ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ॥
अपने भीतर के रावण का दहन कीजिए…
विजयादशमी—अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि (इस वर्ष 2 अक्टूबर 2025, अर्थात 2 असू नानकशाही संवत 557)-वह पावन दिन है जिसे सम्पूर्ण भारत ही नहीं, बल्कि विश्व भर में बसे भारतीय बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाते हैं। यह केवल त्योहार नहीं, अपितु अपने आनंद को बाँटने और धर्म की विजय का स्मरण करने का अवसर है।
इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। वह रावण-जो बुराई, अधर्म, अहंकार और पाप का प्रतीक था। पुण्य की अधर्म पर विजय ही विजयादशमी का सार है। किंतु प्रश्न यह है-क्या वास्तव में बुराई का नाश हो गया है? क्या पाप, अहंकार और अधर्म सदा के लिए समाप्त हो चुके हैं?
जिस रावण के पुतले का दहन हम सदियों से करते आए हैं, वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं था। वह असाधारण विद्वान, वेदों का ज्ञाता और शास्त्रों का गहन अध्येता था। उसमें भक्ति और असीम शक्ति का अद्भुत संगम था। उसका मस्तिष्क दस मस्तिष्कों के समान तीव्र गति से कार्य करता था, इसी कारण प्रतीक स्वरूप उसके दशमुख पुतले का दहन किया जाता है। किंतु यही अद्भुत शक्ति उसका अहंकार बन गई। उसे भली-भाँति ज्ञात था कि वह कालातीत है, उसकी मृत्यु संभव नहीं और यही दंभ उसके लिए विनाशक ठहरा।
गुरबाणी में उसके विषय में अंकित है—
आसा॥
लंका सा कोटु समुंद सी खाई॥
तिह रावन घर खबरि न पाई॥
किआ मागउ किछु थिरु न रहाई॥
देखत नैन चलिओ जगु जाई॥रहाउ॥
इकु लखु पूत सवा लखु नाती॥
तिह रावन घर दीआ न बाती॥
चंदु सूरजु जा के तपत रसोई॥
बैसंतरु जा के कपरे धोई॥
गुरमति रामै नामि बसाई।।
असथिरु रहै न कतहूं जाई॥
कहत कबीर सुनहु रे लोई॥
राम नाम बिनु मुकति न होई॥
(अंग क्रमांक 481)
भावार्थ-जिस महाबली रावण का लंका जैसा अजेय किला था और समुद्र जैसी खाई उसकी रक्षा के लिए थी, आज उसके घर का कोई अता-पता नहीं। इस संसार में कुछ भी स्थिर नहीं, सब नश्वर है; हमारे नेत्रों के समक्ष ही संपूर्ण जगत नाश की ओर बढ़ रहा है। जिस रावण के एक लाख पुत्र और सवा लाख पौत्र-पौत्रियाँ थीं, उसके घर में आज न दीपक है, न बाती। इतना बलशाली था कि, सूर्य और चन्द्र उसकी रसोई पकाते थे और अग्निदेव उसके वस्त्र धोते थे| वह भी अंततः नष्ट हो गया। पर जो मनुष्य गुरु की मत से राम-नाम को अपने हृदय में बसाता है, वही स्थिर रहता है और कहीं नहीं भटकता। कबीर जी कहते हैं-हे लोगों! सुनो, राम-नाम के बिना मुक्ति नहीं।
रावण यह नहीं जान सका कि प्रभु-परमेश्वर, अकाल पुरख ने प्रत्येक जीव का अंत उसके जन्म के साथ ही लिख दिया है। जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। उसका अहंकार ही उसके पतन का कारण बना। उसी अहंकार ने उससे वह पाप करवाया, सीता माता का हरण-जो उसके सर्वनाश का कारण बना। यद्यपि उसने अशोक वाटिका में उन्हें स्त्री-सम्मान सहित रखा, पर यह अपराध ही उसके अंत का बीज सिद्ध हुआ।
आधुनिक रावण और हमारे भीतर का दहन
इस देश में प्राचीन काल से ही रामायण की रचना अनेक कवियों और लेखकों ने की है। किंतु सभी ने रावण के चरित्र को एक खलनायक, एक दुष्ट, एक नकारात्मक प्रतीक के रूप में ही चित्रित किया है। जबकि ऐतिहासिक सत्य यह है कि माता सीता का हरण करने के उपरांत भी रावण ने उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं दिया। उसका उद्देश्य केवल यही था कि श्रीराम को अपनी बहन शूर्पणखा की अपमानित स्थिति का एहसास कराया जाए।
रावण के अंत के पश्चात जब श्रीराम ने उसके मृत शरीर के चरण स्पर्श कर उसे सम्मान दिया, तो यह प्रमाणित हुआ कि रावण केवल खलनायक ही नहीं था, अपितु अत्यंत गुणी, ज्ञानी और विद्वान भी था। उसकी बुराई का अंत अवश्य हुआ, परंतु समय के साथ उसकी छवि इतनी विकृत कर दी गई कि रामलीलाओं, लेखनों और चलचित्रों के माध्यम से वह केवल दुष्टता का प्रतीक बनकर रह गया। आज स्थिति यह है कि कोई भी माँ अपने पुत्र का नाम रावण रखना नहीं चाहती।
परंतु वास्तविकता यह है कि समाज में रावण आज भी खुलेआम विचरण कर रहे हैं, बलात्कार, भ्रूण हत्या, भ्रष्टाचार, पराए अधिकार का हरण और निर्दोषों का नरसंहार करते हुए। प्रश्न है: क्या इनके पुतलों का भी कभी दहन होगा?
