अमर शहीद भाई दयाला जी
पुरातन ऐतिहासिक स्रोत भटवईयां मुल्तानी के अनुसार, भाई दयाल दास जी मुल्तान के जिला मुजफ्फरगढ़, तहसील परगना, अलीपुर के निवासी थे। वह जाति से चंद्रवंशी भारद्वाज पवार बीजेकै (बंजारे व्यापारी) थे। उनके परदादा का नाम भाई मूला जी, दादा जी का नाम भाई बल्लू जी, और पिता का नाम भाई माई दास जी था। भाई माई दास जी का परिवार भरा-पूरा था और उस समय इस प्रतिष्ठित परिवार को शाही परिवारों में से एक माना जाता था। उनके 11 सुपुत्र थे, जिनके नाम इस प्रकार थे: जेठा जी, दयाल दास जी, मणीराम जी, दान सिंह जी, अमरचंद जी, रूपचंद जी, जगत सिंह जी, सोहन चंद जी, लेहना जी, राय सिंह जी, और हरि सिंह जी। इन 11 भाइयों में से भाई अमरचंद जी का बाल्यावस्था में ही देहांत हो गया था। उस समय उनके चाचा और परिवार के सदस्य भाई अमरचंद जी की फूल रूपी अस्थियों को हरिद्वार में गंगा जी में प्रवाहित करने के लिए गए थे। इसके ऐतिहासिक दस्तावेज वहां के भटवईयां पंडित परिवार में आज भी उपलब्ध हैं।
जब ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ अपनी उदासी यात्राओं के दौरान मुल्तान गए, तो भाई दयाल दास जी के बुजुर्ग उनके सान्निध्य में आए और गुरमत की शिक्षाओं को ग्रहण कर गुरमत के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करने लगे। समयानुसार, जब ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ की देखरेख में दरबार साहिब श्री अमृतसर के सरोवर का निर्माण कार्य चल रहा था, तब इस परिवार ने लगातार अपनी सेवाएं समर्पित कीं। इसी प्रकार, ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ के समय में भी इस परिवार ने अपनी अनमोल सेवाएं निरंतर प्रदान कीं। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, भाई मूला जी ने ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ के परिणय बंधन (आनंद कारज) में बाराती के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। गुरमत के प्रारंभ से ही यह संपूर्ण परिवार गुरु चरणों से जुड़कर अपनी महान सेवाएं निरंतर प्रदान करता रहा है।
शहंशाह शाहजहां की मृत्यु के पश्चात गुरु घर के विरोधियों के षड्यंत्र पुनः जोर पकड़ने लगे। बाज पकड़ने और घोड़े पकड़ने जैसी साधारण घटनाओं को तूल देकर इन विवादों को युद्धों में परिवर्तित कर दिया गया। सत्ता के नशे में चूर मुगल सेना ने गुरु पातशाह जी पर चार बार आक्रमण किए। पहला युद्ध सन् 1628 ई. में अमृतसर साहिब में हुआ। इस युद्ध में भाई मूला जी ने अपने अद्वितीय युद्ध कौशल और पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए दुश्मन को पराजित करने में अपना योगदान देकर, गुरु साहिब की कृपा प्राप्त की। गुरु साहिब का चौथा और अंतिम युद्ध सन् 1635 ई. में मेहराजपूर में हुआ। इन चारों युद्धों में गुरु पातशाह जी ने लगातार विजय प्राप्त की, क्योंकि ये केवल युद्ध नहीं, बल्कि धर्मयुद्ध थे। इन युद्धों में गुरु पातशाह जी के सिखों ने अद्वितीय युद्ध कौशल का परिचय देते हुए अपने स्वाभिमान, आत्मविश्वास, आत्मगौरव और देशभक्ति की भावना का प्रदर्शन किया। चौथे युद्ध में भाई मूला जी और उनके भाइयों ने वीरगति प्राप्त कर गुरु साहिब की कृपा प्राप्त की। ऐसे शुरवीर सिखों के सम्मान में गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में अंकित है-
जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ||
सिरु धरि तली गली मेरी आउ||
इतु मारगि पैरु धरीजै||
सिरु दीजै काणि न कीजै||
(अंग क्रमांक 1412)
