ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
चलते–चलते. . .
(गुरु श्री तेग बहादर साहिब जी के 346 शहीदी गुरु पर्व पर विशेष)–
इंसानियत की जमीर के रखवाले: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी।
वाहिगुरु जी का ख़ालसा, वाहिगुरु जी की फतेह।
सिख धर्म के नौवें गुरु अर्थात् नौवीं पातशाही ‘धर्म की चादर, श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ का 346 वां शहीदी पर्व पर “टीम खोज–विचार” की और से प्रस्तुत लेख को प्रकाशित किया जा रहा है।
संपूर्ण विश्व में सिख धर्म को सबसे आधुनिक मानवतावादी धर्म के रूप में निरूपित किया जाता है। ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के इन सिखों ने विश्व में अपनी सेवा, सिमरन, त्याग, इंसानियत और देशभक्ति के जज्बे से अपनी एक अलग विशेष पहचान ‘विश्व पटल’ पर निर्माण की है।
इस शहीदी गुरु पर्व का वर्तमान चल रहे वर्ष में विशेष महत्व है कारण अप्रैल सन् 2021 ई. में मनाया जाने वाले गुरु जी के 400 वें प्रकाश पर्व को हम सभी संगत संपूर्ण वर्ष भर गुरु जी के स्वर्णिम इतिहास का स्मरण कर, जन–जाग्रति कर मना रहे है। यदि हम इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो आज से 100 वर्ष पूर्व अर्थात सन् 1921 ई. में भी यह गुरु पुर्व 300 साल के रूप में आया था परंतु उस समय आज के आधुनिक युग की तरह से पूरी दुनिया की संगत को एकजुट कर शताब्दियां नहीं मनाई जाती थी। इतिहास गवाह है कि 20 फरवरी सन् 1921 ई. को ‘साका ननकाना’ साहिब हुआ था। उन दिनों में सिख कौम महंतों से गुरुद्वारों को आज़ाद कराने के लिए अपनी पूरी शक्ति से संघर्ष कर रही थी। यदि हम 200 वर्ष और पीछे जाते हैं तो सन् 1821 ई. में महाराजा रणजीत सिंह जी का राज्य था और उस समय सिख राज्य अपने अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष कर रहा था। उस समय प्रकाश पर्व तो मनाया गया था परंतु 200 वर्ष को शताब्दी पर्व के रूप में नहीं मनाया गया था। यदि हम 300 वर्ष और पीछे जाते हैं तो उस समय बाबा बंदा सिंह बहादुर जी की शहीदी को मात्र 5 वर्ष ही हुए थे। उस समय सिख पंथ अनेक कठिनाइयों का सामना कर रहा था। सिख योद्धाओं को घोड़ों की पीठ पर बैठकर ग़िरफ्तारल में रात गुजारना पड़ रही थी। उस समय भी नौवीं पातशाही ‘धर्म की चादर गुरु, श्री तेग बहादुर जी’ का प्रकाश पर्व नहीं मनाया जा सका था।
इस वर्ष मनाये जाने वाले गुरु पर्व एवं शहीदी पर्व का विशेष महत्व इसलिए भी है कि प्रथम पातशाही ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने अपनी चार उदासी यात्राओं में 36000 माइल्स की यात्रा की थी और इन यात्राओं के माध्यम से जगत का कल्याण किया था। इसके पश्चात नौवीं पातशाही ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने जगत कल्याण के लिए सबसे अधिक भ्रमण किया था। गुरुवाणी में अंकित है–
जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरु सो थानु सुहावा राम राजै॥
(अंग क्रमांक 450)
अर्थात जिस–जिस स्थान पर सतगुरु जी के चरण पड़े वह स्थान अकाल पुरख की कृपा से ‘सुहावा’ अर्थात स्वर्ग के समान है।
चौथी पातशाही ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ ने अपने मुखारविंद से उच्चारित वाणी में सिख गुरुओं के प्रकाश पर्व के संबंध में अंकित किया है–
सा धरती भई हरिआवली जिथै मेरा सतिगुरु बैठा आइ॥
