। निश्चित ही ‘गुरु पंथ खालसा’ सब मतों से न्यारा है परंतु इस धर्म के अनुयायी हमेशा ही दूसरे धर्म के मानने वालों का उतना ही आदर-सत्कार कर उन्हें विशेष सम्मान प्रदान करते हैं।
मानवाधिकारों के लिए सतत संघर्षशील इस कौम के उपदेश, सिख विरासत, सिख इतिहास और गुरुवाणी के संदेशों को आम जन समुदाय में पहुंचाने का प्रयास टीम ‘खोज-विचार’ के द्वारा निरंतर किया जा रहा है। सिख धर्म के अनुयायी जात-पात, छूत-छात, पितृ, पिंड, पत्तल, दिया, क्रिया, कर्म, होम, यज्ञ, तर्पण, सिखा सूत, भादों, एकादशी, पूर्णिमा के व्रत, तिलक, जनेऊ, तुलसी माला, गौरमड़ी मठ, कब्र, मूर्ति, पूजा आदि भ्रम-रूप कर्मों पर विश्वास (Faith) नहीं रखते है। इन कर्मकांडो के संबंध में गुरबाणी का अपना एक सैद्धांतिक पक्ष है, स्वयं की गहरी सोच और पैनी दृष्टि से देखने पर ही गुरबाणी का ज्ञान होता है।निश्चित ही जब इंसान की आँख से विवेक का काजल निकाल लिया जाये तो वह कर्मकांड़ी बन जाता है। इन कर्मकांड़ो का गुरुवाणी में यथार्थ की धरातल पर खड़े हो कर, अपने तर्कों से किस तरह से खंडन-मंडन किया गया है? इस आलेख के भाग–1 में की गई विवेचना से समझने का प्रयास करेंगे।
श्राद्ध– जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसके नाम का श्राद्ध कराया जाता है। कहा जाता है कि श्राद्ध में दिया हुआ खाना पितरों तक पहुंचता है। मानव का तन ढकने के लिए कपड़े एवं शरीर को चलाने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो उसके मृत शरीर का अग्नि संस्कार कर दिया जाता है। इसके पश्चात भोजन एवं कपड़े आत्मा की खुराक कभी भी नहीं हो सकते है। जब मृत शरीर का अग्नि संस्कार कर दिया तो उस शरीर तक कपड़े एवं भोजन कैसे पहुंचें? अगर जीते हुए अपने बुजुर्गों की सेवा न की तो मरने पर श्राद्ध कराने से क्या लाभ?
गुरुवाणी में भक्त कबीर जी का फर्मान है—
जीवत पितर ना मानै कोऊ मूएं सिराध कराही॥
पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाहि॥
(अंग क्रमांक 332)
गुरुवाणी का फरमान है—
आइआ गइआ मुइआ नाउ॥
पिछै पतलि सदिहु काव॥ (अंग कर्मांक 138)
अर्थात् मनुष्य जन्म लेता है, अंत में तो उसका नाम भी शेष नहीं रहता है। पीछे से जो पत्तल आदि किये जाते है वह तो कौओं का खाना बनता है अर्थात श्राद्ध करवाये जाते है।
सिख इतिहास को दृष्टिक्षेप करें तो ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के समय लाहौर के धनी व्यक्ति दुनी चंद ने श्राद्ध कराया तो उस समय ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने उपदेश दिया था कि अगर जीते जी अपने बुजुर्गों की सेवा नहीं की तो, मरने पर भरे हुए पेटों के व्यक्तियों को खिलाने से क्या लाभ?
जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है—
सलोकु मः1॥
जे मोहाका घरु मुहै घरु मुहि पितरी देइ॥
अगै वसतु सिञाणीऐ पितरी चोर करेइ॥
वढीअहि हथ दलाल के मुसफी एह करेइ॥
नानक अगै सो मिलै जि खटे घाले देड ॥1॥
(अंग क्रमांक 472)
यदि कोई चोर पराया धन लूट लेवें और पराए धन की लूट से पितरों के निमित्त श्राद्ध कराये तो प्रभु आगे यह न्याय करता है कि जो दलाल, अपने यजमान से चोरी की हुई वस्तु पितरों के नमित्त दान करवाता है, उस दलाल की भी वो ही सजा है, जो चोर की हैं। हे नानक! आगे परलोक में केवल वो ही प्राप्त होता है, जो मनुष्य अपने परिश्रम से, नाम-सिमरन से कमा कर देता है।
गुरुवाणी में अंकित है—
माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही॥
ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही॥ (अंग क्रमांक 332)
लोग मिट्टी के देवी-देवता बनाकर उस देवी या देवता के समक्ष जिंदा जीवों की बलि देते हैं। (हे भाई!) उसी प्रकार तुम्हारे मृत पित्तर जो कुछ वह लेना चाहते हैं, वह कह कर नहीं ले सकते।
अब प्रश्न उठता है कि पित्तरों के भले के लिए क्या किया जाये?