इतिहास की दृष्टि से आधुनिक रावण
मुगल काल में हजारों भारतीय स्त्रियों को ग़ज़नी के बाज़ारों में बेचा गया। किंतु क्या उन अत्याचारियों के पुतले फूंके गए? ब्रिटिश राज में हजारों भारतीयों का कत्लेआम हुआ, स्त्रियों का बलात्कार हुआ, क्या कभी किसी अंग्रेज़ शासक का पुतला जलाया गया?
सन 1984 के भीषण सिख नरसंहार को कौन भूल सकता है? हजारों सिखों को जीवित जला दिया गया, स्त्रियों और बालिकाओं के साथ घिनौने अपराध किए गए, घरों और दुकानों को लूटा गया परंतु क्या किसी ने उस नरसंहार के रावणों का पुतला जलाया?
हाल ही में मणिपुर में भी स्त्रियों को नग्न घुमाकर, बलात्कार कर और सरेआम हत्या कर दी गई। परंतु क्या उन दोषियों का भी कभी पुतला जलाया जाएगा?
सच तो यह है कि इन आधुनिक रावणों ने ऐतिहासिक रावण से कहीं अधिक जघन्य अपराध किए हैं।
समाज में पलते रावण
नवरात्रि के दिनों में हम कन्या पूजन और माता पूजन करते हैं। किंतु क्या समाज में स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार रुके? आज असंख्य रावण नेताओं और सत्ता की छत्रछाया में पल रहे हैं। यही कारण है कि उनके पुतले कभी नहीं फूंके जाते।
देश के हर कोने में ये रावण अपनी-अपनी लक्ष्मण-रेखाएँ लांघकर, अवसर मिलते ही सीता-हरण को तत्पर बैठे हैं। सड़कों पर चलती युवतियों का अपहरण और बलात्कार हमारे समाचारों का हिस्सा बन चुका है। स्वर्ण-लंका वाले रावण के राज्य में शायद ऐसा कुछ न होता होगा, किंतु “सोने की चिड़िया” कहलाने वाले इस भारतवर्ष में हज़ारों रावण लाखों सीताओं को प्रतिदिन अपमानित कर रहे हैं—और उनके पुतले आज तक नहीं जले।
पुतला जलाना तो दूर, देश के संविधान के अधीन रहते हुए भी यह अपराधी दंड से बच निकलते हैं।
रावण की आत्म स्वीकृति
प्रत्येक वर्ष विजयादशमी पर जब रावण का पुतला दहन होता है, तो वह जैसे चीत्कार कर कहता है:
“मेरा दहन करने वालों! तनिक दृष्टि डालो—असली रावण तो तुम स्वयं हो!”
आज आवश्यकता है उस रावण के दहन की, जो हमारे भीतर पल रहा है, लालच के रूप में, झूठ की प्रवृत्ति के रूप में, अहंकार और स्वार्थ के रूप में, वासना और आलस्य के रूप में, और उस सत्ता-शक्ति के रूप में जो पद और पैसे से आती है।
सच्चे दहन की आवश्यकता
यदि हम अपने भीतर छिपे इन रावणों का दहन करेंगे, तभी विजयादशमी का पर्व सही मायनों में सार्थक होगा। अन्यथा, यह केवल धन और समय की बर्बादी ही नहीं, अपितु प्रदूषण फैलाने का भी माध्यम है।
वास्तविक उत्सव यह होगा कि हम गुरबाणी की शिक्षाओं को आत्मसात करें और अपने भीतर के रावण का अंत करें। जैसा कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में अंकित है—
रामु गइओ रावनु गइओ जा कर बहु परवारु॥
कहु नानक थिरु कछु नाही सुपने जिउ संसारु॥
(अंग क्रमांक 1429)
अर्थात दशरथ-पुत्र राम भी संसार छोड़ गए, और लंका-पति रावण भी, जिसका इतना बड़ा परिवार था। गुरु नानक कहते हैं: यह संसार सपने के समान है, यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं।
अतः आज के दिन हमें केवल पुतले जलाकर संतोष नहीं करना चाहिए। आवश्यकता है आत्मावलोकन की, अपने भीतर के रावण को पहचानने और उसका दहन करने की। तभी विजयादशमी का पर्व वास्तविक अर्थों में विजय उत्सव बनेगा।