भाई दयाला जी के पिताजी, भाई माई दास जी, ने स्वयं भाई दयाला जी और भाई मणीराम जी को ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ की सेवा में समर्पित किया। कुछ समय तक भाई माई दास जी गुरु चरणों में रहकर पुनः मुल्तान लौट गए। इस दौरान भाई दयाल जी और भाई मणीराम जी ने अपनी शिक्षा-दीक्षा, शस्त्र विद्या और गुरबाणी का अध्ययन कर ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ के सान्निध्य में सेवा की। बाद में, जब ‘श्री गुरु हर कृष्ण साहिब जी’ ने दिल्ली यात्रा की, तो यह परिवार उनके साथ दिल्ली में भी उपस्थित रहा। इसके पश्चात, इस परिवार ने बाबा बकाला में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की सेवा में योगदान दिया।
जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने दिल्ली के चांदनी चौक में शहादत प्राप्त की, तो भाई दयाला जी का पूरा परिवार मुल्तान छोड़कर ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ की सेवा में ‘श्री आनंदपुर साहिब’ में निवास करने आ गया। उस समय मुल्तान पर अफगान और मुगल आक्रांताओं के निरंतर आक्रमण हो रहे थे। इस कारण से सभी नानक नाम लेवा संगत ‘श्री आनंदपुर साहिब’ और उसके आसपास के क्षेत्रों में बसने के लिए मजबूर हो गई।
जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने इस धरती का भार कम करने और धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु पूर्व दिशा की यात्राओं का आरंभ किया, उस समय भाई मतिदास जी, भाई सतीदास जी का परिवार, भाई दयाला जी का परिवार और ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ के मामा जी, मामा जय राम जी का परिवार भी इन यात्राओं में सम्मिलित था। इन यात्राओं के दौरान माता नानकी जी और माता गुजर कौर भी अपनी सेवाएं अर्पित कर रही थीं। गुरु साहिब जी जब इन यात्राओं के मध्य अपने सिखों को संदेश भेजने के लिए सासाराम, पटना, मुंगेर आदि स्थानों पर हुकमनामे प्रेषित करते थे, तो यह हुकमनामे भाई दयाला जी के हाथों ही भेजे जाते थे। उस समय भाई दयाला जी को इन क्षेत्रों का धर्म प्रचारक नियुक्त किया गया था।
गुरु साहिब द्वारा प्रेषित हुकमनामों में स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया था कि भाई दयाला जी द्वारा दी गई सूचनाओं को गुरु साहिब का आदेश मानकर पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। आधुनिक शब्दों में इसे पावर ऑफ अटॉर्नी (अधिकार पत्र) कहा जा सकता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि भाई दयाला जी गुरु साहिब के अत्यंत विश्वसनीय और श्रद्धावान सिखों में से एक थे। अपने जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गुरु घर की सेवा में समर्पित किया। निस्संदेह, भाई मतिदास जी, भाई सतीदास जी और भाई दयाला जी ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के अत्यंत प्रिय और निकटतम सिखों में से थे।
जब कश्मीरी पंडितों की फरियाद/प्रार्थना पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने शहादत का मार्ग चुना और दिल्ली की ओर प्रस्थान किया, तो उनकी गिरफ्तारी मलकपुर रंगड़ा नामक स्थान पर हुई। (कुछ ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, गुरु साहिब की गिरफ्तारी का स्थान आगरा या दिल्ली भी माना जाता है।) उस समय गुरु साहिब जी के साथ भाई जैता जी, भाई गुरदित्ता जी, भाई निगाहाया जी, भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी और भाई दयाला जी भी उपस्थित थे।
गुरु साहिब जी ने भाई जैता जी को पहले ही दिल्ली भेज दिया था ताकि दिल्ली के शासकों की गतिविधियों और योजनाओं की जानकारी मिल सके। मलकपुर रंगड़ा में गुरु साहिब को लगभग एक महीने तक कैद में रखा गया, जहां उन्हें असहनीय यातनाएं और प्रलोभन दिए गए। एक महीने बाद जब बादशाह औरंगजेब का आदेश आया, तब गुरु साहिब जी, भाई मतिदास जी, भाई सतीदास जी और भाई दयाला जी को गिरफ्तार कर दिल्ली ले जाया गया।
ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, उस समय दिल्ली में गुरु साहिब के सिखों में भाई जैता जी के ताऊ जी भाई आज्ञाराम जी, भाई जैता जी के पिता जी भाई सदानंद जी, भाई नानू जी, भाई उदय सिंह राठौड़, भाई जैता जी, भाई लक्खी शाह बंजारा, भाई गुरुदित्ता जी और भाई निगाहाया जी उपस्थित थे। दिल्ली की दिल वाली गली में भाई जैता जी का निवास स्थान हुआ करता था| इसी स्थान पर भाई कल्याणा जी की सराय थी और इस स्थान पर ही इन सारे सिखों ने भविष्य की व्यूह रचना की थी और इस व्यूह रचना अनुसार ही गुरु साहिब की देह की सेवा-संभाल की गई थी|
भाई दयाला जी गुरु घर में कारोबारी दीवान के रूप में, भाई मती दास जी हाजिरी दीवान के रूप में, और भाई सती दास जी मुख्य लेखक के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे थे। इन तीनों गुरु के सिखों ने अपने-अपने दायित्वों को श्रद्धा, समर्पण और प्रेमाभाव से निभाकर अपने सिक्खी सिद्क को सफल किया। इनके परिवार भी इन्हीं सेवाओं में पूर्ण निष्ठा से समर्पित थे। इन परिवारों को ‘दर्शनी हजूरी सिख’ अर्थात गुरु साहिब के साथ हमेशा रहने वाले सिख परिवार के रूप में संबोधित किया जाता था।
ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, भाई माई दास जी के सुपुत्र भाई मणी सिंह जी थे, जिनके पुत्र चित्तर सिंह, विचित्तर सिंह, उदय सिंह, अनेक सिंह, अजब सिंह, अजायब सिंह, गुरबख्श सिंह, भगवान सिंह, बलराम सिंह और भाई देशा सिंह जी थे। इन सभी गुरु सिखों ने गुरु घर की सेवा में रहते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। भाई देशा सिंह जी और भाई मणी सिंह जी ने दशम पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के कर-कमलों से खंडे-बाटे का अमृत ग्रहण किया।
इसी प्रकार, भाई दयाला जी के पुत्र भाई मथुरा जी, भाई कल्याणा जी, और भाई धर्मचंद जी ने भी दशम गुरु साहिब जी के कर-कमलों से अमृत पान किया और विभिन्न युद्धों में वीरगति प्राप्त की।
पुरातन भटवईयां लिखित इतिहास के अनुसार, मघर सुदी पंचमी संवत 1732 (10 नवंबर 1675 ई.) को क्रूर मुगल सेना ने भाई दयाला जी को एक बड़े बर्तन में पानी डालकर उबालकर शहीद कर दिया। अमर शहीद भाई मती दास जी, भाई सती दास जी, और भाई दयाला जी गुरु जी के परम श्रद्धालु एवं अत्यंत प्रिय साथी थे। इन्होनें अपने आध्यात्मिक बल और ध्यान की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर, अपने जीवन की आहुति दी। इन तीनों सिखों ने शहादत के समय अपना मुख गुरु साहिब की ओर रखते हुए जपुजी साहिब का पाठ कर अपनी शहादत दी थी। आध्यात्मिक की इस सर्वोच्च अवस्था को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में इस तरह अंकित किया गया है-
गुरमुखि रोमि रोमि हरि धिआवै||
नानक गुरमुखि साचि समावै||
(अंग क्रमांक 941)
अर्थात् जो गुरमुख पुरुष होता हैं वह रोम-रोम से ईश्वर का ध्यान करता रहता है, हे नानक! इस प्रकार गुरमुख परम सत्य में ही विलीन हो जाता है| इससे यह सिद्ध होता कि एक आम इंसान का तो केवल मुख और जुबान ही बोलती है परंतु गुरमुख इंसान के शरीर पर स्थित करोड़ों रोम-रोम उस अकाल पुरख के नाम मे विलीन होकर बोलते हैं|
ठीक इसी प्रकार, ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने भी अपनी शहादत से पूर्व स्नान कर जपुजी साहिब का पाठ किया। इसी तरह, शहीदों के सरताज ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने भी अपनी शहादत से पूर्व तपते तवे से उतरकर रावी नदी के किनारे जपुजी साहिब का पाठ करते हुए अपनी शहादत दी थी।
नोट: इस आलेख में प्रकाशित ऐतिहासिक जानकारी भाई दयाला जी के वंशज ‘गुरु पंथ खालसा’ के महान इतिहासकार और कथा वाचक सरदार मंजीत सिंह जी (कठुआ, जम्मू निवासी) द्वारा प्रदान की गई है। इस विषय में अधिक जानकारी के लिए पाठक सरदार मंजीत सिंह जी से मोबाइल नंबर 7006970479 पर संपर्क कर सकते हैं।
भाई दयाला जी की महान शहादत को सादर नमन!