से जंत भए हरीआवले जिनी मेरा सतिगुरु देखिआ जाइ॥
धनु धंनु पिता धनु धंनु कुलु धनु धनु सु जननी जिनि गुरू जणिआ माइ॥
(अंग क्रमांक 310)
अर्थात वह माता है, वह पिता है जिसने गुरु को जन्म दिया और वह स्वर्णिम समय 5 बैसाख सन् 1678 ई. का दिवस था। (1 अप्रैल सन् 1621 ई. दिन रविवार) अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) के इस सौभाग्य भरे समय में नौवीं पातशाही ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ का प्रकाश हुआ था।
प्रकट भए गुरु तेग बहादुर सकल सृष्टि पर ढापी चादर॥
गुरु जी के प्रकाश पर जब पिता छठे गुरु ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने बाल तेग बहादुर को अपनी गोदी में उठाया और नतमस्तक होकर पास ही खड़े हुए भाई बिधि चंद से कहा था यह बालक अलौकिक होगा, भविष्य में यह बालक ‘दिन के रक्षक होंगे और बड़े–बड़े संकटों का नाश कर देंगे। यह निर्भय बालक दुश्मनों को जड़ से उखाड़ के रख देंगे। जिसे इस तरह से अंकित किया गया है
दिन रथ संकट हरै॥ एह निरभै जर तुरक उखेरी॥
सर्व कला समर्थ श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का नामकरण कर ‘श्री हरगोविंद साहिब जी’ ने स्वयं तेग बहादुर नाम रखा था। तेग बहादुर शब्द फारसी भाषा से प्रेरित है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में अंकित है–
जा तुधु भावै तेज वगावहि सिर मुंडी कटि जावहि॥
(अंग क्रमांक 145)
तेग का अर्थ होता है कृपाण या खड़ग।
देग तेग जग में दो चलें॥
अर्थात आप जी तेग के साथ–साथ अत्यंत बहादुर भी होंगे। बचपन में आपको पूरे परिवार से बहुत लाड़ प्यार मिला था और आपको आप जी की बड़ी बहन बीबी वीरो जी बहुत ही प्यार करती थी।
आश्चर्य की बात है कि गुरु जी ने बाल अवस्था में कभी भी रो कर दूध नहीं मांगा था। बाल तेग बहादुर ने अपनी बाल लीलाओं से सभी का मन मोह लिया था। एक दिन आप खेलते–खेलते ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ की गोद में जाकर बैठ गए और गुरु जी के पीरी वाले गातरे (कृपाण को संजो कर रखने वाले कपड़े से बने हुए पट्टे को गातरा शब्द से संबोधित किया जाता है) को कस कर पकड़ लिया था। जब गुरु जी ने बाल तेग बहादुर से गातरा छुड़वाने का प्रयत्न किया तो आप जी ने उसे और कस कर पकड़ लिया था। उस समय ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने भाव–विभोर होकर कहा था कि पुत्तर जी अभी समय नहीं आया है, जब समय आएगा तो आपको तेग चलानी भी पड़ेगी और ख़ानी भी पड़ेगी।
एकांत प्रिय बाल तेग बहादुर जी जब बड़े भ्राता भाई गुरदित्ता जी के परिणय बंधन में शामिल हुए तो उस समय आप जी ने अपने सुंदर वस्त्र और आभूषण एक गरीब बालक को उतार कर दे दिए थे। ‘श्री गुरु तेग बहादुर जी’ ने अपनी समस्त शिक्षा–दीक्षा रमदास में बाबा बुड्ढा जी से ग्रहण की थी। आप जी को गुरमुखी, संस्कृत, फारसी भाषा का उत्तम ज्ञान था। 6 वर्ष तक आप जी ने बाबा बुड्ढा जी से शिक्षा ग्रहण कर गुरुवाणी को कंठस्थ किया था। भाई गुरदास जी ने भी आपको शिक्षा प्रदान की थी। बाल तेगबहादुर ने भाई गुरदास जी से ब्रजभाषा के अतिरिक्त अन्य कई भाषाओं का भी ज्ञान प्राप्त किया था। साथ ही आपने शस्त्र विद्या और घुड़सवारी की भी शिक्षा भाई गुरदास जी के निरीक्षण में सिखी थी। आपको भाई गुरदास जी ने शस्त्र कला और युद्ध कला में भी निपुण किया था। आप जी ने गुरु घर के रबाबी भाई बाबक जी से उत्तम गुरमत संगीत का ज्ञान प्राप्त किया था। ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को मृदंग बजाने में महारत हासिल थी। साथ ही आप जी ने गुरमत संगीत के 30 रागों का गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया था एवं गुरमत संगीत के 31 वें राग, राग जै–जै वंती का आप जी ने अविष्कार भी किया था।
