ੴ सतिगुर प्रसादि॥
चलते-चलते. . . .
(टीम खोज-विचार की पहेल)
(अद्वितीय सिख विरासत/गुरबाणी और सिख इतिहास)
(टीम खोज–विचार की पहेल)|
कामागाटा मारू: सिखों के संघर्ष की अद्भुत-अनोखी दास्तान
सवैया॥
देह सिवा बरु मोहि इहै सुभ करमन ते कबहूं न टरो॥
न डरो अरि सो जब जाइ लरो निसचै करि अपुनी जीत करो॥
अरु सिख हौ आपने ही मन को इह लालच हउ गन तउ उचरो॥
न डरो अरि सो जब जाइ लरो निसचै करि अपुनी जीत करो॥
अरु सिख हौ आपने ही मन को इह लालच हउ गुन तउ उचरो॥
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरो॥
(चंडी चरित्र)
इंसान की फितरत होती कि वह हमेशा अच्छे साधन, संपन्न स्थान पर निवास कर, स्वयं को एवं अपने परिवार को सुखी बनाना चाहता है| इस रवायत के अनुसार स्वभाव से ही घुमक्कड़ पंजाबी समुदाय ऐसे उत्तम अवसरों की तलाश में रहते हैं और इसी कारण से अधिकतर पंजाबी दुनिया के अनेक हिस्सों में निवास कर, अपनी मेहनत, मशक्कत से उन देशों में अपना एक स्थान स्थापित कर आन-बान-शान से रह रहे हैं| पंजाबी समुदाय 20 वीं सदी के प्रारंभ के पहले से ही कनाडा में निवासित होना प्रारंभ हो गए थे कारण उस समय में जो पंजाबी, सिख ब्रिटिश फौज में नौकरी करते थे और वहां जब कनाडा जैसे देश में घूम कर, जब पंजाब वापस जाते थे एवं वहां की जीवन शैली, मौसम, आधुनिक सुख-सुविधा की चर्चा करते थे तो प्रत्येक पंजाबी की इच्छा प्रारंभ से ही कनाडा में निवास करने की होती थी|
उस समय कनाडा और हिंदुस्तान दोनों ही देश ब्रिटिशों के अधीन थे अर्थात ऐसा था कि एक देश के नागरिक दूसरे देश में जाकर बस सकते थे| ऐसा माना जाता था कि दोनों ही देश में ब्रिटिश राज है तो आम लोगों का कहना था कि हमें कनाडा जाने से रोका नहीं जाना चाहिए| उस समय कनाडा की जनसंख्या अत्यंत कम थी और रोजगार के अवसर सर्वाधिक थे| इस कारण ज्यादा से ज्यादा लोग कनाडा में निवास चाहते थे, जब बहुत अधिक पंजाबी कनाडा में निवासित होने लगे तो वहां के अंग्रेजों ने इसका विरोध किया और वह चाहते थे कि कनाडा में केवल गोरे लोगों को ही रहने का अधिकार है| उस समय कनाडा प्रशासन ने इस तरह के कड़े कानून बना दिए कि केवल गोरे लोग ही वहां पर निवास कर सकें| इन कानूनों का प्रबल विरोध किया गया और अदालतों में कई केस भी दायर किए गए| इस नस्ल भेद और ऊंच-नीच को कोई भी भारतीय स्वीकार नहीं कर सकता था| उस समय चीनी, जापानी और अन्य विदेशियों पर ऐसी पाबंदियां नहीं थी केवल एशियाई मूल के भारतीय लोगों पर इस तरह की पाबंदियां प्रशासन की ओर से लगाई गई थी|
कामागाटा मारू जहाज एक भाप के इंजन से चलने वाला मालवाहू जहाज था| इस जहाज का मालिक एक जापानी जिसका नाम SHINYEI KISEN GOSHI KAISYA था| इस जहाज का निर्माण सन 1890 ईस्वी. में किया गया था| इस जहाज ने अपनी यात्रा हांगकांग से प्रारंभ कर चीन के शहर शंघाई से होता हुआ, जापान के शहर योकोहामा से होता हुआ ब्रिटिश कोलंबिया के वैंकूवर शहर में पहुंचा था| उस समय हवाई यात्राएं नहीं की जाती थी और केवल समुद्री मार्ग से ही इस तरह की यात्राएं संभव थी| उस समय इस जहाज में 376 यात्री, यात्रा कर रहे थे| इन 376 यात्रियों में से केवल 24 यात्रियों को कनाडा में प्रवेश दिया गया और बचे हुए 352 यात्रियों को पुनः हिंदुस्तान भेज दिया गया था| इन 376 यात्रियों में 340 सिख 24 मुस्लिम और 12 हिंदू समुदाय के यात्री थे और यह सभी यात्री ब्रिटिश इंडिया के सम्मानित नागरिक थे|
