कड़ाह-प्रसाद (धियावल) का महत्व

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कड़ाह-प्रसाद (धियावल) का महत्व

कोरोना संक्रमण का प्रादुर्भाव देश में दिन–प्रतिदिन कम होता जा रहा है। संकट के इस समय के पश्चात आत्मिक शांती हेतु गुरुद्वारों में भी रौनक बढ़ने लगी है। जब हम गुरु घर (गुरुद्वारों) में पहुंचकर ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के समक्ष नतमस्तक होकर मत्था टेकते हैं और गुरु जी का आशीर्वाद प्राप्त कर गुरुद्वारे में मिष्ठान के प्रसाद के स्वरूप में मिलने वाले कड़ाह–प्रसाद को प्रसाद के रूप में ग्रहण करना अपने आप में एक रोमांचित और अनोखा अनुभव प्रदान करता है।

गुरुद्वारे में मिलने वाला कड़ाह–प्रसाद एक ऐसा मिष्ठान का प्रसाद है जिसे इंसान ता उम्र सुबह–शाम स्वाद लेकर खा सकता है। कड़ाह प्रसाद एक ऐसा मिष्ठान्न का प्रसाद है, जिसे खाने से इंसान की कभी भी नियत नहीं भरती है। छोटे बच्चों के लिए तो गुरुद्वारों में मत्था टेक कर, कड़ाह प्रसाद का प्रसाद ग्रहण करना, उत्साह और रोमांच से ओतप्रोत किसी त्यौहार के समान होता है। हर छोटे बच्चे का विशेष प्रयत्न होता है कि गुरु घर से प्राप्त होने वाला यह कड़ाह – प्रसाद कम से कम 2 बार उन्हें प्राप्त होना चाहिए। इस कड़ाह–प्रसाद को सभी श्रद्धालुओं में समान रूप से, बिना किसी भेदभाव के वरताया (बांटा) जाता है। बड़े बुजुर्ग जब गुरुद्वारे में अपने हिस्से का कड़ाह–प्रसाद छोटे बच्चों को प्रदान करते हैं तो उन बच्चों और बुजुर्गों में एक असीम–आत्मिय संबंध निर्माण हो जाता है। कड़ाह–प्रसाद को ग्रहण करने के लिए हमेशा अपने दोनों हाथों को आगे बढ़ाना चाहिए। वैसे तो किसी भी ग्रंथ या स्त्रोतों में कहीं भी नहीं लिखा है कि कड़ाह–प्रशाद दोनों हाथों में ग्रहण करना चाहिए परंतु प्रसाद ग्रहण करने वाला श्रद्धालु सिख धर्म के दस गुरुओं, ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ और सिख सेवादारों के प्रति अपने सम्मान को प्रकट करते हुए, हमेशा अपने दोनों हाथों को आगे बढ़ा कर ही कड़ा–प्रसाद ग्रहण करते हैं। यदि आप कड़ाह–प्रसाद लेने के लिए अपने एक हाथ को आगे बढ़ाएंगे तो जो सिख सेवादार कड़ाह–प्रसाद वरताता (बांट रहा) है वो बड़ी ही विनम्रता से आपको निवेदन करेगा कि आप अपना दूसरा हाथ भी कड़ाह–प्रसाद ग्रहण करने के लिए आगे बढ़ाएं और मजेदार बात यह है कि कड़ाह–प्रसाद ग्रहण करने वाला श्रद्धालु इस निवेदन को सहर्ष स्वीकार कर लेता है। कड़ाह प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात आपके शरीर में एक अनोखी ऊर्जा का संचार होता है और एक आत्मिक सुख का अनुभव प्राप्त होता ह। कड़ाह–प्रसाद ग्रहण करने वाला प्रत्येक श्रद्धालु इस प्रसाद की पवित्रता को कायम रखते हुए, इसे इस तरह से ग्रहण करता है कि वो जमीन पर ना गिरे और उसका सेवन सौ प्रतिशत हो ताकि वो गुरु घर के प्रति अपने अगाध श्रद्धा को समर्पित कर सकें।