बाल तेग बहादुर की बाल्यावस्था में ही उनके भ्राता बाबा अटल जी अकाल चलाना (स्वर्गवास) कर गए थे। उसी समय में आपकी दादी जी माता गंगा जी का भी अकाल चलाना (स्वर्गवास) कर गई थी। जब आप 8 वर्ष की आयु के थे तो 13 जनवरी सन् 1629 ई. को ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के सुपुत्र बाबा श्री चंद जी भी ज्योति ज्योत समा गये थे। बाबा श्री चंद जी जो कि सारी उम्र बाल्यावस्था में रहे जिनकी आयु 135 वर्ष से भी अधिक थी और आप जी का बाल तेग बहादुर जी से अत्यंत निकट का स्नेह था। बाल तेग बहादुर जी भी बाबा श्री चंद जी का अत्यंत आदर–सत्कार करते थे। जब बाल तेग बहादुर जी की आयु 10 वर्ष की थी तो 17 नवंबर सन् 1631 ई. में बाबा बुड्ढा जी अकाल चलाना (स्वर्गवास) कर गये थे। बाबा बुड्ढा जी का सिख इतिहास में अत्यंत मान–सम्मान था। आप जी दरबार साहिब अमृतसर के प्रथम हेड ग्रंथि मनोनीत किए गए थे। इन सभी दुखद प्रसंगों के कारण ‘त्याग की मूरत बाबा तेग बहादुर जी’ की विस्मय बोध युक्त जीवन यात्रा वैराग से अभिभूत हो गई थी। गुरु जी ने अपनी रचित वाणीयों को अत्यंत वैराग भाव से रचित किया था। आप जी की वैरागमयी वाणी इस तरह से अंकित है
चिंता ता की कीजिऐ जो अनहोनी होइ।
इहु मारगु संसार को नानक थिरु नहीं कोइ।
(अंग क्रमांक 1429)
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने 14 वर्ष की आयु में करतारपुर के युद्ध में मुगल सेनाओं के विरुद्ध लड़ते हुए अद्भुत युद्ध कौशल का परिचय दिया था। आप जी ने अपने नाम तेग बहादुर जी के विशेषण अनुसार तेग के धनी के रूप में अर्थात तेग बहादुर के रूप में प्रस्थापित हो चुके थे।
11 अगस्त सन् 1664 ई. को आप जी को नौवें गुरु के रूप में गुरता गद्दी पर विराजमान किया गया था। गुरता गद्दी के समय में उठे हुए विवाद को आप के परम भक्त मक्खन शाह लुबाना ने गुरता गद्दी पर आपके हक के लिए संगत को सबूत प्रदान किया था।
22 नवंबर सन् 1664 ई. को आप जी ने बाबा–बकाला नामक स्थान से लोक–कल्याण हेतु एवं धर्म के प्रचार–प्रसार हेतु अपनी धार्मीक यात्राओं को प्रारंभ किया था। आप जी ने देश के विभिन्न प्रांतों की यात्राएं की थी। विशेष रूप से सुबा पंजाब और हरियाणा में आप जी ने यात्राएं कर सिखी के बूटे को प्रफुल्लित किया था। आप जी ने बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड होते हुए आसाम तक की यात्रा की थी। साथ ही साथ आप जी उड़ीसा, दिल्ली, हरियाणा के मार्ग से होते हुए पुनः पंजाब में पधारे थे। गुरु जी द्वारा आयोजित यात्राएं धर्म प्रचारप्रसार के लिए तो थी ही अपितु आप जी ने इन यात्राओं के माध्यम से अनेक आध्यात्मिक’ सामाजिक, आर्थिक उन्नयन और मानव जाति के कल्याण के लिए अनेक रचनात्मक कार्यों को अंजाम दिया था। आप जी ने इन यात्राओं के माध्यम से अंधविश्वास, रूढ़ियों की आलोचना कर नए आदर्शों को प्रस्थापित किया था। आप जी ने इन यात्राओं के माध्यम से अनेक रोगियों को रोग से मुक्त किया