उस समय उत्तर अमेरिका महाद्वीप में केवल 2000 के लगभग भारतीय निवास करते थे| उस समय कनाडा में निवास करने वाले गोरे बिल्कुल नहीं चाहते थे कि एशियाई मूल के लोग यहां आकर बस जाए| इसलिए उन्होंने भारतीय लोगों के लिए अप्रवासन (IMMIGRATION) के कानून को इतना जटिल और कठिन बना दिया था कि कोई भी भारतीय उन कानून की शर्तों को पूरा ही ना कर सकें| उस समय ऐसा कठिन कानून बनाया गया कि जो भी भारतीय ब्रिटिश कोलंबिया में प्रवेश करेगा उसके पास काम से कम $200 की रकम होनी चाहिए| (उस समय एक आम भारतीय की कमाई लगभग 10 सेंट तक प्रतिदिन होती थी) और उस समय डाॅलर एवं रुपये की किमत में ज्यादा अंतर भी नहीं था| उस समय एक कठिन और अत्यंत जटिल और कठिन कानून बनाया गया| इस कानून को THE CONTINUOUS PASSAGE ACT कहकर संबोधित किया जाता था| इस कानून के तहत उस समय भारतीय मूल के लोगों ने हिंदुस्तान से ब्रिटिश कोलंबिया का टिकट सीधा खरीदना अवश्यक था कारण जब हिंदुस्तान से जहाज चलता है तो उसे सीधा ब्रिटिश कोलंबिया तक की टिकट मिलती ही नहीं थी| उस समय ब्रिटिश कोलंबिया में निवास करने वाले भारतीयों को वहां के मूलभूत अधिकारों से वंचित रखकर केवल एक बंधुआ मजदूर की तरह उनसे काम करवाया जाता था| सन 1860 ईस्वी. में एक बिल पास किया गया जिसके अंतर्गत भारतीयों को उनके वोटिंग के अधिकार से भी वंचित रखा गया था|
उस समय सरदार गुरदित्त सिंह जी जो कि सूबा पंजाब के ग्राम सरहाली के निवासी थे और सिखों के एक बड़े पढ़े-लिखे उत्तम व्यवसायी थे जिन्होंने अपने सहजोंन्मेष से THE CONTINUOUS PASSAGE ACT कानून के संबंध में अच्छी तरह से जानकारी ली हुई थी उन्होंने इस कानून को तोड़ने के लिए जोखिम उठाकर ब्रिटिश कोलंबिया में जाने का अटल इरादा बनाया कारण उनका सोचता था कि जब हम इतनी कठिन और जोखिम भरी यात्रा करके और सभी प्रकार के कानूनों का पालन कर के ब्रिटिश कोलंबिया में पहुंचेंगे तो निश्चित ही हमें उस देश में प्रवेश दिया जाएगा| उस समय बनाए गए कानून की शर्तों को पूरा करने हेतु उन्होंने कामागाटा मारू नामक एक जहाज (श्री गुरु नानक जहाज) को भाड़े पट्टे 60 हजार डॉलर (लीज) पर ले लिया था कारण इस कानून के तहत जहाज के आवागमन के लिए उस ही देश की कंपनी होनी चाहिए और जहाज भी उसी देश की कंपनी का होना चाहिए| उस समय हिंदुस्तान की कोई भी शिपिंग कंपनी नहीं थी और कोई भी हिंदुस्तानी किसी भी जहाज का मालिक नहीं था| भाई गुरदित्त सिंह ने इस जटिल और कठिन कानून के चैलेंज को स्वीकार कर उन्होंने गुरु नानक नेविगेशन नामक कंपनी का निर्माण कर, जापानी जहाज कामागाटा मारू को भाड़े पट्टे पर लिया था और उस समय कई बड़े व्यवसायियों ने गुरु नानक नेविगेशन कंपनी के शेयर भी खरीदे थे| उस समय सरदार गुरदित्त सिंह इस काले कानून को चैलेंज कर इसे समाप्त करने का अटल इरादा रखते थे|