इस संबंध में गुरवाणी मार्गदर्शन कर कहती है—
जिसु सिमरत सभि किलविख नासहि पितरी होइ उधारो॥
सो हरि हरि तुम् सद ही जापहु जा का अंतु न पारो॥(अंग क्रमांक 496)
अर्थात् जिसका सिमरन करने से सभी पाप-विकारों के नाश हो जाते हैं और पूर्वजों-पितरों का भी उद्धार हो जाता है, उस हरि-परमेश्वर का तू सदैव ही जाप कर, जिसका कोई अंत (ओर-छोर) एवं पारावार नहीं है।
व्रत–
समाज में कई तरह के व्रत रखे जाते हैं, जैसे मंगलवार, पूर्णमासी, अमावस्या, करवा चौथ का व्रत इत्यादि। व्रत्त के संदर्भ में गुरुवाणी में अंकित है—
छोडहि अंनु करहि पाखंड॥ ना सोहागनि न ओहि रंड॥
(अंग क्रमांक 873)
भूखे रह कर अपनी आत्मा एवं शरीर को दुख देना, इससे बड़ा पाप और क्या हो सकता है?
गुरुवाणी में अंकित है—
अंनु न खाहि देहि दुखु दीजै॥
बिनु गुर गिआन त्रिपति नहीं थीजै॥ (अंग क्रमांक 905)
अर्थात जो मनुष्य भोजन नहीं करता, उपवास रखता है, वह तो अपने शरीर को दुख: ही देता है। निश्चित ही गुरु के ज्ञान के बिना जीव की तृप्ति नहीं होती है।
गुरुवाणी में अंकित है—
वरत नेम लख दान करम कमावणा॥
लउबाली दरगाहि पखंड न जावणा॥(वार 21, भाई गुरदास जी)
आप भूखे रह कर शरीर को कष्ट देकर पति का सुख मांगना कौन से धर्म की बात है? पति भूखा रह कर पत्नी की लम्बी आयु के लिए व्रत क्यों न रखे? निश्चित ही स्वास्थ्य के नियमानुसार कम खाना अथवा किसी दिन न खाने से कोई नुकसान नहीं है। गुरबाणी भी इस बात को स्पष्ट करती है कि–
अलप अहार सुलप सी निंद्रा दया छिमा तन प्रीति॥(पा. दसवीं शबद हजारें)
गुरुवाणी में इस तरह से भी अंकित है—
ओनी् दुनिआ तोड़े़ बंधना, अंनु पाणी थोड़ा खाइआ॥(अंग क्रमांक 467, आसा दी वार )
गुरबाणी के अनुसार तो व्रत इस तरह से होना चाहिये—
सचु वरतु संतोखु तीरथु, गिआनु धिआनु इसनानु॥
दहआ देवता खिमा जपमाली ते माणस परधान॥ (अंग क्रमांक 1245)
अर्थात वो ही मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है— जिसका सत्य ही, व्रत/उपवास होता है, जिसका संतोष ही, तीर्थ है एवं जिसका ज्ञान ही, ध्यान और स्नान होता है।
पत्थर एवं मूर्ति पूजा-
कई लोग पत्थर की मूर्तियां घड़ते हैं एवं उनके आगे नाक रगड़ते देखे जाते हैं। दशम पातशाह ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ का फर्मान हैं–
काहू लै पाहन पूज धरयो सिर काहू लै लिंगु गरे लटकाइओ॥
काहू लखिओ हरि अवाची दिसा महि काहू पछाह को सीस निवाइयो॥
कोऊ बुतान को पूजत है पसु कोऊ म्रितान को पूजन धाइयो॥
कूर क्रिया उरझिउ सभ ही जग श्री भगवान को भेद ना पाइछ॥ (त्वप्रसादि सवय्ये)
मनुष्य बहुत प्यार से पत्थर पूजता है परन्तु उसका कोई फल प्राप्त नहीं होता है। पत्थर की मूर्ति को प्रसाद, धूप चढ़ाता है पर पत्थर कुछ नहीं खाता, पत्थर पूजने वाला मूर्ख मनुष्य यह नहीं समझता कि इससे क्या प्राप्त हो सकता है?
सूही राग में पंचम पातशाह ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ का फर्मान है–
जिसु पाहणु कउ ठाकुरु कहता॥
ओहु पाहुण लै उस कउ डुबता॥
गुनहगार लूण हरामी॥
पाहण नाव न पारगिरामी॥ (अंग क्रमांक 739)
इसी संदर्भ में भक्त नामदेव जी का गुरुवाणी में फर्मान हैं कि इंसान एक पत्थर को ईश्वर समझ कर, उससे भयभीत होता है और दूसरे पत्थर को बेकार समझ कर उस पर पैर रखे जाते है। जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है–
एकै पाथर कीजै भाउ॥ दूजै पाथर धरीऐ पाउ॥
जे ओहु देउ त ओहु भी देवा॥ कहि नामदेउ हम हरि की सेवा॥ (अंग क्रमांक 525)
इसी तरह से भक्त कबीर जी का गुरुवाणी में फर्मान है–
बुत पूजि पूजि हिंदू मूए, तुरक मूए सिरु नाई॥
ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई॥(अंग क्रमांक 654)
शेष भाग-2 में. . . . .
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