था। आप भी उत्तम वैद्य और आयुर्वेद चिकित्सक थे। जहां–जहां भी आप जी गये उन स्थानों पर लोक–कल्याण हेतु धर्मशालाएं बनाई। कई कुएं खुदवाकर स्वच्छ पीने के पानी का इंतजाम किया था। आप जी ने अपने जीवन में अनेक परोपकार के कार्य किए थे। आप जी उत्तम वास्तु शिल्पकार थे, आप जी ने 19 जून सन् 1665 ई. को ग्राम सहोटा के समीप ऊंचे टीले पर मोहरी गड्ड (नींव का पत्थर) रखकर चक नानकी (श्री आनंदपुर साहिब जी) नगर का निर्माण किया था। उस समय में इस नगर की रचना अपने आप में वास्तुशिल्प का अनोखा अविष्कार थी।
उस समय के हुक्मरान जुल्मी बादशाह औरंगज़ेब की हठधर्मिता थी कि उसे अपने धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म का वजूद मंजूर नहीं था। औरंगज़ेब ने सभी आम जनता को इस्लाम धर्म स्वीकार करने का सख्त आदेश दे दिया था। उस समय के आदेशानुसार इस्लाम स्वीकार करो या मृत्यु को गले लगा लो, इस आदेश का जोर–जुल्म से पालन किया जा रहा था। ज़बरजस्तदस्ती तलवार की धार पर लोगों को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा रहा था। इससे अन्य धर्म के लोगों का जीवन अत्यंत कठिन हो गया था। उस समय औरंगज़ेब के अत्याचार से पूरे देश में त्राहित्राहि मच गई थी। उस समय कश्मीर के ब्राह्मणों ने पंडित कृपाराम जी के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल के रूप में गुरु जी से मिलकर जुल्मी औरंगज़ेब से बचाने के लिए गुहार लगाई थी। उस समय गुरु जी ने वचन किए कि यदि कोई महापुरुष शहादत देगा तो हिंदू धर्म को बचाया जा सकता है। निकट खड़े बाल गोविंद राय जी ने उस समय केवल 9 वर्ष 6 महीने की आयु की अवस्था में अपने पिता गुरु श्री तेग बहादुर साहिब जी को वचन किए थे कि पिताजी इस समय आप से बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है? गुरु जी ने कश्मीरी पंडितों के माध्यम से उस समय के हुक्मरान औरंगज़ेब को सूचना भिजवाई थी कि यदि ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने इस्लाम कबूल कर लिया तो हम सभी भी अपना धर्म परिवर्तन कर लेंगे।
जुल्मी औरंगज़ेब ने गुरु जी की ग़िरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए थे। परंतु गुरु जी स्वयं अपने चुनिंदा सेवादार साथियों सहित दिल्ली की और प्रस्थान कर गए थे।
गुरु जी और उनके साथी भाई सती दास जी, भाई मती दास जी एवं भाई दयाला जी को मुगल सैनिकों ने ग़िरफ्तार कर अनेक प्रकार की शारीरिक यातनाएं दी थी।
9 नवंबर सन् 1675 ई. को दिल्ली के चांदनी चौक में भाई सती दास जी ने जब इस्लाम धर्म स्वीकार करने से इंकार कर दिया तो उन्हें रुई में लपेट कर जिंदा जलाया गया था। भाई सती दास जी ने जुल्म के खिलाफ लड़ते हुए हंसते हंसते शहादत का जाम पिया था। 10 नवंबर सन् 1675 ई. को इसी तरह भाई मती दास जी को भी इस्लाम न कबूल करने के कारण बांधकर शरीर के बीच से आरे से चीर कर दो टुकड़े कर दिए थे। भाई मती दास ने हंसते हंसते शहीद का जाम पिया था। अपनी अंतिम सांस तक आप जपु जी साहिब जी का पाठ करते रहे थे। 10 नवंबर सन् 1675 ई. को जुल्मी मुगल सेना ने भाई दयाला जी को एक बड़े बर्तन में पानी डालकर उबालकर शहीद कर दिया था। भाई सती दास जी एवं भाई मती दास जी दोनों सगे भाई थे। यह दोनों भाई और साथ ही भाई दयाला जी गुरु जी के परम–श्रद्धालु और हमेशा साथ में रहने वाले अत्यंत प्रिय निकटवर्ती साथी थे। भाई सती दास जी और भाई मती दास जी के परदादा भाई परागा जी छठे गुरु हरगोविंद साहिब जी के प्रमुख सेनापति थे और उन्होंने मुगलों से युद्ध कर मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति भी दी थी।