जब कामागाटा मारू जहाज का सफर प्रारंभ होने वाला था तो उसके दो दिन पूर्व सरदार गुरदित्त सिंह जी को हांगकांग में गिरफ्तार कर लिया था कारण उस समय सरदार गुरदित्त सिंह जी ने कामागाटा मारू जहाज से सफर करने वाले यात्रियों के लिए टिकट बेचना प्रारंभ कर दिया था| उस समय वहां की सरकार और प्रशासन ने ब्रिटिशों के दबाव में आकर सरदार गुरदित्त सिंह जी को अवैध टिकट बेचने के आरोप में गिरफ्तार कर, उनके जहाज कामागाटा मारू को स्थानीय प्रशासन के होमगार्ड के जवानों ने अपने कब्जे में ले लिया था| वहां का प्रशासन इंग्लैंड और कनाडा प्रशासन के आदेश का भविष्य की कार्यवाही के लिए इंतजार कर रहा था परंतु जब वहां से कोई आदेश नहीं आया तो सरदार गुरदित्त सिंह जी को हांगकांग प्रशासन ने 4 अप्रैल सन 1914 ई. को आदेश पारित कर रिहा कर दिया और ऐसा आदेश पारित किया कि कामागाटा मारू जहाज वहां से अपने भविष्य की यात्रा प्रारंभ कर सकता है और उसी दिन कामागाटा मारू जहाज ने अपनी भविष्य की यात्रा प्रारंभ कर दी थी और उस समय सरदार गुरदित्त सिंह ने भारतीय और कनाडा के ब्रिटिश प्रशासन को टेलीग्राम (तार) भेजकर अपनी यात्रा की जानकारी प्रदान कर दी थी ताकि भविष्य में कनाडा पहुंचकर इन यात्रियों के लिए कोई समस्या खड़ी नहीं होनी चाहिए| जब यह जहाज 8 अप्रैल सन 1914 ई. को शंघाई पहुंचा तो इस जहाज पर वहां से 111 और यात्रियों ने प्रवेश लिया था| इसी प्रकार से जब यह जहाज 14 अप्रैल को पोर्ट मौजी नामक स्थान पर पहुंचा तो इस जहाज पर वहां से 86 और यात्री सवार हुए और जब यह जहाज जापान के योकोहामा शहर में पहुंचा तो वहां से इस जहाज में 14 और यात्री सवार हुए थे| इस तरह से इस कामागाटा मारू जहाज में 376 यात्री सवार हो कर अपनी भविष्य की यात्रा के लिए रवाना हो गये|
जब कामागाटा मारू जहाज शंघाई पहुंचा तो जर्मन की प्रेस की ओर से ब्रिटिश प्रेस को खबर दी गई की एक कामागाटा मारू नामक जहाज में 376 भारतीय सवार होकर शंघाई से वैंकूवर की ओर रवाना हुए है| इस खबर को ब्रिटिश प्रेस ने खूब उछला और बड़ा-चढ़कर प्रकाशित किया| इस खबर का मुख्य शीर्षक BOAT LOADS OF HINDUS ON WAY TO VANCOUVER और HINDU INVASION OF CANADA था अर्थात इस जहाज में हिंदू भर-भर कर आ रहे हैं और यह हमारी संस्कृति को बर्बाद कर देंगे| इस तरह की भ्रामक खबरें संपूर्ण ब्रिटिश कोलंबिया महाद्वीप पर तेजी से फैलाई गई थी| उस समय वैंकूवर में दो तरह के समूह हो गए, एक समूह भारतीयों का था जो वहां पर निवास कर रहे थे एवं दूसरा समूह वहां के मूल निवासियों का था जो किसी भी कीमत पर इन भारतीयों को अपने देश पर प्रवेश करना नहीं देना चाहते थे| वहां पर बसे भारतीय इस जहाज पर सवार हिंदुस्तानियों की मदद के लिए एकजुट हो गए थे|