कड़ाह–प्रसाद की उत्पत्ति–’श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के समय से ही मानी जाती है। कड़ाह–प्रसाद अनमोल गुणों का खजाना है। 6 वीं पातशाही ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के समय में सिख सेवादारों ने उन्हें निवेदन कर कहा था कि गुरु पातशाह जी गुरु दरबार में कड़ाह प्रसाद के अतिरिक्त और दूसरा कोई प्रसाद क्यों नहीं परवान किया जाता है? प्रसाद के रूप में तो अन्य कोई मिष्ठान या फलों का प्रसाद भी वरताया (बांटा) जा सकता है परंतु गुरुद्वारों में और सभी प्रकार के धार्मिक आयोजनों में कड़ाह–प्रसाद ही क्यों वरताया जाता है? उस समय ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने वचन कर उद्बोधित किया था कि इस कड़ाह प्रसाद को बनाते समय जिन वस्तुओं का उपयोग किया जाता है उसका कोई भी अवशेष शेष नहीं रहता है। दूसरे प्रसाद में जैसे केला/संतरे का प्रसाद होगा तो उसके छिलकों को अवशेष के रूप में फेंक दिया जाएगा और वो पैरों में भी आते रहेंगे।

उस समय 6 वीं पातशाही ‘श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब जी’ ने वचन किये थे कि जब हम कड़ाह – प्रसाद का निर्माण करते हैं तो किसी भी वस्तु का अवशेष शेष नहीं होता है अर्थात इस मानव जीवन में तुम्हारे स्वयं में अच्छे गुणों का खजाना होना चाहिए कोई गुण ऐसा ना हो जिसे अवशेष के रूप में त्यागना पड़े। ऐसा नहीं होना चाहिए कि तुम अपने जीवन में नाम–वाणी से जुड़कर बंदगी तो करो परंतु तुम्हारे अंदर का क्रोध, लालच, झूठ और अहंकार जीवित रहे, स्वयं की तामसिक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण होना अत्यंत आवश्यक है।

कड़ाह प्रसाद को बनाने हेतु उपयोग में लाए जाने वाले पदार्थों को स्वयं को मिटाना पड़ता है, स्वयं को अर्पित करना पड़ता है। इस कड़ाह–प्रसाद के निर्माण में तीन वस्तुओं का महत्वपूर्ण योगदान है अर्थात प्रथम गेहूं जो अपना शीश कटवा कर, चक्की में पीस कर, आटे के रूप में स्वयं को समर्पित करती है दूसरा गन्ना जो स्वयं को रस में परिवर्तित करने हेतु घानी में पिसवा कर, फिर कढ़ाई में उबालकर, स्वयं को समर्पित कर, शक्कर का रूप धारण करता है और ठीक उसी प्रकार शुद्ध घी को बनाने के लिए जब दूध को जमा कर, घोंटकर, और उसका मक्खन निकाल कर उसे जब कढ़ाई पर उबालकर जब वो स्वयं को समर्पित करता है तो घी का स्वरूप प्राप्त होता है अर्थात कड़ाह–प्रसाद बनाने हेतु उपयोग में लाए जाने वाली इन तीनों वस्तुओं ने स्वयं को समर्पित कर अपने विशेष रूप और गुण धर्म को प्राप्त किया है। जब इन तीनों के मिश्रण से धियावल रूपी कड़ाह–प्रसाद तैयार होता है तो उसे गुरु के समक्ष रख कर अरदास की जाती है की है अकाल पुरख वाहिगुरु जी–

अनेक प्रकार भोजन बहू किये बहु व्यंजन मिष्ठाये॥

करि पाक शाल सोच पवित्रा हुण लाओ भोग हर राये॥

उसके उपरांत जब इस कड़ाह–प्रसाद को कृपाण का अंश भेंट किया जाता है तो यह कड़ाह – प्रसाद फिर कड़ाह प्रसाद न रहकर उस अकाल पुरख वाहिगुरु के महा प्रसाद के रूप में परिवर्तित हो जाता है।

‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने इस कड़ाह–प्रसाद को ‘धरो उपतालो लई कढ़ाई’ के महावाक्य अनुसार धरो उपतालों से इसे उत्पन्न किया था।

हम सभी नानक नाम लेवा संगत (पाठकों) को गुरु घर में उपस्थित होकर ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ को नतमस्तक होकर, मत्था टेककर मिष्ठान के प्रसाद के रूप में कड़ाह–प्रसाद को ग्रहण कर उस अकाल पुरख वाहिगुरु जी की खुशियों को प्राप्त करना चाहिए।

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