11 नवंबर सन् 1675 ई. को (वर्तमान समय से 346 वर्ष पूर्व) ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के समक्ष समय के हुक्मरानों ने तीन शर्तों को रखा था। कोई करामत दिखाओ, या इस्लाम धर्म को कबूल कर लो और यदि दोनों शर्तो को मानने को तैयार नहीं हो तो मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ। ऐसे कठिन समय में पूरे देश की आंखें गुरु जी के फैसले पर टिकी हुई थी। गुरु जी ने इंसानियत की ज़मीर को जिंदा रखने के लिए स्वयं की शहादत का फैसला लिया था। सर्व कला संपूर्ण ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा चाहे जो करामत दिखा सकते थे परंतु इंसानियत को जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने का संदेश देने के लिए आपके द्वारा लिया गया फैसला इस पूरे मुल्क की तकदीर बदलने वाला था। विश्व के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण मौजूद नहीं है कि किसी दूसरे के धर्म को बचाने हेतु स्वयं की शहादत को अर्पित कर देना। आप जी के द्वारा इंसानियत के ज़मीर को नंगा होता हुआ देखा नहीं गया था। इसलिए अपनी शहादत की चादर से आप जी ने इंसानियत के ज़मीर को ढककर इंसानियत अस्मत को बेआबरु होने से बचा लिया था। जिसे एक कवि ने इस तरह से शब्दांकित किया है
तेग बहादुर के चलत भयो जगत में शोक॥
है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक॥
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की शहीदी से पूरे जगत में शोक की लहर फैल गई थी और दुनिया में हाहाकार मच गया था। परंतु धरती तो धरती स्वर्ग लोक में भी गुरुजी की शहादत की जय जयकार गूंज उठी थी।
उस समय गुरु जी के परम भक्त भाई लक्खी शाह बंजारे ने गुरु जी के धड़ का संस्कार अपने घर में आग लगाकर किया था। वर्तमान समय में इस स्थान पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की स्मृति में गुरुद्वारा रकाबगंज की विलोभनीय इमारत दिल्ली में सुशोभित है। भाई जैता जी ने मुगल सैनिकों की आंख में धूल झोंक कर गुरु जी के शीश को लेकर श्री आनंदपुर साहिब की और प्रयाण किया था। उस समय ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ ने भाई जैता जी को ‘रंगरेटा, गुरु का बेटा’ की उपाधि से सुशोभित कर सम्मान किया था।
इस दुनिया में गुरु साहिब के दर्शाए मार्ग पर चलकर ही अमन और शांति कायम हो सकती है। सत्ता का गुरूर और जोर–जुल्म से आज तक कोई विजय प्राप्त नहीं कर सका है। अंत में इंसानियत के ज़मीर के रक्षक ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की पावन, पुनीत और पवित्र 346 वीं शहादत को समर्पित चंद पंक्तियां–
तिमिर घना होगा तमा लंबी होगी।
पर तमस से विहान रुका है क्या?
ज्ञान के विहान का विधान रुका है क्या?
इंसानियत की ज़मीर का पहरेदार रुका है क्या?
बाहुबल के दम पर धर्म का अवसान हुआ है क्या?
मिट गए मिटाने वाले गुरुओं के ज्ञान के सम्मुख,
शमशीर के वार से धर्म का विहान रुका है क्या?
ऐसे महान ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की महान शहादत को सादर नमन!
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