जब यह जहाज 23 मई सन 1914 ई. को वेंकूवर पहुंचा तो BURRARD INLET नामक गोदी (DOCKYARD) में रुका था और स्थानीय प्रशासकीय अधिकारियों ने इस जहाज के अंदर जाकर सभी प्रकार की जांच की ओर पाया कि जहाज के 376 यात्री स्वास्थ्य एवं सकुशल है| उस समय जहाज में यात्रा कर रहे एकमात्र पंजाबी डॉक्टर को उन्होंने वैंकूवर शहर में प्रवेश दिया था कारण वह स्थानीय प्रशासन का खबरी था| शर्तें पूरी करने के पश्चात भी कनाडा प्रशासन ने इन यात्रियों को प्रवेश देने से साफ इनकार कर दिया था इससे जहाज के यात्रियों में अत्यंत रोष उत्पन्न हुआ था| उस समय वहां पर निवास करने वाले भारतीय जानते थे कि कनाडा का प्रशासन इन भारतीयों को प्रवेश नहीं देगा इसलिए भविष्य की कानूनी लड़ाई के लिए यह सभी भारतीय “खालसा दिवान संस्था’ के माध्यम से एकजुट हो गए थे और उस समय जहाज के यात्रियों ने और स्थानीय लोगों ने इंग्लैंड और भारत के ब्रिटिश प्रशासन एवं वाइसराय से भी टेलीग्राम करके गुहार लगाई थी परंतु उसका कोई उपयोग ना हो सका| उस समय कनाडा प्रशासन द्वारा अपने बनाए हुए बहिष्कार वादी कानून का सहारा लेकर जहाज पर अलग-अलग स्थान से सवार यात्रियों के लिए प्रश्न उपस्थित किया और इसी प्रकार से $200 के कानून का भी सहारा लिया गया था| उस समय स्थानीय लोगों ने वहां की अदालत में उत्तम वकिलों की सहायता से मुकदमे भी दायर किये थे| इन कानूनी विवादों के कारण जहाज कामागाटा मारू दो महीने तक कानूनी झमेले में उलझ कर गोदी में खड़ा रहा था| उस समय कनाडा पुलिस और इन यात्रियों के बीच आपस में कहीं झड़पे भी हुई थी कारण स्थानीय पुलिस प्रशासन ने एक सी लिंक जहाज से इस जहाज को टोचन / खींच कर / बांधकर कनाडा की समुद्री हद से बाहर ले जाने की असफल कोशिश की थी| उस समय एक तोपों से लैस जंगी युद्ध पोत कनाडा प्रशासन ने जहाज पर आक्रमण के लिए तैयार किया था| स्थानीय पंजाबी नागरिकों ने उस समय रोष में आकर वैंकूवर शहर को आग के हवाले कर, बड़ा नुकसान पहुंचाने की व्यूह रचना बनाई थी| यदि ऐसा होता तो उसे समय एक अत्यंत बड़ा रक्त-रंजीत संघर्ष होना अटल था| इस संघर्ष को टालने हेतु स्थानीय नागरिक, कनाडा प्रशासन और जहाज के यात्रियों के मध्य एक संयुक्त बैठक हुई तत्पश्चात उस समय की अत्यंत जटिल और खूनी संघर्ष की परिस्थितियों को देखते हुए सरदार गुरदित्त सिंह ने इस जहाज के यात्रियों समेत पुन: भारत की ओर यात्रा करने का निर्णय लिया कारण स्थानीय भारतीय नागरिक भी इस संघर्ष के लिए पूरी तैयारी के साथ एकजुट होकर मर-मिटने को तैयार थे लेकिन सरदार गुरदित्त सिंह नहीं चाहते थे कि उन लोगों की वजह से वहां एक रक्त-रंजीत संघर्ष हो|
इस विवाद के चलते हुए कामागाटा मारू जहाज के केवल 24 यात्रियों को ही कानूनी अप्रवास (IMMIGRATION) दिया गया शेष 352 यात्रियों को कनाडा की फौज ने जबरदस्ती जहाज में बैठकर भारत की ओर रवाना कर दिया था| उस समय वैंकूवर में रहने वाले भारतीयों ने इन सभी यात्रियों को सभी प्रकार की सुविधा प्रदान की थी और जहाज के भाड़ा पट्टे की रकम $60000 को चुकाने के लिए स्थानीय लोगों ने चंदा एकत्र कर उस बहुत बड़ी रकम की अदायगी कर, अपने पंजाबी होने का हक अदा किया था| इस से ज्ञात होता है कि पंजाबी सभ्याचार में जीवन व्यतीत करने वाले लोग, आपस में एक सुदृढ़ भाईचारा रखते हैं और अपने लोगों की मदद करने के लिए कभी भी पीछे नहीं हटते हैं|
दिनांक 26 सितंबर सन 1914 ई को यहां जहाज अपनी वापसी की अत्यंत कठिन यात्रा प्रारंभ कर दी और जब यह जहाज अपनी वापसी की यात्रा कर रहा था तो रास्ते में एक हवाई नामक टापू पड़ता है| इस टापू पर आकर हमारे देश के महान युवा क्रांतिकारी शहीद सरदार करतार सिंह सराबा ने आकर इन यात्रियों को संबोधित कर इन यात्रियों का हौसला बढ़ाते हुए भारत को गुलामी की जंजीरों से आजाद करने के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देकर, इन सभी यात्रीयों के हृदय में देशभक्ति की ज्योत को प्रज्वलित किया था| उस समय जब यह जहाज जापान पहुंचा तो बाबा सोहन सिंह जी भकना (गदर पार्टी के महान क्रांतिकारी) ने भी जहाज के यात्रियों से मुलाकात की थी| जब यह जहाज पुन: कोलकाता के समीप बजबज घाट पर जब पहुंचने वाला था तो एक यूरोपियन नाव पर सवार हथियारबंद सैनिकों ने इस जहाज पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया था| उस समय लगभग 6 महीने की समुद्री यात्रा कर यह जहाज कोलकाता से 17 माइल्स की दूरी पर बजबज घाट पर पहुंचना चाहता था कारण इस जहाज के कुछ यात्री कोलकाता गुरुद्वारे में आश्रय लेकर इस शहर में काम धंधे ढूंढ कर अपनी रोजी-रोटी कमाना चाहते थे एवं उस समय जहाज में सुशोभित ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की बीड़ को सम्मान के साथ हावड़ा स्थित सिंघ सभा गुरुद्वारे में पहुंचाना चाहते थे परंतु स्थानीय ब्रिटिश प्रशासन इन यात्रीयों के लिए एक इनग्रेस नामक अध्यादेश पास कर, इन यात्रीयों को जबरदस्ती रेल में बैठाकर पंजाब भेजना चाहता था| इस कारण से यात्रियों का ब्रिटिश प्रशासन से जोरदार विवाद, झगड़ा और फसाद हुआ और नौबत मारपीट तक पहुंच गई| ब्रिटिश सुरक्षा रक्षकों ने इन यात्रियों पर गोली चला दी थी जिससे 20 यात्री जगह पर शहीद हो गए और 29 यात्री गंभीर रूप से घायल हो गए थे ब्रिटिश प्रशासन ने मनमानी करते हुए 20 लोगों को बिना किसी कारण के शहीद कर दिया था| चश्मदीदों के मुताबिक इन शहीद सिखों की संख्या 75 से भी अधिक थी| शाहिद सिखों का ब्रिटिश पुलिस के द्वारा उसी स्थान पर संस्कार कर दिया गया था| इस हमले के पश्चात भाई गुरदित्त सिंह जी और अन्य सिख पंजाब जाने में सफल हो गए और देश की आजादी के संघर्ष में शामिल होकर जेल चले गए| उस समय पूरी दुनिया प्रथम विश्व युद्ध की दहलीज पर खड़ी थी| उस समय इस घटना की अनुगूंज के कारण पूरे विश्व में अत्यंत रोष प्रकट हुआ कारण उस समय जो सिख सैनिक ब्रिटिश फौज में नौकरी कर रहे थे उन्होंने बगावत कर दी और अपने जीते हुए सभी तमगे वापस कर दिए थे| उस समय कनाडा में जो सिख सैनिक और पूर्व सैनिक निवास कर रहे थे उन्होंने एकत्र होकर ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान किए गए सभी तमगों और प्रमाण पत्रों को वेंकूवर के एक गुरुद्वारे के प्रांगण में आग के हवाले कर, अपना रोष प्रकट किया था| इस असंतोष से ब्रिटिश प्रशासन पूरी तरह से हिल गया था कारण ब्रिटिश सरकार का पूरी दुनिया में नाम खराब हो गया था| उस समय वेंकूवर के प्रशासन ने कई भारतीयों को उच्च पद से हटा दिया था| उस समय कामागाटा मारू जहाज के यात्रियों से बदसलूकी करने वाले ब्रिटिश अफसर हॉकिनसंस को कनाडा में निवास करने वाले हमारे भारतीय मूल के सरदार मेवा सिंह जी लोपोको ने गोली मार कर, उनकी हत्या कर दी थी| जिसके फलस्वरुप भाई मेवा सिंह जी लोपोकों को फांसी की सजा हुई थी और उन्होनें कनाडा की धरती पर प्रथम सिख शहीद होने का मान प्राप्त किया था| इतिहास पर कालिख पोतने वाली इस घटना का एक सकारात्मक पक्ष यह रहा की पूरी दुनिया में और देश में पंजाबी समुदाय ने अपने प्रज्ञाचक्षु को खोलकर, एकजुट होकर देश की आजादी के लिए संकल्प ले चुका था और पूरी दुनिया के पंजाबी समुदाय ने एक मुठ होकर उस समय चल रहे स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में गदर पार्टी की लहर के साथ स्वयं को झोंक दिया था| इन देश भक्त और जांबाज पंजाबियों के संघर्षों के परिणाम स्वरूप 15 अगस्त सन 1947 ई. को हमारे देश को आजादी मिली थी| गुरवाणी का फरमान है–
महला 5॥
आहर सभि करदा फिरै आहरु इकु न होइ॥
नानक जितु आहरि जगु उधरै विरला बूझै कोइ॥
(अंग क्रमांक 965)
इस क्रूर घटना के लिए सन 2008 ईस्वी. में कनाडा के प्रधानमंत्री ने अधिकृत रूप से माफी मांगी थी और जब इतिहास पर कालिख पोतने वाली इस घटना की शताब्दी मनाई गई तो कनाडा प्रशासन ने और वहां के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने अपनी संसद में इस कथित घटना के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगी थी|
सन 1952 ईस्वी में भारत सरकार ने कोलकाता के समीप स्थित बजबज घाट पर कामागाटा मारू जहाज के जो 20 यात्री शहीद हो गए थे उनकी स्मृति में देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कर-कमलों से एक स्मृति स्थल का निर्माण किया| इस स्थान पर प्रत्येक वर्ष को 29 सितंबर के दिवस स्थानीय संगत के द्वारा शहीदों की स्मृति में एक धार्मिक समागम का आयोजन भी किया जाता है| इस क्रूर घटना की 100 वीं वर्षगांठ मनाते हुए वैंकूवर में वहां की गोदी के तट पर सन 2012 ईस्वी. में इस घटना की स्मृति में कामागाटा मारू जहाज के आकार का एक स्मृति स्थल का निर्माण ‘खालसा दीवान सोसायटी’ संस्था के द्वारा किया गया है एवं इस स्मृति स्थल पर 376 यात्रियों के नाम को उकेर कर अंकित किया गया है कारण कनाडा में निवास करने वाले भारतीय हमेशा इस घटना को अपने स्मृति पटल पर रखकर इस घटना में हुए शहीदों को नमन करते हैं|
हमारी युवा पीढ़ी को इस ज्वलंत इतिहास से रुबरु होना अत्यंत आवश्यक है| इस इतिहास में देश भक्ति भी है, हमारी आजादी के संग्राम की समीक्षा भी है, संस्मरण भी है और इन सब के मिले जुले स्वरूप का आत्ममंथन भी है| निश्चित ही इस इतिहास में जैसे स्मृतियों को सहेजने की आत्मीयता है तो उस समय की परिस्थितियों के दर्द की टीस भी है|
उस समय मतदान के अधिकार के लिए और अपने मान-सम्मान के लिए हमने रक्त-रंजीत संघर्ष किया था और वर्तमान समय में हमने अपने मतदान के अधिकार को मजाक बना दिया है| इतिहास के पुराख्यान का अवलोकन करें तो लगातार 900 वर्षों के संघर्ष के पश्चात हमें आजादी मिली है| इस आजादी को प्राप्त करने के लिए हमारे सभी शहीदों को सादर नमन|